नालंदा
महाविहार (प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय) करीब आठ सौ वर्षों (पांचवी से 13वीं
शताब्दी तक) विद्या का महान केन्द्र रहा। शुरू-शुरू में यह एक बौद्ध विहार था,
जिसमें
दुनिया के विभिन्न भागों से आए हुए हजारों भिक्षु रहते थे। अपने नालंदा प्रवास के
दौरान वे बुद्धधम्म और परिपत्ति तथा धम्मशासनम
आदि के आधार पर बुद्धधम्म का अध्ययन करते थे। वरिष्ठ भिक्षु कनिष्ठ भिक्षुओं
को उपदेश भी देते थे। इस तरह से प्राचीन नालंदा महाविहार की शुरूआत हुई। महाविहार
विकसित हुआ और आखिरकार यह ऐसा विश्वविद्यालय बन गया, जिसकी दुनियाभर
में कोई मिसाल नहीं थी। इसकी प्रतिष्ठा इतनी बढ़ी कि इसे विश्व विद्यालयों का विश्वविद्यालय कहा जाने लगा।
वस्तुत:
नालंदा महाविहार सिर्फ विद्या का महान केन्द्र ही नहीं था। यह संस्कृति और सभ्यता
का एक महान केन्द्र बन गया। यह ऐसा स्थान था, जहां बुद्ध धर्म
और इसकी सभी शाखाओं का अध्ययन ही नहीं किया जाता था, बल्कि बुद्ध
धर्म के विचारों से इतर अन्य संस्कृतियों
का भी गहराई से तुलनात्मक अध्ययन किया जाता था। इस प्रकार से यह बौद्ध संस्कृति
का ही नहीं बल्कि भारतीय संस्कृति का केन्द्र बन गया।
इस
विश्वविद्यालय का नाम और इसकी प्रतिष्ठा पूरे एशिया में फैल गई। एशिया के विभिन्न
देशों से विद्वान आकर यहां बौद्ध धर्म का अध्ययन करते थे। जिन देशों से विद्वान
अध्ययन के लिए आते थे उनमें चीन, तिब्बत, कोरिया, मंगोलिया,
भूटान,
इंडोनेशिया,
मध्य
एशिया आदि प्रमुख हैं।
धीरे-धीरे
विभिन्न देशों से विद्वानों का आदान-प्रदान शुरू हो गया। कोरिया, चीन
और तिब्बत से बौद्ध भिक्षु नालंदा आया करते थे। तिब्बत से भी विद्वान नालंदा आते
थे और बौद्ध धर्म और भारतीय संस्कृति के अपने ज्ञान में वृद्धि करते थे। इस
प्रकार से नालंदा महाविहार के भिक्षु विद्वान संस्कृति के महान उपासक बन गए।
अंतर्राष्ट्रीय
स्तर पर बात करें, तो नालंदा को भारत के पर्यटक मानचित्र पर ऐसा
स्थान दिया जा सकता है जो सर्वश्रेष्ठ, पुरातत्व स्थल है और जिस पर सभी
भारतीयों को गर्व है। इस विश्वविद्यालय के खंडहर बड़गांव में पाए गए हैं। यह स्थान
पूर्वी रेलवे लाइन की शाखा पर नालंदा रेलवे स्टेशन के पास बख्तियार-राजगीर ब्रांच
लाइन पर पड़ता है। अगर कोई आज इस स्थान की तलाश में जाए तो उसे मौके पर नालंदा
विश्वविद्यालय के आंशिक खुदाई वाले खंडहर मिलेंगे। इसके आस-पास ही अनेक गांव बस
गए हैं, जिनमें बुद्ध की मूर्तियां विभिन्न रूपों में मिली हैं।
हालांकि
इस स्थान को 1812 में फ्रांसीस बुकानन ने देखा था, लेकिन
वह इसकी पहचान नहीं कर पाया। इस स्थान पर नियमित ढंग से खुदाई 1915
में शुरू हुई और दो दशकों तक पंडित हीरानन्द शास्त्री के अथक प्रयासों के बाद
नालंदा का महान स्वरूप धरती की कोख से फिर प्रकट हुआ। अब इस स्थान को नालंदा के
खंडहर कहा जाता है।
बोधिसत्व
की तरह महावीर का जन्म भी ऐसे स्थान पर हुआ था, जिसके नाम से
पहले नव लगता है। यह 1951 में वेन भिक्षु जगदीश कश्यप के
समर्पित प्रयासों का नतीजा था। उनके उत्तराधिकारियों ने इन प्रयासों को आगे
बढ़ाया। देश-विदेश के छात्रों और विद्वानों ने अध्ययन, ध्यान और
बौद्धिक प्रयासों के जरिए इनका अध्ययन किया। इस स्थान पर एक संदर्भ विश्वविद्यालय,
इस
संस्थान के अनेक महत्वपूर्ण प्रकाशन, त्रिपिटकों के अंकीय संस्करण, बौद्ध
धर्म का गहन अध्ययन, प्राकृत, संस्कृत
ग्रंथों की सहायता से किया जाता है। इसके अलावा उन प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन
किये जाते हैं, जो नव नालंदा महाविहार की उपलब्धियां माने जाते
हैं। नालंदा विश्वविद्यालय में क्सानजान (इन्हें आम तौर पर हुयेनसांग कहा जाता
