रविवार, 14 जुलाई 2013

जीएम बीज, फसल और सेहत

केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने पोषण और कृषि के क्षेत्रों के विशेषज्ञों की एक सभा में एक सवाल उठाया कि क्या आप एक ऐसी कृषि व्यवस्था चाहते हैं, जहां 95 प्रतिशत बीजों पर एक कंपनी का कब्जा हो? श्री रमेश के इस सवाल और उससे जुड़े संदर्भों पर केवल सभाओं में नहीं बल्कि देशव्यापी स्तर पर विचार मंथन कर जवाब तलाशने की आवश्यकता है। जयराम रमेश ने यह सवाल जीएम अर्थात जेनेटिकली मोडीफाइड (अनुवांशिक अभियांत्रिकी) फसलों पर संदेह जतलाते हुए उठाया। उन्होंने कहा कि पोषण में कृषि के महत्व को पहचानने से लेकर जीएम फसल के लिए मामला बनाना एक बहुत छोटा कदम है। व्यक्ति को प्रथम हरित क्रांति और आज की हरित क्रांति के बीच मौलिक अंतर समझना चाहिए। भारत में पहली हरित क्रांति के लिए गेहूं और धान की नई किस्में क्रमश: मैक्सिको स्थित सिम्मिट और फिलिपींस स्थित आइआरआइ से आई, पर आज हालात अलग हैं। फसल की नई किस्में मोंसेंटो और सिंजेंटा से आ रही है। ये वे दो विशाल कंपनियां हैं, जो जीएम से परिवर्तित फसलों की सबसे बड़ी प्रायोजक हैं। आज दूसरी तरह का खेल हो रहा है। श्री रमेश ने जीएम बीजों के बारे में अपनी राय रखते हुए कहा कि व्यक्तिगत रूप से मैं इस तरह की खेती के बारे में संदेह रखता हूं। क्योंकि इससे विजातीय जीन से तैयार फ सलों के झंडाबरदारों और हिमायती लोगों के लिए घुसने का मौका मिलता है। मेरा मानना है कि हमें इस बारे में बहुत सावधान रहना चाहिए।  यह सुनना बड़ा लुभावना लगता है कि चावल विटामिन ए से लैस होगा, एक गेहूं की ऐसी प्रजाति होगी, जिसमें लौहतत्व (आयरन) मिलेगा और ऐसी अद्भुत चीजें ट्रांसजेनेटिक तकनीक (विजातीय प्रजातियों के जीन के प्रयोग से विकसित फसल) की प्रौद्योगिकी के आधार पर कही जा रही है। श्री रमेश की इन बातों से असहमत होने का कोई कारण नजर नहींआता। उच्च पैष्टिकता से भरपूर फसलों का हवाला देकर किसी को भी झांसा देना आसान है, लेकिन हकीकत कुछ और ही होती है। ये फसलें पहली नजर में तो पौष्टिक लगती हैं, लेकिन इनका दूरगामी प्रभाव विपरीत ही पड़ता है और इसका नकारात्मक असर हमारी पारंपरिक खेती पर भी पड़ता है। दरअसल यह सारा खेल खेती को बंधक रख, उसे मुनाफा कमाने वाले उद्योग में तब्दील करने के लिए रचा गया है और इसके दो बड़े वैश्विक खिलाड़ी मोंसैंटो और सिंजेंटा नामक कंपनियां हैं। बड़ी चतुराई से इन दोनों कंपनियों ने कृषि प्रधान भारत में अपनी दखल बढ़ाई और फिर यहां की सारी खेती को कठपुतली बनाकर उसकी डोर अपने हाथों में रखनी चाही। यही कारण है कि अब गुजरात में जैविक खेती करने वाले किसानों के एक संगठन ने अपना बीज बैंक बनाने का निर्णय किया है, ताकि इन कंपनियों को खेती में एकाधिकार न जमाने दे, उनके महंगे व नुकसानदायक बीजों के मुकाबले अपने बीजों से खेती करें, जो फसल के लिहाज से भी अच्छी होगी और सेहत के लिहाज से भी।

जयराम रमेश ने कृषि एवं पर्यावरण मंत्री रहते हुए बीटी बैंगन पर रोक लगाई थी। जीएम तकनीक से उगाया गया कपास और मक्का भी संदेह के घेरे में आ चुके हैं। कुछ समय पहले ही पर्यावरण संगठन ग्रीनपीस ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि किस तरह जीएम फसलों का नकारात्मक असर शरीर के रोग प्रतिरोधात्मक तंत्र पर पड़ता है। लेकिन इसके बावजूद हमारे देश में जैवसुरक्षा आकलन की प्रक्रिया में पर्याप्त सावधानी नहींबरती जा रही। ग्रीनपीस का मानना है किहमारे देश का जीएम नियामक तंत्र एक तरफ  तो जीएम फसलों की जैवसुरक्षा सम्बन्धी महत्वपूर्ण सूचनाओं को छुपाता है, वहीं दूसरी ओर उन्हीं फसलों के क्षेत्रीय परीक्षण को अनुमति भी देता है। इससे हमारे भोजन तथा बीज आपूर्ति श्रृंखला पर बुरा असर पड़ सकता है। यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है और देश के नागरिकों व किसानों दोनों के साथ छल है। सबसे ऊपर जो सवाल उठाया गया है, उसके जवाब में जब हम दृढ़ इन्कार करेंगे, तभी भविष्य के खतरे से बचा जा सकेगा।

देशबंधु

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुल पेज दृश्य