भ्रष्टाचार, हिंसा और सिद्धांतहीन राजनीतिक जोड़-तोड़
की बुरी खबरों के बीच भारत के पहले स्वनिर्मित हल्के लड़ाकू विमान तेजस को
वायुसेना की ओर से इनिशियल ऑपरेशन क्लियरेंस (आईओसी) मिल जाना सचमुच एक दिल खुश कर
देने वाली खबर है। पिछले तीस वर्षों से हमारे वैज्ञानिक, तकनीकीविद और कई कुशल कारीगर जिस सपने
को साकार करने में जुटे हुए थे, वह सेना की तरफ से मिली इस हरी झंडी के बाद पूरा हो गया है।
इस सपने के सच होने में लगे तीन दशक और
17 हजार करोड़ से भी ज्यादा रुपये कुछ लोगों को बहुत ज्यादा लग सकते हैं। जिन
गड़बड़ियों के चलते यह मामला इतना लंबा खिंचा, उनकी तह में जाना जरूरी है, ताकि भविष्य की रक्षा परियोजनाओं में इनसे बचा जा सके। लेकिन इसे
आधार बनाकर अगर कोई यह तर्क देता है कि इतने पैसे लगाकर तो हम लगे हाथों किसी भी
देश से जहाज मंगवा सकते थे, वह या तो सुरक्षा मामलों से बिल्कुल अनजान है, या फिर जाने-अनजाने ताकतवर विदेशी स्वार्थों
की सेवा में जुटा हुआ है।
इक्कीसवीं सदी में बाहर से खरीदे हुए
हथियारों के बल पर राष्ट्रीय सुरक्षा की बात सोचना सपने में दिखे खजाने के बल पर
खुद को अमीर समझने जैसा है। लड़ाई में अमेरिका जैसे कुछ देशों से खरीदे हुए हथियार
आप उनसे इजाजत लिए बगैर इस्तेमाल ही नहीं कर सकते। इस दौरान इन हथियारों का छोटा
सा भी पुर्जा बेकार हो जाने पर इन्हें चुपचाप खड़ा कर देना होता है, क्योंकि इनकी मरम्मत इन्हें बेचने वाला
देश ही कर सकता है, और
मरम्मत की नौबत आम तौर पर लड़ाई के बाद ही आती है। लड़ाई लंबी खिंचने पर इनका गोला-बारूद
भी कम पड़ जाता है और ये दिखावटी सामान बनकर रह जाते हैं। इसलिए लड़ाई की दाल-रोटी
समझी जाने वाली चीजों, मसलन
लड़ाकू विमानों,
टैंकों, युद्धपोतों, इनके गोला-बारूद और तीन-चार सौ
किलोमीटर तक मार करने वाली मिसाइलों के बारे में पूर्ण आत्मनिर्भरता आज राष्ट्रीय
संप्रभुता की बुनियादी शर्त बन गई है।
हमारे यहां कभी कोई तो कभी कोई बहाना
बनाकर इस कठिन रास्ते से दूर रहने वकालत की जाती रही है। नतीजा यह है कि भारत के
डिफेंस सेक्टर को आज दुनिया भर के हथियार दलालों के बीच सबसे कमाऊ बिजनस के लिए
जाना जाता है। तालियां बजाने की आदत हमने अपनी लंबी दूरी की मिसाइलों और परमाणु
परीक्षणों को लेकर डाल ली है, लेकिन ये लड़ने से ज्यादा दिखाने के हथियार हैं। रक्षा क्षेत्र में
हमारी आत्मनिर्भरता की सबसे बड़ी मिसालें आज सेना द्वारा स्वीकृत अर्जुन टैंक, तेजस विमान और पृथ्वी, त्रिशूल, नाग आदि छोटी-मंझोली दूरी की मिसाइलें हैं। लेकिन हमारी असली उपलब्धि
यह होगी कि हम लगातार इन्हें विकसित करते रहें और इन्हें संसार के फ्रंटलाइन
वेपन्स की श्रेणी में बनाए रखें। इसके बजाय अगर एक मॉडल बनाकर उसे बाबूगिरी के
हवाले छोड़ देने का चिरपरिचित रास्ता अपनाया गया तो हमें समय और धन का वैसा ही
नुकसान उठाना पड़ेगा, जैसा
ऊपर बताए गए लगभग सभी स्वीकृत हथियारों के मामले में उठाना पड़ा है।
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