भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत
जम्मू-कश्मीर को मिले विशेष दर्जे को हमें दो पहलुओं से देखना होगा। इसका ऐतिहासिक
पक्ष और फिर मौजूदा स्थिति। आजादी के ठीक पहले देश का 60 फीसदी हिस्सा ब्रिटिश
इंडिया में था और 40 फीसदी हिस्सा रियासतों में बंटा हुआ था। आबादी के लिहाज से 30
करोड़ लोग ब्रिटिश इंडिया में रहते थे और शेष 10 फीसदी रियासतों में। कुल 552
रियासतें थीं, जिनमें जम्मू-कश्मीर, हैदराबाद और जूनागढ़ बड़ी रियासतें
थीं। सरदार वल्लभभाई पटेल ने दूरदर्शी नीतियां अपनाकर इंस्ट्रुमेंट ऑफ एक्सेशन के
तहत रियासतों के वृहत्तर भारत में विलय की प्रक्रिया शुरू कर दी। उन्होंने ब्रिटिश
इंडिया के अंतिम वॉयसराय लॉर्ड माउंटबेटन को साफ कहा था, 'मैं अपनी टोकरी में भारत के सभी सेबों
को रख लूंगा।' हालांकि जम्मू-कश्मीर में स्थिति ऐसी
बनी कि यह पूरा सेब टोकरी में नहीं आ पाया।
हम जानते हैं कि जम्मू-कश्मीर रियासत
के तत्कालीन शासक हरीसिंह भारत में विलय के लिए राजी नहीं थे। जब पाकिस्तान ने
अपने सैनिकों के साथ कबायलियों का हमला करवाया तब हरीसिंह विलय-पत्र पर हस्ताक्षर
के लिए राजी हुए। वह भी तब जब कबायली श्रीनगर की दहलीज पर आ पहुंचे थे। प्रथम
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का कश्मीरी नेता शेख अब्दुल्ला से बड़ा लगाव था। वे
चाहते थे कि इस राज्य की बागडोर अब्दुल्ला के हाथों में हो।
भारतीय सेना जब कबायलियों को ठिकाने
लगा रही थी तो इतिहास गवाह है कि नेहरू ने एक बहुत बड़ी भूल कर दी। उन्होंने
एकतरफा युद्धविराम घोषित कर दिया और कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र में ले गए।
यही भूल इस राज्य को लेकर मौजूदा विवाद की जननी है। जब संविधान सभा की बैठक में
इसकी चर्चा चली तो नेहरू ने कहा कि चूंकि कश्मीर के मामले का अंतरराष्ट्रीयकरण हो
चुका है, यदि हमने इस पर भारतीय गणराज्य की ताकत
का इस्तेमाल किया तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमारी स्थिति कमजोर होगी। देश में तो
नेहरू निर्विवाद नेता थे ही। इसके बाद उनकी मानसिकता हमेशा अंतरराष्ट्रीय नेता
बनने की रही।
नेहरू के इसी रवैये के कारण मूल
अनुच्छेद बदलकर मौजूदा 370 बना। आज जब भाजपा इस मुद्दे पर बहस का आह्वान कर रही है
तो कांग्रेस, नेशनल कॉन्फ्रेंस और कथित
धर्मनिरपेक्षवादी नेता कह रहे हैं कि इस विषय पर कोई बहस नहीं होनी चाहिए।
हालांकि तब संविधान सभा की बैठक में
सबने एक स्वर से जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने का विरोध किया था। संविधान सभा
में उत्तरप्रदेश से एक सदस्य थे मौलाना हसरत मोहानी। उन्होंने सवाल उठाया कि क्या
कारण है कि जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा दिया जा रहा है। डॉ. भीमराव आंबेडकर भी
इसके विरोधी थे। जब नेहरू ने उन्हें शेख अब्दुल्ला को समझाने के लिए भेजा तो
आंबेडकर ने अब्दुल्ला से कहा, 'आप कह रहे हैं भारत जम्मू-कश्मीर की रक्षा करे, उसका विकास करे। भारत के नागरिकों को
भारत में जो भी अधिकार हैं वे इस राज्य के लोगों को मिलें और जम्मू-कश्मीर में
भारतीयों को कोई अधिकार नहीं हो। भारत के विधि मंत्री के रूप में मैं देश को धोखा
नहीं दे सकता।
नेहरू ने जम्मू-कश्मीर को व्यक्तिगत
प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया। संविधान सभा में सारे विरोध के बावजूद सबको समझा
दिया गया और राज्य को अनुच्छेद 370 के तहत विशेष दर्जा दे दिया गया। हालांकि इसका
शीर्षक है 'जम्मू-कश्मीर के संबंध में अस्थायी
प्रावधान। सवाल
उठता है कि कोई अस्थायी प्रावधान कब तक रहना चाहिए? नेहरू ने 27 नवंबर 1963 को इस अनुच्छेद के बारे में संसद में बोलते
हुए कहा था, 'यह अनुच्छेद घिसते-घिसते, घिस जाएगा। यानी कुछ समय बाद इसकी
उपयोगिता स्वत: खत्म हो जाएगी और यह अप्रासंगिक हो जाएगा। हमारा मानना है कि 65
साल बहुत होते हैं। यह तो पहले ही दिन से अप्रासंगिक था। इसे लागू करने की जरूरत
ही नहीं थी। इसे तो देश पर थोपा गया है।
इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझने के बाद
अब हम मौजूदा बहस पर आते हैं। भाजपा नेता नरेंद्र मोदी ने जम्मू-कश्मीर के विशेष
दर्जे पर बहस का आह्वान करते हुए सवाल उठाए हैं: क्या जम्मू-कश्मीर का विकास पूरे
भारत के विकास के साथ चल रहा है? इससे वहां के लोगों को फायदा हुआ है या नुकसान? उन्होंने तो अटलबिहारी वाजपेयी और
लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं की लोकतांत्रिक कार्यशैली को ही आगे बढ़ाया है। वे तो
लोगों के विचार जानने की कोशिश कर रहे हैं जिससे कि फैसला लेने में जन भावनाओं का
ध्यान रखा जा सके। इसमें यह बात कहां आती है कि भारतीय जनता पार्टी ने अनुच्छेद
370 के मुद्दे पर अपना रुख नरम कर दिया है।
हम आज भी जम्मू-कश्मीर को शेष भारत से
अलग करने वाला यह प्रावधान हटाने के पक्ष में हैं, क्योंकि संविधान में ही इसे अस्थायी प्रावधान बताया गया है। हमने कहा
है कि हम लोकतांत्रिक पद्धति से चर्चा करके नतीजा निकालेंगे, कोई बात थोपेंगे नहीं। आजादी के तत्काल
बाद भारत कमजोर देश था। वह इस स्थिति में नहीं था कि इस मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय
दबाव झेल पाता। हम पूछना चाहते हैं कि आजादी के इतने वर्षों बाद क्या आज भी भारत
मूक और कमजोर देश ही बना हुआ है? इन सब बातों पर राष्ट्रीय बहस की जरूरत है।
नेहरू ने इस मामले में एकपक्षीय निर्णय
लिया था। अब यह अनुच्छेद हटाने के लिए बहस हो और उसमें जम्मू-कश्मीर की भी
भागीदारी हो। आज जम्मू की आबादी कश्मीर घाटी की तुलना में 30 फीसदी ज्यादा है, लेकिन विधानसभा में कश्मीर घाटी का
प्रतिनिधित्व ज्यादा है। यह असंतुलन दूर होना चाहिए।
अल्पसंख्यकवाद की राजनीति करने वाले
लोगों को इस मुद्दे पर बहस और चर्चा नहीं चाहिए। प्रजातांत्रिक पद्धति की पहली
जरूरत बहस है। अधिनायकवाद और फासीवाद में बहस की गुंजाइश नहीं होती। हमारी दृढ़
मान्यता है कि जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाला संविधान का अस्थायी अनुच्छेद
370 हटना चाहिए,
लेकिन
हम अपनी इच्छा देश पर नहीं थोपेंगें। एक स्वस्थ लोकतंत्र में किसी भी जरूरी विषय
पर आप जनभावनाओं को दरकिनार नहीं कर सकते।
भारतीय जनता पार्टी के लिए इस विषय पर
कोई अन्य रुख अपनाने के बारे में सोचना ही संभव नहीं है। आखिर पार्टी के संस्थापक
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपने प्राणों की आहुति कश्मीर के लिए ही दी। संभवत: वे
चाहते थे कि इसी बहाने इस विषय पर राष्ट्रव्यापी चर्चा हो और आंदोलन छेड़ा जाए। तब
भारतीय जनसंघ (भाजपा का पूर्व स्वरूप) इतना मजबूत नहीं था, लेकिन आज भाजपा की जड़ें पूरे देश में
फैली हैं और हम इस विषय पर देश-व्यापी आंदोलन छेडऩे की स्थिति में हैं। हालांकि
आंदोलन से पहले हम इस विषय पर देशवासियों की भावनाएं जानना चाहते हैं। इसीलिए यह
बहस जरूरी है।
साभारः दैनिक भास्कर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें