रंग,
रूप
और भाषा के आधार पर एक नस्ल के लोगों की पहचान और दूसरे से उसके फर्क को रेखांकित
करने की कोशिश होती रही है। लेकिन
जीवन के प्रति उनके दृष्टिकोण के अंतर को जब तक नहीं समझा जाए, तब
तक आदिवासी और गैर-आदिवासी समाज के फर्क को हम नहीं समझ सकते और साथ ही इस बात को
भी नहीं समझ सकते कि जब नई औद्योगिक नीति और औद्योगीकरण का बड़ा तबका स्वागत कर रहा
है, वैसी स्थिति में आदिवासी समुदाय हर जगह उसके खिलाफ क्यों उठ खड़ा हुआ
है। न सिर्फ झारखंड, बल्कि ओड़िशा और छत्तीसगढ़ में विश्व पूंजीवाद का
मुकाबला करता क्यों दिख रहा है?
जन-विज्ञान
ने संसार की सभी जातियों को रंग के आधार पर मुख्यतया तीन नस्लों में बांटा है।
पहली नस्ल गोरों की है, जिसे हम काकेसियन कहते हैं। दूसरी नस्ल मंगोलों
की है, जिनका रंग पीला होता है। तीसरी नस्ल काले लोगों की है। अन्य रंग
इन्हीं रंगों के मेल से बने हैं। इसी तरह रूप के आधार पर विभाजन किया जाए तो अपने
देश में चार प्रकार के लोग मिलते हैं। एक तरह के लोगों का कद छोटा, रंग
काला, नाक चौड़ी और बाल घुंघराले होते हैं। ये संभवत: जनजातीय समुदाय के लोग
हैं और उन्होंने अपना ठिकाना जंगलों में बना रखा है। इतिहासकारों के मुताबिक ये
द्रविड़ों और आर्यों के पहले से यहां आकर बसे थे।
एक
दूसरे किस्म के लोग वे हैं जिनका कद छोटा, रंग काला, सिर के बाल घने
और नाक खड़ी और चौड़ी होती है। रंग और कद-काठी में ये आदिवासियों के समान दिखते हैं,
लेकिन
हैं आदिवासियों से भिन्न, और विंध्याचल के नीचे सारे दक्षिण भारत
में फैले हुए हैं। ये द्रविड़ जाति के लोग हैं। तीसरी जाति के लोग आर्य हैं,
जिनका
रंग गोरा या गेहुंआ होता है; कद-काठी लंबी और नाक नुकीली होती है।
लेकिन इस देश की उष्ण जलवायु और अन्य जातियों के वैवाहिक मिश्रण से उनका रूप-रंग
भी आज बहुत बदल गया है। और रंग-रूप के लिहाज से चौथे लोग वे हैं जो म्यांमा,
असम,
भूटान,
नेपाल,
उत्तर
प्रदेश, उत्तर बंगाल और कश्मीर के उत्तरी किनारे पर पाए जाते हैं। इनका रंग
पीला, मुखाकृति चपटी और नाक पसरी हुई होती है। ये मंगोल जाति के लोग हैं।
भाषा
के लिहाज से भी मनुष्य समुदाय का वर्गीकरण किया गया है। डॉ सुनीति कुमार चटर्जी का
कहना है कि भारतीय जनता की रचना जिन लोगों को लेकर हुई है, वे मुख्यतया तीन
भागों में विभक्त किए जा सकते हैं। आस्ट्रिक यानी आग्नेय, द्रविड़ और हिंद
यूरोपीय। झारखंड में इंडो आर्यन समूह की भाषाएं सदानी में बदल गई हैं, कुरूक/
उड़ाव द्रविड़ समूह की भाषाओं से मिलती-जुलती हैं। संथाली, मुंडारी,
हो
और खड़िया को आस्ट्रिक समूह में रखा गया है। यानी भाषाई दृष्टि से झारखंड के
आदिवासी आस्ट्रिक जाति और आस्ट्रिक भाषा परिवार के सदस्य हैं।
इतिहासकारों
का मानना है कि आर्यों ने भारत में जातियों और संस्कृतियों का जो समन्वय किया,
उसी
से हिंदू समाज और हिंदू संस्कृति का निर्माण हुआ। बाद में जो भी आए, उन्होंने
इस हिंदू संस्कृति को स्वीकार किया और उसमें समाहित हो गए, चाहे वे मंगोल
हों, यूनानी, यूची, शक, अभीर, हूण
और तुर्क हों। लेकिन यह सर्वमान्य तथ्य है कि आग्नेय परिवार के आदिवासियों ने उस
हिंदू धर्म को कभी स्वीकार नहीं किया।
संघ
परिवार के लोग आदिवासियों को, जिन्हें हाल तक वे वनवासी कहते थे,
हिंदू
साबित करने की हरचंद कोशिश करते हैं। लेकिन हिंदू समाज में वनवासियों की हैसियत
क्या है, इसे हिंदू धर्मग्रंथों में वर्णित कुछ कहानियों और मिथकों से समझा जा
सकता है।
हनुमान
को वनवासियों का पूर्वज बताते हुए उन्हें राम का परम सेवक होने का दर्जा दिया गया
है। हैं वे सेवक ही। सूर्यवंशी आर्यपुत्र राम के चरणों में बैठने और वक्त-बेवक्त
उन्हें कंधे पर लाद कर घूमने वाला सेवक। महाभारत की कथा के अनुसार एक आदिवासी युवक
एकलव्य ने कौरवों और पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य से धनुर्विद्या सीखनी चाही तो
उन्होंने सिखाने से तो इनकार कर ही दिया। अपने कौशल और लगन से उसने धनुर्विद्या
सीख ली तो कहीं वह उनके शिष्य अर्जुन से प्रतिस्पर्धा न करने लगे, इसलिए
गुरु दक्षिणा में उससे अंगूठा ही मांग लिया।
आज
भी तथाकथित विकास के नाम पर आदिवासी समाज से कुर्बानी मांगी जाती है और अपनी बलि
देने से इनकार करने पर उन्हें गोलियों से भून दिया जाता है। यह बात बार-बार दोहराई
जाती रही है कि आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने की जरूरत है। मगर वास्तव में
आदिवासियों के प्रति कोई संवेदनशीलता होती तो विकास के नाम पर उनके साथ होने वाली
क्रूरता पर जरूर ध्यान जाता।
आदिवासी
क्या सिर्फ विकास के नाम पर बलि चढ़ने के लिए हैं? आजादी के बाद से
विभिन्न परियोजनाओं ने करोड़ों लोगों को उजड़ने पर विवश किया है। इन विस्थापितों में
तीन चौथाई आदिवासी रहे हैं। आज भी उन्हें उजाड़ने और अपने पारंपरिक परिवेश और
कुदरती संसाधनों से वंचित करने का सिलसिला जारी है। नाममात्र का मुआवजा देकर उनका
सब कुछ छीन लिया जाता है। अगर वे इसके लिए राजी नहीं होते तो निर्ममता से उनका दमन
होता है।
कलिंग
नगर में वे अपनी जमीन पर टाटा कंपनी का कारखाना बनने का विरोध कर रहे थे, जहां
पुलिस फायरिंग में बारह आदिवासी मारे गए। इसी तरह झारखंड राज्य का गठन होने के बाद
कोयलकारो परियोजना का विरोध करने वाले आदिवासियों पर तपकारा में पुलिस फायरिंग हुई, जिसमें सात आदिवासी और मुसलिम समुदाय
का एक व्यक्ति मारा गया।
दरअसल
रंग-रूप और भाषा की खाई को तो पाटा जा सकता है, लेकिन कुछ ऐसी
बातें होती हैं, जिन्हें पाटना मुश्किल होता है। मसलन, जीवन
के बारे में हमारा दृष्टिकोण, प्रकृति के साथ हमारे रिश्ते आदि।
आदिवासियों और गैर-आदिवासियों की जीवन दृष्टि के फर्क को हम कुछ ठोस उदाहरणों से
समझ सकते हैं।
ईश्वर
की कल्पना किसी न किसी रूप में सभी धर्मावलंबी करते हैं। गैर-आदिवासी समाज ईश्वर
की कल्पना सगुण रूप में एक सुपुरुष के रूप में करता है। राम, कृष्ण
या विष्णु आदि अलौकिक शक्तियों से संपन्न पुरुष हैं। ईश्वर का निर्गुण रूप भी
मानवीय गुणों से संपन्न है। जबकि आदिवासी प्रकृति पूजक होते हैं। वे पहाड़, जंगल
और पेड़ को पूजते हैं।
पूरी
हिंदू सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था वर्णाश्रम धर्म पर टिकी हुई है। ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य
और शूद्र, उसके चार भाग हैं। ब्राह्मण पुजारी-पुरोहित और शिक्षक होता है,
क्षत्रिय
के हाथ में शासन व्यवस्था, वैश्य के जिम्मे वानिकी और व्यापार और
शूद्र के जिम्मे सभी की सेवा करना, सभी तरह का मानवीय श्रम करना।
