रविवार, 15 दिसंबर 2013

अर्थव्यवस्था की पुकार

भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने अर्थव्यवस्था को लेकर सरकार को सीधे और विपक्षी दलों को परोक्ष ढंग से जो सलाह दी है, उस पर गंभीरता से विचार किए जाने की संभावना कम ही लगती है। लेकिन अगर ऐसा न किया गया तो आने वाले दिनों में शायद देश को ठीक से पछताने का भी मौका न मिले।

राजन ने कहा है कि अर्थव्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त करने के लिए जो भी कानूनी बदलाव जरूरी हैं, उन्हें संसद से पारित कराने के लिए सरकार को जान लड़ा देनी चाहिए। अगर वह इस काम में यह सोचकर हीलाहवाली बरतती है कि अब जो करना है वह अगली सरकार करेगी, तो यह सोच अर्थव्यवस्था के लिए भारी पड़ सकती है।

रघुराम राजन का आकलन है- और ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषक भी इससे सहमत होंगे- कि आगे आने वाली सरकार के लिए कोई भी कानून पास कराना अभी से कहीं ज्यादा मुश्किल साबित होगा। कारण? देश की राजनीति कांग्रेस, बीजेपी और इन दोनों से चुनाव-पूर्व गठबंधन का रिश्ता न रखने वाले दलों के तीन ध्रुवों के बीच बुरी तरह बंटी हुई है। आम चुनाव के बाद अगर इनमें से किन्हीं दो ध्रुवों को मिलाकर सरकार बनाने की नौबत आती है तो वह सरकार ऐसी नहीं होगी, जिससे सख्त फैसलों की उम्मीद की जा सके।

अब, हालत कुल मिलाकर यह है कि चुनाव में गिनती के दो-तीन महीने बचे हैं। सत्तारूढ़ दलों की चिंता व्यवस्था सुधारने से ज्यादा चुनाव जीतने पर केंद्रित है, जबकि विपक्ष की दिलचस्पी देश के सामने मौजूद दूरगामी सवालों का हल खोजने के बजाय हर कीमत पर सरकार की घेरेबंदी करने में है।

लेकिन अर्थव्यवस्था भावनाओं और हवाई तर्कों से नहीं, ठोस गिनतियों के गुणा-भाग से चलती है। उसको इस बात से क्या लेना-देना कि सरकार की कमान किस पार्टी के हाथ में है? इंटरनैशनल रेटिंग एजेंसियां बार-बार चेतावनी दे रही हैं कि भारत अगर अपनी विकास दर, मुद्रास्फीति, वित्त घाटे और व्यापार घाटे के आंकड़े जल्दी दुरुस्त नहीं करता तो इसके बॉन्ड्स को जंक रेटिंग दी जा सकती है।

जंक यानी कचरा पेटी में डालने लायक चीज, हालांकि यह सिर्फ शाब्दिक अनुवाद है। व्यवहार में इसका अर्थ यह होगा कि भारतीय कंपनियों के लिए बाहर से कर्ज उठाना बहुत महंगा हो जाएगा। विदेशी निवेशक यहां की अर्थव्यवस्था को लेकर सशंकित हो जाएंगे और अपना पैसा यहां की बजाय कहीं और लगाना पसंद करेंगे। उद्योगों का चक्का धीमा पड़ेगा तो लोगों के लिए रोजी-रोटी का संकट बढ़ जाएगा।


अतीत में ऐसा हो चुका है। 1990-91 में वीपी सिंह और चंद्रशेखर की सरकारें कई महान भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती थीं। लेकिन उनके होने का आर्थिक मंतव्य यह निकला कि देश लगभग दिवालियेपन के कगार पर पहुंच गया और कच्चे तेल जैसे जरूरी निर्यात के लिए भी देश का संचित सोना गिरवी रखना पड़ा। मौजूदा संसद के पास अभी एक-दो सत्र बाकी हैं। इनके सदुपयोग के लिए न सिर्फ सरकार बल्कि विपक्ष को भी रघुराम राजन की बात गौर से सुननी चाहिए। वरना बाद में इस आरोप-प्रत्यारोप का कोई मतलब नहीं होगा कि अमुक की गलती से देश का ऐसा हाल हो रहा है।

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