सोमवार, 9 दिसंबर 2013

नेपाल की राह

नई संविधान सभा के लिए नेपाल में हुए चुनाव के आरंभिक परिणाम कुछ दिन पहले ही आ गए थे। अब पूरे नतीजे आ गए हैं। प्रत्यक्ष और आनुपातिक, दोनों की मिश्रित प्रणाली के तहत हुए इन चुनावों के नतीजे माओवादियों से नेपाली जनता के मोहभंग को साफ तौर पर दर्शाते हैं। सुशील कोइराला के नेतृत्व वाली नेपाली कांग्रेस छह सौ एक सदस्यों की संविधान सभा में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी है। अलबत्ता वह बहुमत से काफी दूर है। उसे एक सौ छियानबे सीटें ही मिल पार्इं, जबकि बहुमत की शर्त कम से कम तीन सौ एक सीटों के साथ पूरी होती है। झालानाथ खनल की अगुआई वाली सीपीएन-यूएमएल को एक सौ पचहत्तर सीटों के साथ दूसरा स्थान मिला है। जबकि पिछली संविधान सभा में सबसे बड़ी पार्टी रही प्रचंड की यूसीपीएन (माओवादी) इस बार तीसरे स्थान पर खिसक गई, उसे केवल अस्सी सीटें मिल पार्इं। प्रचंड दो जगह उम्मीदवार थे और एक सीट पर उन्हें शिकस्त खानी पड़ी। अपने इस लचर प्रदर्शन को माओवादियों ने चुनाव में धांधली का परिणाम कहा है। लेकिन यह गौरतलब है कि प्रारंभिक नतीजे आने से पहले हेराफेरी के आरोप नहीं लगाए गए थे।

सच तो यह है कि इस बार के चुनाव में मतपत्रों की छानबीन से लेकर मतदान तक कहीं ज्यादा सतर्कता बरती गई। भारत और यूरोपीय संघ समेत अंतरराष्ट्रीय समुदाय की निगरानी भी थी। दरअसल, माओवादियों की यह हालत उनकी नाकामियों की देन है। संविधान-निर्माण के वादे के प्रति उन्होंने गंभीरता नहीं दिखाई। उनके नेतृत्व पर विलासितापूर्ण जीवन शैली से लेकर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे। पार्टी के भीतर अंदरूनी झगड़े भी उभरते रहे। अपनी विफलताओं को छिपाने के लिए वे कभी भारत और कभी चीन के हस्तक्षेप का विवाद खड़ा करते रहे। इस तरह उन्होंने नेपाली जनता को निराश किया और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की सहानुभूति भी गंवा बैठे।

चुनाव नतीजे को संदिग्ध बताने के बजाय उन्हें इसे सहजता से स्वीकार करना चाहिए। साथ ही नई संविधान सभा को सहयोग भी। इससे उन्हें अपना खोया हुआ आधार पाने की उम्मीद बनी रहेगी। पिछली संविधान सभा की जो किरकिरी हुई वह किसी से छिपी नहीं है। पांच साल काम करने के बावजूद वह देश के लिए नया संविधान बनाने के वादे को पूरा नहीं कर सकी। सरकार चलाने में भी कई बार राजनीतिक संकट पैदा हुआ। आखिरकार राजनीतिक गतिरोध दूर करने के मकसद से नए चुनाव कराने पड़े। पर सबसे अहम सवाल यही है कि क्या बरसों से चला आ रहा गतिरोध दूर हो पाएगा और क्या नई संविधान सभा अपना मकसद पूरा कर पाएगी।


गणराज्य घोषित किए जा चुके नेपाल के लोकतांत्रिक ढांचे और राज्य-व्यवस्था की शक्तियों के बंटवारे को लेकर प्रमुख राजनीतिक दलों के बीच गंभीर मतभेद रहे हैं। माओवादी विभिन्न समुदायों के विशिष्ट अधिकार सुनिश्चित कर ग्यारह राज्य बनाने की वकालत करते आए हैं, जबकि नेपाली कांग्रेस और यूएमएल सात राज्यों के पक्ष में रही हैं। विवाद का एक और खास मुद््दा राष्ट्रपति बनाम प्रधानमंत्री के अधिकारों को लेकर रहा है। प्रचंड राष्ट्रपति को अधिक से अधिक अधिकार देकर एक तरह से राष्ट्रपति प्रणाली की तरफदारी करते रहे हैं, जबकि नेपाली कांग्रेस और यूएमएल चाहती हैं कि राष्ट्रपति का पद महज आलंकारिक हो। कई छोटे दलों ने चुनाव का बहिष्कार किया था और कई दलों ने आनुपातिक प्रणाली के तहत पहली बार विधायिका में जगह बनाई है। इसके अलावा, अस्मिता आधारित खींचतान भी नेपाल के राजनीतिक शक्ति संतुलन को पेचीदा बना देती है। ऐसे में आम राय बनाने के संजीदा प्रयासों के बिना जनादेश के तकाजे को पूरा नहीं किया जा सकता।

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