सोमवार, 23 दिसंबर 2013

अमेरिका का असली चेहरा

न्यूयॉर्क में भारतीय राजनयिक देवयानी खोबरागडे की नौकरानी को दिए जा रहे वेतन पर जो बवाल मचा है उससे दूसरे देशों में महत्वपूर्ण पदों पर तैनात भारतीयों के आधिकारिक प्रपत्रों पर हस्ताक्षर करने में बरती जाने वाली लापरवाही साफ झलकती है। किंतु एक व्यक्तिगत विवाद का भारत और अमेरिका के बीच बड़े कूटनीतिक टकराव में बदलना एक अलग मुद्दा है। हां, आइएफएस अधिकारियों में इस बात को लेकर रोष व्याप्त है कि अमेरिकी अधिकारियों ने स्थानीय राजनीतिक आकांक्षाओं के चलते भारतीय राजनयिक को जानबूझकर निशाना बनाया है। इस रोष का ही नतीजा था कि भारत सरकार अचानक गहरी नींद से जागी और वियना संधि के उल्लंघन पर अमेरिका के खिलाफ तीखी प्रतिक्त्रिया दिखाई। इस मामले का स्याह पक्ष यह है कि देवयानी का सार्वजनिक तौर पर अपमान किया गया, खासतौर पर उन्हें हथकड़ी लगाकर और कपड़े उतरवाकर तलाशी लेकर।

इस प्रकार के मामलों में भारत सरकार संबंधित देश को संदेश भेजती है कि जल्द से जल्द कठघरे में खड़े अधिकारी को वापस बुला लिया जाए। ऐसे बहुत से मामले सामने आते हैं जिनमें राजनयिक अपने शराब के कोटे का दुरुपयोग करते पाए गए हैं या फिर अपने कूटनीतिक बैग में प्राचीन वस्तुओं की तस्करी में पकड़े गए हैं। शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि इस प्रकार की हरकतें करने वाले राजनयिक को स्थानीय हवालात में एक रात काटनी पड़ी हो या फिर पटियाला कोर्ट में धक्के खाने को मजबूर होना पड़ा हो। राजनयिकों के मामले में टकराव टालने में ही समझदारी मानी जाती है और यही अंतरराष्ट्रीय मानक माना जाता है।

अमेरिका का मानना है कि यह मामला अलग तरह का है। अमेरिका यह भी मानता है कि वह पूरे विश्व का नैतिक अभिभावक और दरोगा है। इसीलिए वह इसे सही मानता है कि विदेशी राजनेताओं की टेलीफोन पर बातचीत में उसे कान घुसेड़ने का अधिकार है। साथ ही अमेरिका को यह भी लगता है कि उसे भारत के नेताओं के कथित मानवाधिकार हनन पर बिना किसी साक्ष्य या सुनवाई के मनमाफिक फैसला करने और इस बारे में निर्णय सुनाने का अधिकार है कि किस देश में धार्मिक स्वतंत्रता है और किस देश में नहीं। देवयानी मामले में अमेरिका ने अपने इसी विश्वास का प्रदर्शन किया है कि वह तमाम कूटनीतिक विवादों का एकमात्र पंच है और उसे विश्व में कहीं से भी किसी को भी निकालने का अधिकार है। इस संबंध में दूसरे देश का कानून कुछ भी कहता हो, उसकी बला से।

यह जानकर कुछ राहत मिल सकती है कि अमेरिका की दबंगई सर्वव्यापी है और केवल भारत को ही निशाना नहीं बनाया गया है। देवयानी मामले ने इस भयावह सच्चाई को उजागर कर दिया है कि भारत-अमेरिका द्विपक्षीय संबंध पारस्परिक आदान-प्रदान पर निर्भर नहीं हैं, बल्कि साफ तौर पर अमेरिका के पक्ष में झुके हुए हैं। अमेरिका जब भी मौका पाता है अपनी दादागीरी और दबंगई दिखाने से नहीं चूकता। देवयानी के मामले को भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। भारत में अमेरिकी दूतावास के सामने से बैरिकेड हटाने की बहुप्रचारित घटना पहली नजर में तुच्छ लग सकती है, किंतु यह उस चौंकाने वाली उदारता की संकेतक है जो भारत की तरफ से अमेरिका को दी जा रही है।

अमेरिका पर असाधारण सुविधाओं की बारिश नई दिल्ली के साथ वाशिंगटन के विशेष संबंधों का नतीजा नहीं है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के भारत के साथ संबंध सुधारने के विशेष प्रयासों के बावजूद पिछले कुछ वषरें से द्विपक्षीय संबंध विशुद्ध रूप से भारत की चिंता का कारण रह गए हैं। भारत ने अमेरिकी संबंधों में हद से आगे जाकर निवेश किया है और इस प्रकार अमेरिका को यह छूट दे दी है कि वह इसे हल्के में ले।

पिछले एक दशक में भारतीय जीवन के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अमेरिका का प्रभाव बेहिसाब बढ़ा है। इस हद तक कि यह प्रभाव साफ तौर पर नुकसानदायक प्रतीत होने लगा है। बड़े नौकरशाहों से लेकर वरिष्ठ जनरलों तक जिन्हें लगता है कि भारत सरकार से अनुमति लेने की जहमत उठाए बिना भी वे अमेरिका में सम्मानित हो सकते हैं, आज अमेरिका भारत में उसी स्थिति को प्राप्त कर चुका है जो सातवें दशक में सोवियत संघ की थी। यहां तक कि मीडिया और शैक्षिक संस्थाओं जैसे संस्थान भी अमेरिका के इस अति प्रभाव से नहीं बच सके हैं। भारत की कूटनीतिक सोच पूरी तरह से अमेरिकी थिंक टैंक की बंधुआ है। यह कुप्रभाव रिसता हुआ हमारी विदेश नीति में भी पहुंच गया है।

सार्वजनिक जीवन में अमेरिका का बढ़ता दखल उचित भी ठहराया जा सकता था, बशर्ते क्षेत्रीय और वैश्रि्वक स्तर पर भारत के हितों की रक्षा के लिए अमेरिका के खड़े होने के पुख्ता साक्ष्य होते। दुर्भाग्य से यह सच्चाई से कोसों दूर है। कई एक घटनाओं से साफ है कि जब भारत की सुरक्षा का मुद्दा उठता है, अमेरिका का रवैया निराशाजनक होता है। अफगानिस्तान से अपनी विदाई को अधिकाधिक आसान बनाने के लिए और वहां किसी तरह के नुकसान से बचने के लिए अमेरिका भारत के पड़ोसियों की बहुत सी भारत विरोधी हरकतों की अनदेखी करता आ रहा है। ऐसा लगता है कि अमेरिका के लिए भारत एक व्यावसायिक अवसर या फिर ऐसा दोस्त है जिसका उसके साथ बराबरी का रिश्ता नहीं है और जिसे कोई सवाल करने का हक नहीं है।

भारत को अपने वश में मानने का एक कारण इस विश्वास में है कि भारत के पढ़े-लिखे और कुलीन तबके के अमेरिका से इस कदर हित जुड़े हुए हैं कि भारत एक हद से आगे जाकर कभी अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा की कोशिश नहीं करेगा। मुझे डर है कि अमेरिका का आकलन सही है। अमेरिका ने हमारे नीति-नियंताओं को बड़े पैमाने पर उपकृत कर रखा है। उसने वीजा में रियायत, ग्रीन कार्ड और बड़े अधिकारियों के बच्चों को छात्रवृत्तिायां आदि देकर अपने पक्ष में किया हुआ है। अमेरिका का हौसला इतना बढ़ गया है कि अब वह मानने लगा है कि वह किसी भी राजनयिक का अपमान कर सकता है या फिर किसी बड़े खेल में उनका इस्तेमाल कर सकता है।


वास्तव में अमेरिका और उसका भारतीय मूल का ईष्र्यालु अभियोजक इस काम में सफल हो जाते अगर देवयानी दलित महिला न होतीं और अगर यह मामला एक जज द्वारा 1984 दंगे के लिए सोनिया गांधी को समन भेजने के मामले के साथ-साथ न उठ खड़ा होता। आखिरकार एक सुस्त प्रतिष्ठान ने महसूस तो किया कि यह कहने का वक्त आ गया है-बस, अब बहुत हुआ।

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