जास्मिन
क्रांति से लेकर अब तक अरब इस्लामी दुनिया में एक ऐसी हलचल पैदा की जिसने कई
तानाशाहों को अर्श से फर्श पर पहुंचाया और उन देशों को लोकतांत्रिक व्यवस्था की ओर
उन्मुख बनाया। हालांकि उसके बाद भी वहां सब कुछ शांतिपूर्ण चल नहीं चल रहा है
जिसका सीधा सा मतलब था कि जास्मिन जिन उद्देश्यों को लेकर सम्पन्न हुई थी या जिन
उद्देश्यों को लेकर तानाशाहों को हटाया
गया था, अब तक वे प्राप्त नहीं हो सके हैं।
इसका
परिणाम यह हुआ कि क्रांति किसी न किसी रूप में पुन: व्यक्त होने का प्रयास करती
है। सवाल यह उठता है कि आखिर क्यों? अरब इस्लामी विश्व में इन क्रांति का
मूल मकसद रहा है तानाशाहों का उन्मूलन और लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना। लेकिन
सच तो यह है कि जास्मिन या उसकी अनुषंगी क्रांतियों ने तानाशाहों को हटाने तक
योजना तो बनाई थी, लेकिन व्यवस्था के नवनिर्माण और उसके संचालन का
विजन उनके पास नहीं था, इसलिए वे पूरी तरह से सफल नहीं हो सकीं?
अरब
दुनिया के कुछ देशों से तानाशाहों की विदाई इस्लामी दुनिया की अवाम के लिए एक बड़ी
जीत थी। लेकिन इसके बाद जनता को जो हासिल हुआ उसे देखते हुए एक सवाल उठता है कि
क्या क्रांति वास्तव में सफल रही? क्या क्रांति ने जो मूल्य अपने संजो
रखे थे, वे उन देशों में स्थापित हुए? ऐसा नहीं लगता
कि तानाशाहों की सत्ता से बेदखली के बाद जो राजनीतिक शून्य उभरा था उसे नई
अधिनायकवादी शक्तियों ने भरने में कामयाबी हासिल कर ली। ऐसे में यह बहस तो छिड़नी
स्वाभाविक थी कि क्या इस्लाम अधिनायकवाद को बढ़ावा देता है? क्या मध्य-पूर्व
में राजनीतिक पिछड़ेपन के लिए इस्लाम ही जिम्मेदार है? इस्लाम और
लोकतंत्र के बीच किस तरह के सम्बंध हैं? पश्चिमी दुनिया से शुरू हुई यह बहस
धीरे-धीरे अब अपना आकार काफी बढ़ा चुकी है जिसमें इस्लामवादियों का नजरिया
गैर-इस्लामवादियों से पूरी तरह से भिन्न है। कुछ समय पहले येल ग्लोबल मैगजीन में
प्रकाशित एक रिपोर्ट ने इस विषय से सम्बंधित विभिन्न पहलुओं को विभिन्न स्कॉलरों
की विशेष टिप्पणियों के साथ सहित प्रस्तुत किया है। रिपोर्ट में एक समाज विज्ञानी अर्न्स्ट गैलनर
के माध्यम से बताया है कि यूरोप के तीन सबसे बड़े मतों में से एक इस्लाम आधुनिकता
के सबसे करीब है। रिपोर्ट इस बात पर भी फोकस करती नजर आ रही है कि नये यूरोप की
स्थापना यानी उसे आधुनिकता के करीब लाने में इस्लाम की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही
है। फिर तो इस्लाम और आधुनिकता एक-दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं।
अगर ऐसा है कि तो किसी भी कीमत पर यह बात स्वीकार नहीं की जा सकती कि इस्लामी
विश्व में आए पिछड़ेपन के लिए इस्लाम धर्म जिम्मेदार है। फिर क्या इस्लामी दुनिया
के पिछड़ेपन के लिए इस्लाम धर्म को कटघरे में खड़ा करना पश्चिमी देशों का वैचारिक
प्रोपेगेंडा मात्र है ताकि सभ्यताओं के संघर्ष को जस्टीफाई किया जा सके?
इस
संदर्भ में इतिहास के कुछ पन्ने उलटना जरूरी है ताकि यह देखा जा सके कि यूरोप सही
अर्थों में रेनेसां (पुर्नजागरण) और रिफर्मेशन के बाद ही रूपांतरित हुआ। इसकी
बुनियाद कांस्टैंटीनोपुल से भागकर यूरोपीय शहरों में गये व्यापारियों ने अपने
ज्ञान, अपने ग्रंथों और अपनी विचारधारा और वार ऑफ क्रुसेड्स के समय यूरोपीय
सैनिक द्वारा अरब से लाये गये ज्ञान पर रखी गई जिसने स्कालिस्टिकवादियों के मिथकों
को तोड़ा। फिर इस्लाम आधुनिकता विरोधी कैसे हुआ? इस रिपोर्ट में
इस बात का भी उल्लेख है कि 17वीं शताब्दी से पहले अरब दुनिया
यूरोपीय दुनिया के मुकाबले काफी बेहतर थी क्योंकि मुस्लिम व्यापारी दुनिया भर में
व्यापार करते थे जिससे अरब दुनिया आज के यूरोप की तरह सम्पन्न और आधुनिक थी। एंगस
मेडिसन ने इस स्थिति को कुछ आंकड़ों के माध्यम से प्रमाणित करने की कोशिश की है।
उनका मानना है कि अरब देशों की आर्थिक स्थिति यूरोपीय देशों से बेहतर थी और
वैश्विक जीडीपी में अरब दुनिया की हिस्सेदारी यूरोप के मुकाबले बहुत यादा थी।
रिपोर्ट में कहा गया है कि 1000 ई. में अरब दुनिया की जीडीपी विश्व
जीडीपी में 10 प्रतिशत हिस्सा रखती थी जबकि यूरोप की
हिस्सेदारी इससे एक प्रतिशत कम थी। लेकिन 17वीं शताब्दी में
यह स्थिति पूरी तरह से बदल गई और यूरोप की वैश्विक जीडीपी में यूरोप की हिस्सेदारी
22 हो गई जबकि अरब देश केवल 2 प्रतिशत पर ही सिमटकर रह गए। इसका
परिवर्तन का कारण क्या था? क्या इसकी असल वजह इस्लाम धर्म में
निहित थी या बाहरी कारण इसके लिए जिम्मेदार थे? विद्वानों के एक
वर्ग का मानना है कि धार्मिक कारणों से इस्लामी दुनिया के व्यापार में गिरावट आई
जिसका सीधा असर उनकी जीडीपी पर पड़ा। इस बहस में मोटे तौर पर दो बातें नजर आ रही
हैं। एक जो इस्लामवादियों के द्वारा इस्लाम के पक्ष में की जा रही है और दूसरी
उसके विरोध में खड़े वर्ग द्वारा।
जीडीपी
से जुड़े जिन आंकड़ों को प्रस्तुत किया गया है वे काल्पनिक या विशुध्द रूप से
अनुमानित हैं क्योंकि उस समय ऐसी कोई वैश्विक संस्था विद्यमान नहीं थी जो आज की
तरह जीडीपी के तुलनात्मक आंकड़े प्रस्तुत करती हो जिससे वस्तुस्थिति की सही जानकारी
हो सके। हां, यूरोप के आधुनिक युग में प्रवेश करने के पहले
इस्लामवादियों के अधीन बड़े साम्राय रहे थे, इसलिए
मुस्लिमअरब व्यापारियों को अपेक्षाकृत अधिक सुविधाएं हासिल थीं। ऐसी स्थिति में यह
स्वाभाविक ही था कि इस्लामी दुनिया व्यापार के क्षेत्र में आगे रहती। लेकिन जब
यूरोप के आधुनिकीकरण की शुरूआत हुई तो उसके साथ-साथ वाणियवाद और उद्योगवाद भी आया
जिसकी सम्पन्नता और विस्तार के लिए नवोदित यूरोपीय पूंजीवादी शक्तियों के नेतृत्व