है), इनके नाम से ही चीन के इस यात्री की विद्वता और साधु प्रकृति झलकती
है। दुनिया ने अगर बुद्ध धर्म को समझा है, तो इसमें हुयेनसांग की प्रतिभा का
योगदान है। साथ ही, उन आचार्यों का भी योगदान है, जो
भारत की ज्ञान पताका लेकर विदेश गए और वहां देश का नाम ऊँचा किया। अब नालंदा विश्वविद्यालय
एक आकर्षक पर्यटक स्थल बन गया है, जहां महान क्सानजान की कांस्य की
प्रतिमा स्थापित की गई है। इसके चारों तरफ जलाशय और फव्वारे लगाए गए हैं तथा यह
स्थान हरी वाटिका से घिरा हुआ है।
नालंदा
गुरु-शिष्य परम्परा की एक महान मिसाल थी। यह विशुद्ध भारतीय परम्परा है। इसके
अंतर्गत शिष्य पर गुरु का पूरा आधिपत्य होता था, भले ही शैक्षिक
विषयों पर असहमति की अनुमति थी। यह परंपरा हजारों वर्षों से चली आई थी और किसी अन्य
स्थान की तरह नालंदा में ज्यादा फली-फूली।
गुरु-शिष्य
परंपरा की चर्चा करते हुए आई त्सिंह कहते हैं ‘’ वह (शिष्य)
गुरु के पास पहली बार रात में पहुंचता है। गुरु उसे पहली बार में बैठने का आदेश
देते हैं और कहते हैं कि त्रिपिटकों में से किसी एक को चुन लो, वह
उन्हें कुछ इस प्रकार से अध्ययन करने को कहते हैं, जो उन्हें और
परिस्थितियों के अनुकूल होता है और ऐसा कोई तथ्य अथवा सिद्धांत नहीं बचता,
जिसे
वह स्पष्ट न करें। गुरु – शिष्य के नैतिक आचारण की परीक्षा लेते
हैं और अगर कोई गलती या विचलन पाते हैं, तो उसे चेतावनी देते हैं। जब भी उन्हें
शिष्य में कोई कमी दिखाई देती है, वह उसे दूर करने अथवा विनयपूर्वक पश्चाताप
करने के लिए कहते हैं। शिष्य गुरु के शरीर की मालिश करता है उनके कपड़ों की तह
करता है और कभी-कभी घर-बाहर झाडू भी लगाता है। इसके बाद जल परीक्षा होती है। इसके
बाद भी अगर कुछ करना होता है, तो शिष्य गुरु की सेवा करता है।
इस
बात पर कोई आश्चर्य नहीं कि गुरु और शिष्य दोनों ही उसी प्रकार के पीले वस्त्र
पहनते थे, जिनकी चर्चा बौद्ध ग्रंथों में उपलब्ध है। ये वस्त्र कमर के चारों
तरफ लिपटे होते थे और घुटनों के नीचे तक लटकते थे। गुरु – शिष्य दोनों ही
सादा और सात्विक भोजन करते थे। हुयेनसांग के जीवनी के लेखक शाओमान हुई ली के
अनुसार नालंदा विश्वविद्यलय का खर्च उसके आस-पास बसे लगभग एक सौ गांवों के निवासी
उठाते थे।
नालंदा
विश्वविद्यालय का विनाश तुर्क आक्रमणकारियों के हाथों हुआ और यह बहुत त्रासद रहा।
1205 ईसवी में जब बख्तियार खिलजी में नालंदा विश्वविद्यालय में आग लगा
दी तो वह इसके जलने पर हंसता रहा। इस ज्ञान मंदिर को बनाने में जहां कई शताब्दियां
लग गईं, वहीं इसको बर्बाद करने में कुछ ही घन्टे लगे। कहा तो यहां तक जाता
है कि जब कुछ बौद्ध भिक्षु आक्रमणकारी से इस विश्व प्रसिद्ध विश्वविद्यालय के
पुस्तकालय को नष्ट न करने के लिए अनुनय विनय कर रहे थे, तो उसने उन्हें
ठोकर मारी और उसी आग में फिंकवा दिया, जिसमें पुस्तकें जल रही थीं। रत्नबोधि
इस महान विश्वविद्यालय के पुस्तकालय का नाम था। इसके बाद बौद्ध भिक्षु इधर-उधर
भाग गए और नालंदा की सिर्फ यादे ही शेष रहीं।
इस
प्रकार से नालंदा विश्वविद्यालय की महान गाथा का अंत हुआ। इसकी चर्चा महान
इतिहासकार हैमिलटन और बाद में अलेक्जेंडर कनिंघम ने की है। 1915
में इस स्थान पर खुदाई शुरू की गई, जो 20 वर्षों तक जारी
रही। अब भी करने को बहुत कुछ बाकी है। नव नालंदा महाविहार इस स्थान के बगल ही
स्थित है।
आधुनिक
सरकार ने नालंदा विश्वविद्यालय के पुनरूद्धार के लिए अनेक प्रयास किए हैं। अब संसद
ने नालंदा विश्वविद्यालय विधेयक पास किया है, जिसके अनुसार
केन्द्र और राज्य सरकारों ने नालंदा शिक्षा संस्थान को वर्ल्डक्लास का दर्जा
देने के लिए अपने प्रयास शुरू कर दिए हैं।
(पसूका)
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