समलिंगी
संबंधों के मसले पर कुछ धार्मिक और सांस्कृतिक संगठनों की ओर से दायर याचिका पर
सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले को संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार भले विधिसम्मत
माना जाए, लेकिन बदलते सामाजिक मूल्यों के लिहाज से इसे प्रगतिशील न्याय के रूप
में नहीं देखा जाएगा। अदालत ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को
सही ठहराया है, जिसके तहत ‘प्रकृति की
व्यवस्था’ के विरुद्ध स्थापित किए गए शारीरिक संबंधों को अपराध माना गया है।
स्वाभाविक रूप से इससे संबंधों के मामले में जनतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने
वाले एक बड़े वर्ग में निराशा फैली है और इसे मानवाधिकारों का हनन करने वाले फैसले
के तौर पर देखा जा रहा है। लेकिन न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी के नेतृत्व वाली पीठ ने
यह कहते हुए इसकी जिम्मेदारी केंद्र सरकार के पाले में डाल दी है कि कानून बनाना और बदलना संसद का काम है। निश्चित
रूप से अदालत की यह सीमा है कि उसे संविधान में दर्ज कानून और उसकी व्यवस्था के
तहत अपना फैसला देना होता है। मगर ऐसे न जाने कितने मौके आए हैं जब न्यायालय ने
अपने विवेक से कानूनों की प्रासंगिकता पर विचार किया और मानवाधिकारों के अनुकूल
उनकी व्याख्या की है। जहां तक धारा 377 का सवाल है, इस कानून का
आमतौर पर समलिंगी वयस्कों को अपमानित और प्रताड़ित करने के एक हथियार के तौर पर भी
इस्तेमाल किया जाता रहा है। इसके अलावा, समाज में ऐसे संबंध रखने वालों को
आमतौर पर हेय दृष्टि से देखा जाता है। इस तरह की कई विपरीत स्थितियों के बरक्स ही
समलिंगी संबंधों को सहज चुनाव का मामला मानने वालों ने सन 2001
में जनहित याचिका दायर कर अदालत से समलैंगिकता को दंडनीय न मानने और ऐसे लोगों को
इज्जत के साथ जीने का अधिकार देने की गुजारिश की थी।
यों,
इसी
संविधान के अनुच्छेद चौदह और इक्कीस में
समानता को जिस तरह मौलिक अधिकार का दर्जा दिया गया है, उसमें यह एक
विरोधाभास ही है कि किसी व्यक्ति को उसके शारीरिक संबंधों के चुनाव के आधार पर
भेदभाव का शिकार होना पड़े। शायद इसी आधार पर तब दिल्ली उच्च न्यायालय के
न्यायमूर्ति एपी शाह और एस मुरलीधर ने समलैंगिकता को प्रतिबंधित करने वाली भारतीय
दंड संहिता की धारा 377 की सावधानी से व्याख्या की और करीब चार साल
पहले ऐसे संबंधों को अपराध न मानने की व्यवस्था दी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने
ताजा फैसले में दिल्ली उच्च न्यायालय के उस निर्णय को किनारे कर दिया है। सवाल है
कि खुद संविधान ने लोगों को जो मौलिक अधिकार दिए हैं, उन्हें क्या
केवल नैतिकता के अलग-अलग मानदंडों का हवाला देकर खारिज किया जा सकता है। यह कानून 1861
में
औपनिवेशिक काल में तैयार किए गए भारतीय दंड संहिता का हिस्सा है, जिसे
आज बिल्कुल प्रासंगिक नहीं माना जा सकता। एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक समाज में
समलिंगी संबंधों पर कानून, संसद या किसी को भी आपत्ति क्यों होनी
चाहिए और इसे अपराध के रूप में देखा जाना कहां तक सही है। कुछ कट्टर धार्मिक
समूहों और पारंपरिक सोच वाले लोगों को छोड़ दें तो आधुनिक और उदार तरीके से समाज को
देखने-समझने वाले लोग लैंगिकता को दो लोगों की आपसी समझ और रजामंदी का मामला मानते
हैं। ऐसे में धारा 377 अगर किसी व्यक्ति के निजी चुनाव या जीवनशैली को
आपराधिक ठहराता है तो संसद के सामने उसकी व्यावहारिकता पर विचार करने का विकल्प
खुला है। अंग्रेजी राज में बनाए गए नियम-कायदे आज भी उतने ही सही हों, जरूरी
नहीं।
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