शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

खाद्य सुरक्षा पर समझौता मंजूर नहीं

विश्व व्यापार संगठन की बाली की मंत्रिस्तरीय बैठक में कोई नतीजा निकले या न निकले, पर खूब खींचतान होना तय है। बेशक, संगठन के डायरेक्टर जनरल, रोबर्तो अजेवेदो ने इस बैठक को दोहा प्रक्रिया को बचाने के लिए, ''अभी नहीं, तो कभी नहीं'' का मौका कहा है। लेकिन, इसका इंडोनेशियाई द्वीप पर हो रही वार्ताओं पर वास्तव में कोई असर पड़ने जा रहा है, ऐसा नहीं लगता है। 2001 से दोहा प्रक्रिया के अटके रहने के लिए, एक ओर विकसित देशों और दूसरी ओर भारत समेत विकासशील देशों के हितों का जो बुनियादी टकराव जिम्मेदार है, इस बैठक में और वास्तव में उसकी तैयारी के समय से ही, उसकी जोरदार गूंज सुनाई दे रही थी। अन्य मुद्दों के अलावा विकासशील देशों की कृषि सब्सिडियों का मुद्दा, विकसित और विकासशील देशों के बीच टकराव के केंद्र में है। विकासशील देशों के खाद्य सुरक्षा प्रावधानों के संदर्भ में, उनकी कृषि सब्सिडियों के मुद्दे के सामाजिक तथा नैतिक पहलू गाढ़े रंग में रेखांकित होकर सामने आ गए हैं। यह कोई संयोग नहीं है कि हमारे देश में कुछ ही महीने पहले बनाए गए खाद्य सुरक्षा कानून के कृषि सब्सिडी संबंधी निहितार्थों ने, इस बहस को और तीखा कर दिया है। अचरज नहीं कि बाली बैठक से ऐन पहले, भारतीय प्रतिनिधिमंडल के नेता, वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने लड़ाकू स्वर अपनाते हुए कहा कि, 'हम अब और इसकी इजाजत नहीं दे सकते हैं कि अमीरों की व्यापारिक महत्वाकांक्षाओं की वेदी पर, हमारे किसानों के हितों के साथ समझौता किया जाए।'

विकासशील देशों के ग्रुप, जी-33 (हालांकि अब उसके सदस्यों की संख्या 43 हो चुकी है) के नेता की हैसियत से भारत, विश्व व्यापार संगठन के तहत कृषि समझौते में ऐसे संशोधनों के लिए जोर लगाता रहा है, जिनसे विकासशील देशों की कृषि सब्सिडी को, इस व्यापार समझौते की तलवार से बचाया जा सके। खुद भारत के उदाहरण से स्पष्ट है कि विकासशील देशों के लिए कृषि सब्सिडियों का मुद्दा दो कारणों से जीवन-मरण का प्रश्न है। पहला तो यही कि इसका संबंध आबादी के बहुत विशाल बहुमत की आजीविका से है। दूसरे, इसका संबंध खाद्य सुरक्षा के लिए प्रावधानों से यानी करोड़ों गरीबों को भूख और कुपोषण की मार से बचाने से है।

इससे स्वतंत्र किंतु समान रूप से महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि विश्व व्यापार संगठन की व्यवस्था के तहत, विकासशील देशों से कृषि सब्सिडियों कटौती की यह मांग, इस अर्थ में सरासर अन्यायपूर्ण है कि विकसित देशों से अपनी कृषि सब्सिडियों में ऐसी कटौती की कोई मांग नहीं की जा रही है। यह तब है जबकि अमरीका जैसे विकसित देशों में और यूरोपीय संघ में दी जा रही कृषि सब्सिडी, भारत जैसे विकासशील देशों के मुकाबले मोटे तौर पर चार-पांच गुना ज्यादा बैठेगी। मोटे अनुमान के अनुसार, अमेरिका अपने फार्मरों को, अपने कृषि के सकल घरेलू उत्पाद के करीब आधे के बराबर सब्सिडियों के रूप में देता है, जबकि भारत में सारी कृषि सब्सिडियां भी मिलाकर अब तक, कृषि के सकल घरेलू उत्पाद के दस फीसद से भी कम बनी रही थीं और इस तरह, विश्व व्यापार संगठन की तलवार के नीचे आने से बची रही थीं। लेकिन अब, खाद्य सुरक्षा कानून बनने के बाद, इसके दस फीसद की सीमा से जरा सा ऊपर निकलने का अनुमान है और इस तरह भारतीय खाद्य सुरक्षा कानून विकसित देशों की नजरों में खटक रहा है।

विश्व व्यापार संगठन के तहत कृषि समझौते में निहित इस खुल्लमखुल्ला नाबराबरी के पीछे, परिभाषाओं का एक बड़ा खेल है, जो विकसित देश इस समझौते में थोपने कामयाब रहे हैं। यह किसी से छिपा हुआ नहीं है कि विकसित देश अपने किसानों को भारी सब्सिडियां देकर उन्हें अपने कृषि उत्पाद औने-पौने दामों पर विश्व बाजार में निकालने में समर्थ बनाते हैं। इसीलिए, एक समूह के रूप में विकासशील देश व्यापार वार्ताओं में शुरू से विकासशील देशों की ऊंची कृषि सब्सिडियों का मुद्दा उठाते रहे हैं। लेकिन, विकसित देश अपनी कृषि सब्सिडियों को बहुत ऊंचे स्तर पर बनाए रखते हुए भी, विकासशील देशों के लिए सब्सिडी पर, कृषि के सकल घरेलू उत्पाद के 10 फीसद की अधिकतम सीमा थोपने में कामयाब रहे हैं। यह किया गया है, कृषि सब्सिडियों पर एक पूरी तरह से मनमाना और कृत्रिम विभाजन थोपने की चाल के जरिए। कृषि सब्सिडियों को ''व्यापार विकृतिकारी'' और ''गैर-व्यापार विकृतिकारी'' की दो श्रेणियों में बांट दिया गया है।  यह विभाजन इस तरह किया गया है कि चूंकि विकसित देशों में सीधे मुख्यत: अपने काश्तकारों को सब्सिडी दिए जाने का रास्ता अपनाया जाता है, इन सब्सिडियों को ''गैर-बाजार विकृतिकारी'' की श्रेणी में डाल दिया गया है, जिनसे कथित रूप से मुक्त व्यापार के लिए काम करने वाले निकाय के नाते, विश्व व्यापार संगठन को कोई दिक्कत नहीं है। दूसरी ओर, चूंकि भारत समेत विकासशील देशों में, जहां आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा खेती पर निर्भर है, थोड़ी-बहुत जो भी सब्सिडियां दी जाती हैं, लागत सब्सिडी या कृषि उत्पादों के लिए समर्थन मूल्य के रूप में ही दी जाती हैं, ठीक इन्हीं सब्सिडियों को ''व्यापार विकृतिकारी'' की श्रेणी में डाला गया है। ठीक इन्हीं सब्सिडियों को अनुशासित करने को विश्व व्यापार संगठन की निष्ठा का प्रश्न बना दिया गया है! इसके पीछे यह झूठी दलील है कि इन्हीं सब्सिडियों का विश्व बाजार में कृषि उत्पादों के दाम पर असर पड़ता है।

ठीक इसी पृष्ठभूमि में भारत के नेतृत्व में जी-33 द्वारा ठोस तौर पर इसके लिए जोर लगाया जाता रहा है कि काश्तकारों की रोजी-रोटी और जनगण के लिए खाद्य सुरक्षा से जुड़ी सब्सिडियों के लिए, 10 फीसद की उक्त अधिकतम सीमा को ढीला किया जाए। कहने की जरूरत नहीं है कि अमेरिका के नेतृत्व में विकसित देशों को यह मंजूर नहीं है। इस मुद्दे पर गतिरोध बने रहने के चलते, बाली बैठक की तैयारी के लिए एक सप्ताह पहले जिनीवा में हुई बैठक बिना किसी समझौते के ही समाप्त हो गयी थी। इस मुद्दे पर गतिरोध को तोड़ने के लिए, विकसित देशों के अनुमोदन से, समझौते के रास्ते के रूप में एक ''शांति प्रावधान'' की पेशकश की गयी है। इस पेशकश का सार यह है कि फिलहाल विकासशील देशों की, जिनमें भारत भी शामिल है, कृषि सब्सिडियां अगर 10 की सीमा लांघती भी हैं, तो विश्व व्यापार संगठन के मंच पर उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी। लेकिन, मूल व्यवस्था ज्यों की त्यों बनी रहेगी और तयशुदा सीमा के उल्लंघन की यह छूट सिर्फ चार साल के लिए होगी। जाहिर है कि चार साल के बाद, इन देशों को अपनी कृषि सब्सिडियों को उक्त सीमा में लाना होगा।


भारत के नेतृत्व में विकासशील देश, अब तक इस 'शांति प्रावधान' का विरोध करते आए हैं और सब्सिडी संबंधी व्यवस्था में ही बदलाव के लिए दबाव डालते आए हैं। हां! अगर शांति प्रावधान को बदलकर, उसे विश्व व्यापार संगठन के स्तर पर किसी स्थायी समाधान के निकलने तक के लिए वैध मान लिया जाए, तब जरूर विकासशील देश इसे मंजूर कर सकते हैं। लेकिन, यह विकसित देशों को अब तक मंजूर नहीं हुआ है। बहरहाल, अमरीका के नेतृत्व में पश्चिम ने, विकासशील देशों से कथित शांति प्रावधान पर 'हां' कराने के लिए दबाव बढ़ा दिया है। इसी क्रम में अमेरिका के व्यापार प्रतिनिधि ने, भारत के वाणिज्य मंत्री, आनंद शर्मा के साथ खास मुलाकात भी की है। दूसरी ओर, विकसित देश सबसे कम विकसित देशों के हितैषी का बाना धरकर, इस मुद्दे पर विकासशील देशों की एकता तोड़ने की भी कोशिश कर रह रहे हैं। बहरहाल, भारत को इस दबाव के सामने हर्गिज नहीं झुकना चाहिए। अपनी जनता के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने से किसी भी तरह की विश्व व्यापार व्यवस्था भारत को कैसे रोक सकती है? यूपीए-द्वितीय की सरकार अगर इस मामले में भी अमरीका के दबाव में घुटने टेकती है, तो यह जनता के लिए खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने के हमारे अधिकार पर ही नहीं, संसद तथा देश की संप्रभुता पर भी समझौता करना होगा। इसे हर्गिज मंजूर नहीं किया जा सकता है।



देशबन्धु

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