सोमवार, 30 दिसंबर 2013

वंचित रिहाइश

शहरों, औद्योगिक क्षेत्रों, बाजारों के विस्तार के बीच झुग्गी बस्तियों का फैलाव भी एक हकीकत है। तमाम अध्ययनों से जाहिर हो चुका है कि खेती से गुजारे लायक आमदनी न हो पाने की वजह से हर साल लाखों लोग रोजी-रोजगार की तलाश में शहरों का रुख करते हैं और फिर वे वहीं के होकर रह जाते हैं। इनमें से ज्यादातर लोग निर्माण-मजदूरी, रिक्शा-रेहड़ी वगैरह के काम में लगते हैं और चमकते-दमकते मॉलों, अट्टालिकाओं के लिए खटते हुए खाली पड़े सार्वजनिक भूखंडों पर अपने सिर छिपाने का बंदोबस्त करते हैं। ऐसी बस्तियों में न तो पीने का साफ पानी उपलब्ध होता है, न शौच आदि के लिए कोई माकूल व्यवस्था होती है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की ताजा रपट के मुताबिक भारत के शहरों में कुल करीब चौंतीस हजार झुग्गी बस्तियां हैं। इनमें लगभग इकतालीस फीसद अधिसूचित हैं, जबकि उनसठ फीसद गैर-अधिसूचित। अधिसूचित झुग्गी बस्तियों में सरकारें पीने के पानी, बिजली आदि से संबंधित सुविधाएं किसी हद तक मुहैया कराने की कोशिश करती हैं, जबकि गैर-अधिसूचित झुग्गी बस्तियों में रहने वालों को अपने स्तर पर इनका इंतजाम करना पड़ता है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस तरह उन्हें कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता होगा। सबसे अधिक झुग्गी बस्तियां महाराष्ट्र के शहरी क्षेत्रों में हैं। उसके बाद कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल के शहरों में। देश भर की ऐसी बस्तियों में करीब अट्ठासी लाख घर हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की ओर से इस तरह का यह उनहत्तरवां सर्वेक्षण है।


इंदिरा आवास योजना और जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीकरण योजना आदि कार्यक्रमों के तहत गरीबों को सस्ते आवास मुहैया कराने के सरकारी दावों के बरक्स हर साल झुग्गी बस्तियों और फिर इन बस्तियों में घरों की संख्या कुछ बढ़ जाती है। इन बस्तियों के फैलाव को रोकना क्यों संभव नहीं हो पाता? इसके पीछे कुछ हद तक लोगों की यह मानसिकता भी काम करती है कि सार्वजनिक भूखंडों पर झुग्गियां डाल लेना रिहाइश का सबसे सस्ता तरीका है। फिर कुछ राजनीतिक इन बस्तियों में रहने वालों को अपने वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करते हैं, इसलिए वे उन्हें वहीं बसे रहने की वकालत करते देखे जाते हैं। जबकि ज्यादातर झुग्गी बस्तियां गंदे नालों के किनारे, कचरा निपटारे के लिए निर्धारित ढलाव आदि के गिर्द बनी होती हैं। ऐसे में वहां रहने वालों की सेहत पर क्या असर पड़ता होगा, अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। इन बस्तियों में रहने वालों का जीवन हर वक्त जोखिम से भरा रहता है। एक चिनगारी भी हर साल हजारों घरों को खाक कर जाती है। तपेदिक, दमा, कैंसर जैसी बीमारियां इन लोगों में आम हैं। समझना मुश्किल है कि जब ग्रामीण इलाकों में निर्धन परिवारों के लिए घर बनाने को सरकारें अनुदान दे सकती हैं तो शहरी क्षेत्रों में ऐसी बस्तियों का निर्माण क्यों नहीं कर सकतीं, जहां पीने के साफ पानी, बिजली, स्कूल, स्वास्थ्य सेवा आदि का मुकम्मल इंतजाम हो। यह भी सुनिश्चित हो कि जिस परिवार के नाम पर भवन आबंटित हो, उसमें वही रहे, कारोबारी निगाहें न पड़ने पाएं, जैसा कि दिल्ली के अनेक इलाकों में देखा जाता है। जो लोग उचित रिहाइश से वंचित हैं, वे भी अपने श्रम से शहरों की आर्थिक गतिविधि में अहम भूमिका निभाते हैं, पर ढांचागत विस्तार में उनकी आवासीय समस्या नजरअंदाज कर दी जाती है, बल्कि कई बार विस्थापन के रूप में उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। उनके प्रति संवेदनशील रुख अपनाकर शहरी नियोजन पर नए सिरे से सोचने की जरूरत है।

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