प्रधानमंत्री की बीजिंग यात्रा और नो
वॉर करार के बाद से यह वातावरण बनाने की कोशिश हो रही थी कि अब चीन अपने परम्परागत
ढर्रे को छोड़कर भारत के साथ स्थायी मित्रता निभाने की मनोदशा का निर्माण कर रहा
है। पिछले महीने जब चीन के दक्षिण-पश्चिमी प्रांत सिचुआन में दस दिन तक भारत-चीन
ने आतंकवाद के खिलाफ 'हैंड इन हैंड-2013' नामक संयुक्त युध्दाभ्यास किया तो इस
विचार की पुष्टि भी हो गई। लेकिन चीन चाहे अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति की
यात्रा का विरोध कर या फिर चीनी सैनिकों के माध्यम से भारतीय क्षेत्र में घुसकर, जो हरकतें करता है वह किसी भी लिहाज से
मित्रता का परिचय तो नहीं देती। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या भारत सरकार चीन की
इन हरकतों को मैत्री के प्रतीकों के रूप में ही देखती है?
चीन का भारत के साथ विचित्र सा रिश्ता
है, जो मित्रता का नकाब पहनकर शत्रुतापूर्ण
रवैया अपनाता है। हालांकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बीजिंग यात्रा के समय यह
संदेश दिया गया था कि भारत को चाहिए कि इतिहास को भुलाकर वर्तमान परिदृश्य और उसकी
जरूरतों के अनुसार सम्बंधों का निर्माण करे। लेकिन मित्रता का तात्पर्य यह तो नहीं
होता कि भारत चीन के लिए स्वस्थ व्यापारिक वातावरण तैयार करे ताकि चीनी
अर्थव्यवस्था गति पकड़े रहे (उल्लेखनीय है द्विपक्षीय व्यापार में चीन का पलड़ा भारत
के मुकाबले बहुत भारी रहता है)। या फिर इसका तात्पर्य यह भी होना चाहिए कि चीन
भारत की भावनाओं को समझे और उसके सामरिक हितों को नुकसान पहुंचाने की कोशिशें बंद
कर दे? प्रधानमंत्री की बीजिंग के दौरान जब
भारत और चीन के बीच ग्रेट हाल ऑफ दी पीपुल में सीमा रक्षा सहयोग समझौता (बीडीसीए)
हुआ, तो लगा था कि अब दोनों देशों के बीच
स्थितियां सामान्य रहेंगी। लेकिन ऐसा सोचना शायद गलत था क्योंकि चीन तभी तक भारत
के साथ सामान्य व्यवहार करता है जब तक उसके या तो भारत के साथ सामान्य हित हों
अथवा भारत किसी ऐसे देश से दूरी बनाए रहे जिससे चीन के साथ तनातनी है या तनातनी की
सम्भावनाएं हैं। चीन सम्बंधों का सामान्यीकरण नहीं कर सकता, इसकी मिसाल कुछ दिन बाद ही देखने को भी
मिल गई।
बीजिंग में हुए समझौते के कुछ दिन बाद
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी जब अरुणाचल प्रदेश के दो दिवसीय यात्रा पर गए तो चीन की
सरकारी समाचार एजेंसी शिन्हुआ ने चीन के विदेश मंत्रालय के उस बयान का उल्लेख किया
जिसमें भारत को सीमा मुद्दे को जटिल बनाने से परहेज करने की बात कही गई थी। यही
नहीं, इस क्षेत्र पर चीन के दावे को दोहराया
है। रिपोर्ट में कहा गया है, 'तथाकथित अरुणाचल प्रदेश यादातर चीन के तिब्बत के तीन क्षेत्रों
मोंयुल, लोयुल और लोअर त्सायुल अभी भारत के
अवैध कब्जे में है। ये तीनों इलाके अवैध मैकमोहन रेखा व चीन और भारत की प्रचलित
सीमा रेखा के बीच में है और ये हमेशा से चीन के भू-भाग रहे हैं।' चीन ने विराम पर यहीं पर नहीं लगाया
बल्कि इससे कहीं आगे बढ़कर एक हरकत यह की कि उसकी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के
सैनिकों ने लद्दाख के चुमार स्थित भारतीय क्षेत्र में काफी अंदर तक घुस कर पांच
भारतीय नागरिकों को पकड़कर अपनी सीमा में ले गए। हालांकि आर्मी हेडक्वार्टर ने इस
मामले को यादा नहीं उछालना चाहा क्योंकि वक्त रहते इसे सुलझा लिया गया था। लेकिन
सूत्रों की मानें तो चीन की तरफ से नरमी तभी दिखाई गई जब स्थानीय भारतीय सेना के
अधिकारियों ने इस मसले पर फ्लैग मीटिंग बुलाई और पीएलए को साफ चेतावनी दी कि अगर
नागरिक लौटाए न गए तो इस मसले को ऊंचे स्तर पर उठाया जाएगा। इस मामले में रक्षा
मंत्री एंटनी का कहना है कि नई सीमा संधि यह गारंटी नहीं देती कि एलएसी इलाके में
भविष्य में विवाद की कोई घटना नहीं होगी। चुमार इलाका लेह से 300 किलोमीटर दूर है।
इस इलाके में अक्सर दोनों देशों के जवानों के बीच विवाद होते रहे हैं। इस बयान से
एक बात स्पष्ट होती है कि चीन अपनी गलतियों पर परदा डालने में भले ही पीछे रहे, लेकिन भारत उसकी गलतियों पर परदा डालने