आदिवासियों में यह वर्ण व्यवस्था नहीं।
आदिवासी
समाज श्रम आधारित समाज है और गैर-आदिवासी समाज दूसरे के श्रम के शोषण पर टिका
समाज। खुद रिक्शा खींच कर जीवनयापन करना श्रम आधारित समाज की रचना करता है। जब कोई
दो-चार-दस रिक्शा दूसरे से खिंचवा कर यही काम करता है तो कहा जाएगा कि वह दूसरे के
श्रम के शोषण पर टिका है। गैर-आदिवासी समाज का भी एक बड़ा हिस्सा कृषि व्यवस्था पर
टिका है, लेकिन वहां जमीन का मालिक वैसा व्यक्ति भी हो सकता है, जो
खुद खेती न करता हो। पूरे उत्तर भारत में कृषि व्यवस्था दिहाड़ी मजदूरों पर टिकी
हुई है। आदिवासी समाज में ऐसी कल्पना ही नहीं की जा सकती।
पूरी
गैर-आदिवासी व्यवस्था अतिरिक्त उत्पादन और अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांतों पर टिकी
है। विकास के लिए जरूरी है अतिरिक्त उत्पादन और मुनाफा। कुछ लोगों के श्रम से उनकी
जरूरत से अधिक कृषि क्षेत्र में उत्पादन हुआ तभी मानव जाति के विकास का रास्ता
खुला। इस व्यवस्था की विडंबना यह हुई कि इसमें शारीरिक श्रम की कीमत सबसे कम आंकी
गई और इसलिए श्रम करने वाले को निकृष्ट माना गया। खेत में काम करने वाला, चमड़े
का सामान बनाने वाला, कपड़े बुनने वाला- ये सभी दलित हैं और आर्थिक
दृष्टि से भी सबसे अधिक विपन्न।
आदिवासी
सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था अतिरिक्त उत्पादन और अतिरिक्त मूल्य या मुनाफे के
सिद्धांत का पूरी तरह निषेध करती है। वह उतना ही उत्पादन करती है जितने की उसे
जरूरत है। वह कल की चिंता नहीं करती और इसलिए प्रकृति का उतना ही दोहन करती है
जिससे उसका नुकसान न हो।
गैर-आदिवासी
समाज में सभी में थोड़ी-बहुत वणिक बुद्धि होती है। यानी जोड़-तोड़, हिसाब-किताब
करना। कल की चिंता और उसके लिए संचय। इसलिए गैर-आदिवासी समाज का कोई भी सदस्य ‘धंधा’
कर
सकता है। यह अलग बात है कि कोई ज्यादा प्रवीण होता है, कोई कम। लेकिन
आदिवासी समाज का संपन्न से संपन्न व्यक्ति ‘धंधा’ नहीं
कर सकता। संपन्न होने के बावजूद महाजनी नहीं कर सकता।
सामाजिक-आर्थिक
व्यवस्था के इस अंतर का प्रतिफलन कलाओं के क्षेत्र में भी हुआ है। गैर-आदिवासी
समाज में रंगमंच होता है और दर्शक दीर्घा या प्रेक्षागृह। कलाकार और दर्शक। लेकिन
आदिवासी समाज में इस तरह का विभाजन नहीं। पीड़ा और उल्लास के क्षणों की भी सामूहिक
अभिव्यक्ति होती है, उसमें सभी भागीदार होते हैं। फसल कटने के बाद
चांदनी रात में नाचते वक्त आदिवासी समाज का हर औरत-मर्द कलाकार बन जाता है। दूसरी
तरफ अगर कोई अच्छा बांसुरी बजाता है तो वह उसका अतिरिक्त गुण तो है, लेकिन
इस वजह से उसे इस बात की छूट नहीं कि वह अपने खेत में काम न करे।
आदिवासी
और गैर-आदिवासी समाज और उनकी संस्कृति में अंतर करने वाली ये कुछ बातें हैं।
आदिवासी संस्कृति आदिम नहीं, बल्कि एक भिन्न संस्कृति है। विश्व
पूंजीवाद से आदिवासियों का टकराव दरअसल दो संस्कृतियों का टकराव है। ‘ये
दिल मांगे मोर’ की संस्कृति और सीमित संसाधनों के बीच जीवन बसर
करने वाले ‘आत्मतोष’ की संस्कृति का
टकराव है। हालांकि मुख्यधारा में लाने के नाम पर हम उनके इस सांस्कृतिक वैशिष्ट्य
को नष्ट करने की हरचंद कोशिश कर रहे हैं।
जनसत्ता
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