मुजफ्फरनगर दंगों को तीन माह बीत चुके
हैं और अब भी वहां दुर्दशा पसरी हुई है। सरकार और प्रशासन की अनदेखी, संवेदनहीनता, लापरवाही का नतीजा है कि अब भी बहुत से
लोग अस्थायी तौर पर बनाए गए शिविरों में रह रहे हैं और वे अपने गांव, घर लौटना नहींचाहते। इन दंगों ने उस
समाज का क्रूर चेहरा एक बार फिर उजागर कर दिया, जिसे हम सभ्य समझने की खुशफहमी पाले हुए हैं। राजनीतिक दलों ने भी हर
बार की तरह इस बार भी सांप्रदायिक हिंसा की नाजुक घड़ी में संयम, समझदारी दिखाने की जगह समाज का
ध्रुवीकरण करने का उतावलापन दिखाया। यही कारण है कि जनता किसी पर भी विश्वास करने
की स्थिति में नहींहैं। कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी दंगा पीड़ितों के लिए
बनाए गए शिविरों में जाकर उनका हालचाल लेते हैं और उन्हें अपने घर वापस लौटने की
सलाह भी देते हैं,
किंतु
शरणार्थी खुद को शिविरों में अधिक सुरक्षित महसूस कर रहे हैं। उन्हें डर है कि अगर
वे अपने गांव गए तो वापस उन्हें सांप्रदायिक हिंसा का शिकार होना पड़ेगा। उनका यह
डर दरअसल प्रदेश सरकार की नाकामी का परिचायक है। गौरतलब है कि दंगों के बाद मृतकों
के परिजनों व पीड़ितों को राज्य सरकार, प्रधानमंत्री सहायता कोष से सहायता प्रदान की गई है। आंकड़ो के
मुताबिक कुल 1054 व्यक्तियों को 6.84 करोड़ रुपए की सहायता राशि दी गई है। जो लोग
अपने घर नहींलौटना चाहते, उन्हें मुआवजा राशि देकर दूसरी जगह बसाने की व्यवस्था है। फिर भी
हालात बदतर बने हुए हैं। राहत शिविरों में दो माह तक लोग बदहाली में, आवश्यक वस्तुओं के अभाव में जीते रहे।
इन शिविरों में 9 सौ से अधिक बच्चे हैं, जिनमें से लगभग 30 बच्चों की मौत ठंड के कारण हो गई। इसके बावजूद
अखिलेश सरकार हरकत में नहींआयी और जब सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेते हुए
प्रदेश सरकार को जरूरी इंतजाम करने के आदेश दिए तो अस्थायी अस्पताल बनाने से लेकर
दूध, दवा व अन्य आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति
करवाई गई। उत्तरप्रदेश में कितनी भीषण ठंड पड़ती है, यह सभी जानते हैं। हर वर्ष शीतलहर के कारण कितने ही लोगों की मौत हो
जाती है। दंगों के कारण अपनी जमीन से बेदखल लोग शिविरों में किन परिस्थितियों में
रह रहे हैं, इससे सरकार अनजान नहींथी। बावजूद इसके
ठंड के पहले एहतियात नहींबरती गई और मासूम बच्चे ठंड में ठिठुर-ठिठुर कर मर गए।
दंगों के कारण मृत हुए लोगों की सूची में उनका नाम भी जोड़ा जाना चाहिए क्योंकि वे
संवेदनहीनता की परोक्ष हिंसा का शिकार हुए हैं। आश्चर्य की बात यह है कि देश में
इस बात को लेकर कोई हंगामा नहींमचा कि क्यों मासूमों को सांप्रदायिक ताकतों और
सरकार की अनदेखी का खामियाजा अपनी जान देकर चुकाना पड़ा।
राजनीतिक दलों की निगाहें आगामी आम
चुनाव पर टिकी हुई हैं। गठबंधन के संभावित स्वरूप पर अनुसंधान हो रहा है।
प्रधानमंत्री पद के दावेदार अपनी-अपनी बिसात बिछाने में लगे हैं। विधानसभा चुनावों
में हार-जीत का विश्लेषण हो रहा है। दिल्ली में सरकार बनाने पर जनमत हो रहा है।
अमरीका के हाथों अपमान न हो, इस पर तनातनी हो रही है। बहुत कुछ हो रहा है देश में, लेकिन
दंगों के शिकार लोग फिर से सम्मान के साथ जीवन जिएं, उनके दिलों से दोबारा पीड़ित होने का
खौफ खत्म हो, वे अपने रोजगार में फिर से लगें और
किसी की दया पर गुजारा न करें, इसके लिए ठोस प्रयास नहींहो रहे। राहुल गांधी जब पीड़ितों से मिलने
शिविर मेंपहुंचे,
तो
एक पीड़ित ने कहा कि पहली बार कोई वरिष्ठ नेता उनसे मिलने आया है। इस बात से वहां
की वस्तुस्थिति और शरणार्थियों की मनोदशा का अनुमान लगाया जा सकता है। लेकिन सरकार
और राजनैतिक दलों को ऐसा अनुमान लगाने में कोई दिलचस्पी नहीं, वे मुआवजा बांटकर या संदिग्ध नेताओं को
सम्मानति कर वोटबैंक का अनुमान लगाने में अधिक व्यस्त हैं।
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