का काम उससे कहीं बेहतर तरीके से सम्पन्न करता है।
भारतीय नेतृत्व प्राय: यह बात करता है
कि हमें इतिहास को भूलकर आगे बढ़ना चाहिए। लेकिन इतिहास वास्तव में प्रगति में बाधक
होता है? या फिर यह माना जाए इतिहास उन
विसंगतियों से सावधान करने का काम करता है जो जिनकी बड़ी कीमत हम अतीत में चुका आए
हैं? यह विचित्र स्थिति है कि आज हमें
इतिहास के जिन संस्मरणों को भूल जाना चाहिए, उनके नाम पर हमारे देश में लोग, समाज, बुध्दिजीवी
और राजनीतिज्ञ संघर्षरत हैं, लेकिन जिन्हें याद रखना चाहिए उन्हें भूल जाना हमारी फितरत सी बनती
जा रही है। दूसरा विकल्प चीन के साथ सम्बंधों को व्यक्त करता है। यही कारण है कि
बीजिंग में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनके समकक्ष चीनी प्रधानमंत्री ली
केकियांग की मौजूदगी में जो समझौते हुए थे, वे कितने रणनीतिक थे और उनसे भारत को कौन से लाभ होने वाले हैं, इस पर विमर्श नहीं हुआ। दूसरी बात यह
है कि चीन ने अब तक जिन विषयों पर भारत से कोई वादा किया है, उस पर उसने कितनी प्रतिबध्दता दिखायी
है? चीन भारत के पड़ोसियों के साथ गठबंधन कर
भारत को लगातार कमजोर करने की कोशिश कर रहा है, इसे बंद करने की उसने कोई गारण्टी भी नहीं दी है। वैसे इसमें पूरा
दोष चीन को ही नहीं दिया जा सकता है, भारत का राजनीतिक नेतृत्व भी यही चाहता है। यदि ऐसा न होता तो 14
नवम्बर, 1962 को भारतीय संसद ने चीन पर जो
सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया था जिसमें यह संकल्प लिया गया था भारत-चीन
युध्द के दौरान चीन द्वारा हड़पे गए भारतीय जमीन की एक-एक इंच वापस लिए जाने का
संकल्प था, उस पर कोई नतीजा तो निकला होता। लेकिन
क्या हुआ? जमीन लेना तो दूर जमीन को वापस लेने
सम्बंधी बात को भी दृढ़तापूर्वक नहीं उठाया गया।
अब तक भारत अब एक राष्ट्र से यादा
बाजार बन चुका है और राजनेता व्यापारी इसलिए उन्हें यह चिंता अधिक रहती है कि
सस्ते आयातों से महंगाई दूर की जा सकती है इसलिए यदि उसके साथ भुगतान संतुलन की
समस्या भी बढ़ती है तो कोई बात नहीं। वह घुसपैठ करता है, यह भी स्वीकार्य है। चीन की रेड आर्मी
भारत की सीमाओं में घुस आती है, कुछ समय तक रुकती है और भूमि के कुछ हिस्से पर कब्जा कर वापस चली
जाती है, इसके बाद भारतीय नेतृत्व अपनी अवाम को
यह बताने में सम्पूर्ण ऊर्जा व्यय करता है कि 'वास्तविक नियंत्रण रेखा' अब तक अस्पष्ट है इसलिए चीनी सेना अनजाने में प्रवेश कर जाती है। चीन
स्वदेश निर्मित 1100 मेगावॉट न्यूक्लियर रिएक्टर्स की शृंखला 'एसीपी 1000' को पाकिस्तान को देने जा रहा है। सभी
जानते हैं कि पाकिस्तान अपने असैन्य कार्यम को सैन्य कार्यम से अलग रखने को लेकर
प्रतिबध्द नहीं है, फिर
भी चीन उसे परमाणु रिएक्टर दे रहा है, तो इसका मतलब यह हुआ कि चीन लगातार भारत की सुरक्षा के समक्ष संकट
खड़ा कर रहा है। वह पाकिस्तान के ग्वादर, श्रीलंका के हम्बनटोटा, मालद्वीव के मारओं, म्यांमार के सित्तवे, बंगलादेश के चटगांव, थाईलैण्ड के क्रानहर, कम्बोडिया के रेएम और सिहनौक्ल्लिे बंदरगाह तथा दक्षिण चीन समुद्र
में नौसैनिक अड्डे को 'स्ट्रिंग
ऑफ पर्ल्स' में गूंथकर भारत को सामरिक-रणनीतिक तौर
पर घेरने की कोशिश कर रहा है। लेकिन हमारी चिंताएं चीन की इन हरकतों को लेकर बहुत
कम हैं।
बहरहाल चीन भारत के प्रति उन जगहों और
समयों में मित्रता का प्रदर्शन कर सकता है जहां उसके आर्थिक लाभ हों, उसकी कमोडिटी भारतीय बाजारों में अपने
पांव पसारने में कामयाब हो, या फिर भारत उसके प्रतिद्वंद्वियों से दूरी बनाए रहे। लेकिन जैसे ही
ये स्थितियां बदलती हैं चीन कोई न कोई ऐसी हरकत अवश्य करता है जो मित्रता की
परिभाषा पर खरी नहीं उतरती। इसके अतिरिक्त भी वह समय-समय पर भारत को अपने महाशक्ति
होने का एहसास दिलाने की रणनीति पर काम करता रहता है। यह तय करना भारतीय राजनय का
कार्य है कि वह इन चीनी हरकतों को किस फ्रेम में फिट करना चाहता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें