तीसरे ब्रिक्स अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा सम्मेलन गत 21 एवं 22 नवम्बर को आईसीसी 2013 का आयोजन नई दिल्ली में किया गया था। इसमें ब्राजील, रूस, भारत, चीन व दक्षिण अफ्रीका के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। प्रतिस्पर्धा कानून व नीति के क्षेत्र में ब्रिक्स सम्मेलन को बहुत प्रतिष्ठा प्राप्त है। पहला सम्मेलन रूस में कझान तथा दूसरा सम्मेलन चीन में बीजिंग में आयोजित किया गया था। नई दिल्ली में सम्पन्न तीसरे सम्मेलन के आयोजन का मुख्य उद्देश्य ब्रिक्स देशों में प्रतिस्पर्धा प्रवर्तन के मुद्दे एवं चुनौतियों पर चर्चा करके आपसी सहयोग के एजेंडे को आगे बढ़ाना था। इसीलिए दो दिवसीय सम्मेलन का विषय प्रतिस्पर्धा प्रवर्तन के मुद्दे एवं चुनौतियां रखी गई थीं। सम्मेलन के विभिन्न सत्रों में प्रतिस्पर्धा कानून: नवाचार एवं आर्थिक विकास, प्रतिस्पर्धा प्रवर्तन के लिए प्रभावशाली अभिकरण बनाने, राजकीय उपम एवं प्रतिस्पर्धा प्रवर्तन तथा ब्रिक्स देशों की प्रतिस्पर्धा प्रवर्तन एजेंसियों के बीच नजदीकी समन्वय पर सार्थक चर्चा की गई।
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह द्वारा सम्मेलन का उद्धाटन करते हुए अपने उद्बोधन में कहा कि ब्रिक्स देश वृध्दि, विकास तथा गरीबी की महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना कर रही हैं। बाजारों का अधिकतम लाभ उठाने के लिए ठोस प्रतिस्पर्धा नीति जरूरी है। क्योंकि प्रतिस्पर्धा विरोधी व्यवहार से बाजार से अच्छे परिणाम प्राप्त नहीं होते और इसका सबसे बुरा असर गरीब पर पड़ता है। उन्होंने सरकारी उद्यमों को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए उनकी स्वायतता पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं को प्रतिस्पर्धा कानून लागू करने समक्ष अनेक चुनौतियां हैं।
सम्मेलन में एक सत्र में सरकारी स्वामित्व के उपमों एवं प्रतिस्पर्धा पर भी चर्चा की गई। मुख्य आलेख न्यूयार्क विश्वविद्यालय के कानून विभाग के प्राध्यापक प्रो. इलीनर फॉक्स द्वारा तैयार किया गया था। प्रो. इलीनर ने अपने आलेख में उनके द्वारा अंकटाड के लिए किए गए एक अध्ययन के नतीजों को भी शामिल किया गया है। उक्त सत्र में ब्रिक्स देशों के प्रतिनिधियों ने भी अपने आलेख प्रस्तुत किए तथा चर्चा में हिस्सा लिया। प्रो. इलीनर का आलेख उनकी ख्याति के अनुरूप विद्वतापूर्ण था। किन्तु सवाल उठता है कि क्या रूस, चीन या भारत में एक भी संस्थान या विद्वान नहीं है जो मुख्य आलेख तैयार कर पाता। इसे ब्रिक्स का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए। प्रो. इलीनर के अनुसार सरकारी उपक्रमों को मिली हुई अनेक सुविधाओं एवं विशेषाधिकारों के कारण बाजार में सही मायनों में प्रतिस्पर्धा नहीं हो पाती है। सरकारों को सार्वजनिक उपक्रमों को सुविधाओं की बजाय उनकी कार्यकुशलता बढ़ाकर बाजार में प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देना चाहिए।
ब्रिक्स की स्थापना के बाद आज इसके सदस्य देशों में बाजार में सरकारी एवं निजी उद्यमों को बराबरी पर रखकर प्रतिस्पर्धा की चर्चा हो रही है, अन्यथा सत्तर के दशक तक रूस एवं चीन में बाजार प्रतिस्पर्धा, कार्यकुशलता व मुनाफा को पूंजीवाद का अंग माना जाता था तथा पूंजीवाद को गाली के समान माना जाता था। सोवियत संघ के विघटन के पूर्व तक रूस में सरकारी उपक्रमों का एकाधिकार था। सेज की स्थापना के पहले तक जनवादी चीन में भी सभी उपक्रम सरकारी उपम थे। भारत की 1948 की औद्योगिक नीति के तहत आधारभूत उद्योग केवल सरकारी क्षेत्र में ही स्थापित हो सकते थे तथा एमआरटीपी एक्ट के तहत एमआरटीपी आयोग निजी उपक्रमों की एकाधिकारी गतिविधियों पर अंकुश लगाता था किन्तु सरकारी उपक्रमों का एकाधिकार उसके दायरे के बाहर थे। भारत में प्रतिस्पर्धा आयोग की स्थापना के बाद बाजार में प्रतिस्पर्धा का नजरिया अपनाया गया है, किन्तु सार्वजनिक उपक्रमों के विशेषाधिकार कायम बदस्तूर कायम है। ब्रिक्स के प्रतिस्पर्धा सम्मेलनों से प्रतिस्पर्धा की दिशा में एक सकारात्मक पहल हुई है।
भारत में जहां एक ओर सार्वजनिक उपक्रमों को सरकारी संरक्षण प्राप्त होता रहा है, तो दूसरी ओर इन उपक्रमों में राजनैतिक व नौकरशाही हस्तक्षेप आम बात रही है। प्रबंधन में हस्तक्षेप से कार्यकुशलता पर विपरीत प्रभाव पड़ता था। अधिकांश सरकारी उपक्रमों की वस्तु या सेवा की उत्पादन लागत अधिक आती थी या वे घाटे पर चलते थे। भारत में सार्वजनिक उपक्रमों को स्वायतत्ता की मांग बहुत पुरानी है किन्तु उसके साथ सब के प्रति जवाबदेही जोड़ देने से मुकत स्वायतत्ता की बजाय वह नियंत्रित स्वायतत्ता बन जाती है। लेकिन अब धीरे-धीरे सरकारी नजरिये में बदलाव आ रहा है। ब्रिक्स प्रतिस्पर्धा सम्मेलन में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह ने अपने उद्धाटन भाषण में सार्वजनिक उद्यमों को स्वायतत्ता देने, नौकरशाही के नियंत्रण से मुक्त करने तथा निजी क्षेत्र से खुली प्रतिस्पर्धा पर जोर दिया।
सार्वजनिक उपक्रमों को अधिक प्रतिस्पर्धी बनाने की जरूरत को अब सभी स्वीकार करने लगे हैं। किन्तु उन्हें अधिक प्रतिस्पर्धी उनकी तकनीकी एवं वित्तीय कार्यकुशलता बढ़ाकर की जानी चाहिए न कि सरकारी संरक्षण एवं सुविधाओं के बल पर प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए। इसीलिए कहा जाता है कि लेवल प्लेयिंग स्तर पर होनी चाहिए। सार्वजनिक उपक्रमों को संरक्षण एवं वित्तीय सहायता आम जनता के उपयोग में आनेवाली वस्तुओं एवं सेवाओं के लिए दी जानी चाहिए न कि साधन सम्पन्न व्यक्तियों को सेवा देने के लिए करदाताओं के पैसे से मदद करनी चाहिए। सवाल उठता है कि जो सरकारी उपम घाटे पर चल रहे हैं वे प्रतिस्पर्धा में कैसे ठहर पाएंगे। उसका तो एक ही उत्तर है लम्बी बीमारी से ग्रसित उपक्रमों से उन्हें बन्द कर या निजी हाथों में सौंपकर सरकार को छुटकारा पा लेना चाहिए। उदाहरण के लिए सरकारी उपक्रम स्कूटर इंडिया लिमिटेड का लैम्ब्रेटा, लैम्बी, लैम्ब्रों व विजय स्कूटर पिछले बीस साल से बाजार व सड़कों से गायब है किन्तु स्कूटर इंडिया लिमिटेड को 600 करोड़ रुपए का पुनर्जीवन पैकेज आक्सीजन के रूप में देकर जबरिया जीवित रखा जा रहा है तथा इसके बावजूद इसका संचयी घाटा हर साल बढ़ते हुए 100 करोड़ रुपए पहुंचने वाला है। ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं।
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह द्वारा सम्मेलन का उद्धाटन करते हुए अपने उद्बोधन में कहा कि ब्रिक्स देश वृध्दि, विकास तथा गरीबी की महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना कर रही हैं। बाजारों का अधिकतम लाभ उठाने के लिए ठोस प्रतिस्पर्धा नीति जरूरी है। क्योंकि प्रतिस्पर्धा विरोधी व्यवहार से बाजार से अच्छे परिणाम प्राप्त नहीं होते और इसका सबसे बुरा असर गरीब पर पड़ता है। उन्होंने सरकारी उद्यमों को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए उनकी स्वायतता पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं को प्रतिस्पर्धा कानून लागू करने समक्ष अनेक चुनौतियां हैं।
सम्मेलन में एक सत्र में सरकारी स्वामित्व के उपमों एवं प्रतिस्पर्धा पर भी चर्चा की गई। मुख्य आलेख न्यूयार्क विश्वविद्यालय के कानून विभाग के प्राध्यापक प्रो. इलीनर फॉक्स द्वारा तैयार किया गया था। प्रो. इलीनर ने अपने आलेख में उनके द्वारा अंकटाड के लिए किए गए एक अध्ययन के नतीजों को भी शामिल किया गया है। उक्त सत्र में ब्रिक्स देशों के प्रतिनिधियों ने भी अपने आलेख प्रस्तुत किए तथा चर्चा में हिस्सा लिया। प्रो. इलीनर का आलेख उनकी ख्याति के अनुरूप विद्वतापूर्ण था। किन्तु सवाल उठता है कि क्या रूस, चीन या भारत में एक भी संस्थान या विद्वान नहीं है जो मुख्य आलेख तैयार कर पाता। इसे ब्रिक्स का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए। प्रो. इलीनर के अनुसार सरकारी उपक्रमों को मिली हुई अनेक सुविधाओं एवं विशेषाधिकारों के कारण बाजार में सही मायनों में प्रतिस्पर्धा नहीं हो पाती है। सरकारों को सार्वजनिक उपक्रमों को सुविधाओं की बजाय उनकी कार्यकुशलता बढ़ाकर बाजार में प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देना चाहिए।
ब्रिक्स की स्थापना के बाद आज इसके सदस्य देशों में बाजार में सरकारी एवं निजी उद्यमों को बराबरी पर रखकर प्रतिस्पर्धा की चर्चा हो रही है, अन्यथा सत्तर के दशक तक रूस एवं चीन में बाजार प्रतिस्पर्धा, कार्यकुशलता व मुनाफा को पूंजीवाद का अंग माना जाता था तथा पूंजीवाद को गाली के समान माना जाता था। सोवियत संघ के विघटन के पूर्व तक रूस में सरकारी उपक्रमों का एकाधिकार था। सेज की स्थापना के पहले तक जनवादी चीन में