में साम्रायवाद की शुरूआत हुई। इसने एशिया और अफ्रीका के देशों और लोगों को अपना
शिकार बनाया। इसी व्यवस्था ने स्थिति को उलट दिया। यानी इस्लामी दुनिया के पिछड़ने
के लिए इस्लाम नहीं, बल्कि यूरोपीय ताकतों की महत्वाकांक्षाएं
जिम्मेदार रहीं। रही बात स्वतंत्रता और लोकतंत्र की तो जैसा कि विश्व बैंक और
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट बताती है कि मुस्लिम देशों में स्वतंत्रता और लोकतंत्र
की कमी है, पूरी तरह से सही है। इसलिए इस सच को स्वीकारा
जाना चाहिए। इस सम्बंध में इस्लामी स्कॉलरों को अतीत की सभ्यता के खोल से बाहर
निकलकर स्वस्थ बहस में हिस्सा लेना चाहिए। यह सच है कि अरबों ने यूरोप को
परिवर्तित करने में बड़ा योगदान दिया, लेकिन एक सच यह भी है वे उन्हीं
मूल्यों को अपने यहां सुरक्षित नहीं रख पाए। यह सच है कि अधिनायकवाद के आगमन के
लिए इस्लाम को दोषी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि अधिनायकवाद का इतिहास इस्लाम से
यादा पुराना है। लेकिन एक सच यह भी है कि लगभग सात दशकों में अधिनायकवादियों का
दबदबा सबसे यादा इस्लामी देशों में ही रहा है। महत्वपूर्ण बात यह है कि पिछले इस
दौर में इन देशों में अधिनायकवाद के साथ-साथ बड़ी तेजी से कट्टरपंथ का उभार भी हुआ,
उसके
लिए जिम्मेदार कारण कोई भी हो सकते हैं। कट्टरपंथ ने जहां आधुनिक मूल्यों को दबाकर
रूढ़िवादी समाज को विकसित करने का काम किया वहीं अधिनायकवाद ने लोकतांत्रिक मूल्यों
को कुचलकर प्राच्य निरंकुशता को प्रश्रय दिया। ये दोनों ही आधुनिक मूल्यों एवं
व्यवस्था के लिए प्रतिघाती सिध्द हुए।
अरब
इस्लामी दुनिया में पैदा हुई क्रांति इस दोतरफा दबाव से उपजे प्रतिरोध की अगली कड़ी
थी जिसने दो से तीन दशकों से सत्ता पर काबिज तानाशाहों को सत्ता से बेदखल कर दिया। लेकिन क्रांतिकारियों
के पास भविष्य के शासन की रूपरेखा न होने के कारण वे कट्टरपंथी ताकतों की गिरफ्त
में आ गए। ऐसे में बहस को इस्लामी धर्मशास्त्रों के बुनियादी सिध्दांतों पर
केन्द्रित ना करके इस समय मौजूद इस्लामी कट्टरपंथी ताकतों और उनके धार्मिक-राजनीति
सरोकारों पर केन्द्रित किया जाए तो सार्थक परिणाम की संभावना बढ़ेगी अन्यथा वैचारिक
टकराव का वातावरण निर्मित होने की सम्भावना अधिक रहेगी जिसके अहितकारी परिणाम
दुनिया की शांति और सुरक्षा के लिए घातक होंगे। लेकिन जिस तरह से लीबिया, सीरिया
और बहुत हद तक मिस्र भी आंतरिक धार्मिक विघटन की ओर जा रहे हैं, उसे
देखते हुए यह आवश्यक है कि इस विषय पर वैश्विक विमर्श हो।
देशबंधु
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