भी सभी उपक्रम सरकारी उपम थे। भारत की 1948 की औद्योगिक नीति के तहत आधारभूत उद्योग केवल सरकारी क्षेत्र में ही स्थापित हो सकते थे तथा एमआरटीपी एक्ट के तहत एमआरटीपी आयोग निजी उपक्रमों की एकाधिकारी गतिविधियों पर अंकुश लगाता था किन्तु सरकारी उपक्रमों का एकाधिकार उसके दायरे के बाहर थे। भारत में प्रतिस्पर्धा आयोग की स्थापना के बाद बाजार में प्रतिस्पर्धा का नजरिया अपनाया गया है, किन्तु सार्वजनिक उपक्रमों के विशेषाधिकार कायम बदस्तूर कायम है। ब्रिक्स के प्रतिस्पर्धा सम्मेलनों से प्रतिस्पर्धा की दिशा में एक सकारात्मक पहल हुई है।
भारत में जहां एक ओर सार्वजनिक उपक्रमों को सरकारी संरक्षण प्राप्त होता रहा है, तो दूसरी ओर इन उपक्रमों में राजनैतिक व नौकरशाही हस्तक्षेप आम बात रही है। प्रबंधन में हस्तक्षेप से कार्यकुशलता पर विपरीत प्रभाव पड़ता था। अधिकांश सरकारी उपक्रमों की वस्तु या सेवा की उत्पादन लागत अधिक आती थी या वे घाटे पर चलते थे। भारत में सार्वजनिक उपक्रमों को स्वायतत्ता की मांग बहुत पुरानी है किन्तु उसके साथ सब के प्रति जवाबदेही जोड़ देने से मुकत स्वायतत्ता की बजाय वह नियंत्रित स्वायतत्ता बन जाती है। लेकिन अब धीरे-धीरे सरकारी नजरिये में बदलाव आ रहा है। ब्रिक्स प्रतिस्पर्धा सम्मेलन में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह ने अपने उद्धाटन भाषण में सार्वजनिक उद्यमों को स्वायतत्ता देने, नौकरशाही के नियंत्रण से मुक्त करने तथा निजी क्षेत्र से खुली प्रतिस्पर्धा पर जोर दिया।
सार्वजनिक उपक्रमों को अधिक प्रतिस्पर्धी बनाने की जरूरत को अब सभी स्वीकार करने लगे हैं। किन्तु उन्हें अधिक प्रतिस्पर्धी उनकी तकनीकी एवं वित्तीय कार्यकुशलता बढ़ाकर की जानी चाहिए न कि सरकारी संरक्षण एवं सुविधाओं के बल पर प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए। इसीलिए कहा जाता है कि लेवल प्लेयिंग स्तर पर होनी चाहिए। सार्वजनिक उपक्रमों को संरक्षण एवं वित्तीय सहायता आम जनता के उपयोग में आनेवाली वस्तुओं एवं सेवाओं के लिए दी जानी चाहिए न कि साधन सम्पन्न व्यक्तियों को सेवा देने के लिए करदाताओं के पैसे से मदद करनी चाहिए। सवाल उठता है कि जो सरकारी उपम घाटे पर चल रहे हैं वे प्रतिस्पर्धा में कैसे ठहर पाएंगे। उसका तो एक ही उत्तर है लम्बी बीमारी से ग्रसित उपक्रमों से उन्हें बन्द कर या निजी हाथों में सौंपकर सरकार को छुटकारा पा लेना चाहिए। उदाहरण के लिए सरकारी उपक्रम स्कूटर इंडिया लिमिटेड का लैम्ब्रेटा, लैम्बी, लैम्ब्रों व विजय स्कूटर पिछले बीस साल से बाजार व सड़कों से गायब है किन्तु स्कूटर इंडिया लिमिटेड को 600 करोड़ रुपए का पुनर्जीवन पैकेज आक्सीजन के रूप में देकर जबरिया जीवित रखा जा रहा है तथा इसके बावजूद इसका संचयी घाटा हर साल बढ़ते हुए 100 करोड़ रुपए पहुंचने वाला है। ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें