यद्यपि
आतंकवाद की परिघटना इतिहास में अनेक शताब्दियों से हो रही है फिर भी इसका विस्तार
हाल के दशकों में हुआ है। उसकी बारंबारता भी बढ़ी है। आज शायद ही कोई देश उससे
अछूता है। हमारे अपने यहां पंजाब में 1980 के दशक की आतंकी गतिविधियों श्रीलंका
की गतिविधियों के भारत पर पड़े प्रभावों और भारतीय संसद मुम्बई और दिल्ली उच्च
न्यायालय पर हुए हमलों को आज तक लोग नहीं भुला पाए हैं।
प्रश्न
है कि आतंकवाद क्यों पनपता है। इस पर विचार करने के पूर्व हमें दोशब्दों 'कारक'
और 'कारण'
के
बीच फर्क करना होगा। तर्कशास्त्र के अनुसार कारक किसी घटना को त्वरित या
प्रोत्साहित करते हैं मगर उसे जन्म नहीं देते। उनकी भूमिका केवल सहायक की होती है।
उदाहरण के लिए मलेरिया या डेंगू खास प्रकार के मच्छर के काटने से होता है मौसम के
ठंड या गर्म होने से नहीं यद्यपि मौसम की प्रतिकूल स्थिति उसे बढ़ावा देती है। इस
प्रकार वह कारक है।
यदि
हम इस अंतर को ध्यान में रखकर आतंकवाद की परिघटना पर विचार करें तो हम इस नतीजे पर
पहुंचेंगे कि गरीबी की भूमिका आतंकवाद के लिए कारक की हो सकती है। वह उसका कारण
सर्वथा नहीं होती इस बात को प्रख्यात अमेरिकी अर्थशास्त्री एलन बी. क्रुगर ने लंदन
स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स में वर्ष 2006 में लिओनेल रॉबिन्स व्याख्यान के क्रम
में रेखांकित किया। उसके व्याख्यान प्रिस्टन यूनिवर्सिटी प्रेस से 2007
में पुस्तक के रूप में 'व्हाट मेक्स ए टेर्रोरिस्ट : इकॉनमिक्स एंड द
रुट्स ऑफ टेरोरिम' शीर्षक से प्रकाशित हुए। क्रुगर एक प्रख्यात
अर्थशास्त्री ही नहीं है बल्कि अमेरिकी प्रशासन के आर्थिक सलाहकार परिषद के
अध्यक्ष भी हैं।
क्रुगर
ने अपने पहले व्याख्यान के आरंभ में ही यह प्रश् उठाया कि कोई व्यक्ति आतंकवादी
क्यों बन जाता है और वह आदमी अपनी जान को दांव पर लगाकर दूसरे लोगों, देशों
और समुदायों तथा उनकी संपत्ति पर क्यों हमला करता है। कुछ लोग आर्थिक गरीबी और
शिक्षा की कमी को आतंकवाद की जड मानते हैं। हमारे अपने यहां नक्सली, आतंकवाद
और विशेषकर छ.ग. में हुई हाल की घटनाओं के संदर्भ में गरीबी, अशिक्षा,
वन
संपदा की लूट आदि को उनके लिए जिम्मेदार बतलाया गया है। ध्यान से देखें तो वे मूल
कारण नहीं, बल्कि कारक हो सकते हैं जो आतंकी प्रवृत्ति को
बढ़ावा देते हैं। दूसरे शब्दों में, वे उसके जनक नहीं हैं। वे कारक हैं,
कारण
नहीं। यदि गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा
और शोषण कारण होते तो उन्होंने पहले आतंकी गतिविधियों को क्यों जन्म नहीं दिया जब
वे उग्रतर रूपों में देखे गए। उदाहरण के तौर पर, 1770 में बंगाल,
बिहार
और ओडिसा में भयंकर अकाल पड़ा जिसमें लगभग एक तिहाई जनसंख्या मौत के घाट उतर गई।
कुछ दंगे-फसादों को छोड़ दें तो कंपनी शासन के खिलाफ कोई आतंकी गतिविधियां नहीं
देखी गईं। वर्ष 1943 में अविभाजित बंगाल में अकाल पड़ा जिसमें करीब 35
लाख लोगों की मौत हुई फिर भी आतंकवाद कहीं नहीं दिखा।
इसी
प्रकार विधर्मियों, विदेशियों और विजातीय लोगों के प्रति घृणा और
द्वेष यदा-कदा हिंसक प्रवृत्तियों को जन्म दे सकते हैं। परंतु वे शायद ही आतंकवाद
को संगठित रूप से लाते हैं। क्रुगर के अनुसार, बेरोजगार या
मजदूरी की निम्न दरों पर कार्यरत लोगोें के लिए आतंकी गतिविधियों में शामिल होना
कोई भारी घाटे का सौदा नहीं होता फिर भी देखा गया है कि वे बड़े पैमाने पर आतंकवाद
की ओर उन्मुख नहीं होते। दुनिया की आधी जनसंख्या वर्ष 2005 में दो डालर से
भी कम दैनिक आय पर जीवन बसर कर रही थी। दुनिया भर में एक अरब लोग अधिक से अधिक
प्राथमिक शिक्षा पा सके थे। निरक्षरों की संख्या साढ़े 78 करोड़ थी। यदि
गरीबी और शिक्षा का अभाव आतंकवाद के मूल में होते तो विश्व में आतंकियों की भरमार
होती और उनसे निपट पाना सबसे शक्तिशाली शासन के लिए भी संभव नहीं होता।
अनुसंधान
बतलाते हैं कि अधिकतर आतंकी आर्थिक दृष्टि से वंचित नहीं होते। वस्तुत: वे अपने
सैध्दांतिक प्रतिबध्दताओं के कारण आतंकवाद की ओर उन्मुख होते हैं। नागरिक अधिकारों
का अभाव तथा जनतंत्र की दुर्बलता अनेक लोगों को अपनी जायज मांगों के लिए संघर्ष
में हिंसक तरीकों को अपनाने के लिए बाध्य करती है। क्रुगर ने पाया है कि आतंकी
अपेक्षाकृत शिक्षित और आर्थिक दृष्टि से बेहतर परिवारों से होते हैं। स्पष्टतया,
अशिक्षा,
उच्च
शिशु मृत्यु दर और प्रति व्यक्ति निम् आय स्तर लोगों को आतंकवाद का रास्ता अपनाने
के लिए प्रेरित नहीं करते। देखा गया है कि नागरिक अधिकारों, राजनीतिक
स्वतंत्रता और प्रेस की आजादी का दमन, लोगों विशेषकर जागरूक व्यक्तियों को
आतंकवाद की ओर ढकेलता है।
आतंकवादी
जिन गतिविधियों को अपनाते हैं उनका मूल उद्देश्य भय का वातावरण पैदा करना होता है,
जिससे
सामान्य आर्थिक गतिविधियां बाधित हों और उत्पादन और वितरण की व्यवस्था में खलल
पड़े। लोग उत्पादन स्थलों और बाजार से भागें। कहना न होगा कि इससे जनमत प्रभावित
होगा और सरकार की क्षमता पर प्रश्नचन्ह लग सकते हैं। विदेशी निवेश और व्यापार पर
प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है जिससे बेरोजगारी एवं गरीबी बढ़ सकती है। सरकार अपनी
अक्षमता जाहिर कर सकती है या दमनकारी नीतियां अपना सकती है। दोनों ही स्थितियों
में आतंकवादी नेतृत्व फायदा उठाने की कोशिश कर सकता है। क्रुगर ने रेखांकित किया
है कि आतंकवाद एक कार्यनीति मात्र है। उसके पास कोई दूरगामी कार्यक्रम नहीं होता।
इसलिए अन्य क्रांतिकारी आंदोलनों की तरह वह टिकाऊ नहीं होता और न ही उसका जनाधार
बहुत समय तक बना रहता है।
जनधारित
क्रांतिकारी आंदोलनों की कोशिश हमेशा अपने साथ जनता के जुड़ाव को मजबूत बनाना और
विस्तृत करना होता है, जबकि आतंकवादियों का नजरिया संकीर्ण होता है।
हिंसक गतिविधियों को बढ़ावा देने के पहले यह नहीं सोचते कि उनसे उनका जनाधार बढ़ेगा
या घटेगा और आम आदमियों को जानमाल का क्या नुकसान होगा। छत्तीसगढ़ में हाल ही में
हुई हिंसक आक्रमणों को ही लें। उनसे कतई अच्छा संदेश देश की जनता में नहीं गया है
यद्यपि कुछ दिनों तक सनसनी फैली और प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में गरमागरम
बहस हुई। आतंकवादियों के पक्ष में शायद ही कोई दूरगामी टिकाऊ प्रभाव हुआ है।
यहां
आतंकवादी हिंसा और सांप्रदायिक जातीय और राष्ट्रीयता पर आधारित हिंसा में फर्क
करना आवश्यक है। हमारे अपने ही देश में
हिन्दू-मुसलमान और हिन्दू-ईसाई दंगे हुए हैं। ये दंगे क्षणिक उन्माद के ही परिणाम
रहे हैं। कुछ अरसे के बाद अधिकतर लोग उन्हें भुला देते हैं। इनके विपरीत आतंकवादी
हिंसक घटनाओं के पीछे संगठन और योजनाएं रहती हैं। कब, कहां और कैसे इन
हिंसक घटनाओं को अंजाम दिया जाय, इसको लेकर काफी माथापच्ची होती है।
अध्ययन
बतलाते हैं कि अधिकतर आतंकवादी संगठनों को संचालित करने वाले लोग समाज के प्रबुध्द
परिवारों से आते हैं तथा उन्हें खाने-पीने की कोई चिंता नहीं होती। वे वैचारिक
कारणों से इन संगठनों से जुड़ते हैं। कम पढ़े-लिखे और निम्न आर्थिक वर्गों से आने
वाले उनके निर्देशन में काम करते हैं। इनमें से कई रॉबिन हुड आतंकवाद के विचारों
से अनुप्राणित होते हैं। धनवानों से लूट कर गरीबों के बीच बांटने में उन्हें आनन्द
आता है।
यह
भी पाया गया है कि जब संगठन का आकार एक सीमा के आगे चला जाता है तब निचले स्तर पर
जुड़ने वाले आर्थिक प्राप्तियों में कहीं अधिक दिलचस्पी रखने लगते हैं। इसी कारण
हमारे यहां रंगदारी की बात अक्सर सुनी जाती है। कई पेशेवर अपराधी भी जुड़ने की कोशिश
करते हैं क्योंकि उन्हें एक खास तरह की प्रतिष्ठा मिल जाय। यह भी देखा गया है कि
एक सीमा के बाद संगठन का विस्तार होने पर दो तरह के लोगों के बीच बंटवारा हो जाता
है। एक तरफ प्रतिबध्द लोग होते हैं तो दूसरी ओर स्वार्थी या धनलोलुप आ जाते हैं।
इस विभाजन पर नियंत्रण नहीं किया तो बिखराव होना अवश्यंभावी हो जाता है।
आतंकवादी
संगठनों में दक्ष और प्रशिक्षित लोगों की बड़ी मांग होती है जो शस्त्रास्त्रों की
अच्छी जानकारी रखते हों और कार्रवाइयाें का सही-सही नियोजन कर सकें। कहना न होगा
कि नियोजित कार्रवाइयों के नाकामयाब होने पर जन-धन की भारी हानि हो सकती है। आगे
के लिए संसाधनों को जुटा पाना कठिन होता है कि नियोजित कार्रवाइयां पूर्णतया
गोपनीय रहें। साथ ही उनको अंजाम देने वालों की पहचान आम लोग और सरकारी तंत्र नहीं
जान पाए। इतना ही नहीं, घटना के बाद उससे जुड़े लोग बिना कोई निशान छोड़े
लापता हो जाएं।
आए
दिन कार्रवाइयों को अंजाम देने के पहले ही सरकारी तंत्र को जानकारी मिल जाती है या
ऐसी अंदरूनी गड़बड़ी आ जाती है और संगठन में बिखराव होने लगता है। इसके अलावा घटनाओं
या कार्रवाइयों को उनके मुकाम तक पहुंचाने के लिए प्रतिबध्द कार्यकर्ता चाहिए
जिन्हें गोपनीय ढंग से पूर्णतया प्रशिक्षित किया जा सके। परस्पर शक-सुबहा न पैदा
हो और विश्वास बना रहे। यह सब काफी मुश्किल है जिससे आतंकवादी संगठन या आंदोलन
टिकाऊ नहीं होते।
क्रुगर
का मानना है कि अनेक विकासशील देशों के नेता गरीबी, अशिक्षा,
पिछड़ापन
आदि को आतंकवाद का मूल कारण बतलाकर अपना हित साधना चाहते हैं। वे विदेशी निवेश,
सहायता
और दानशीलता की भावना को दुहकर अपनी तिजोरी भरना चाहते हैं। साथ ही अपनी नाकामियों
को छिपाने की कोशिश करते हैं।
क्रुगर
ने रेखांकित किया है कि आतंकवाद अस्थायी रूप से आर्थिक गतिविधियों में खलल डालकर
सनसनी फैला सकता है। लोग कुछ समय के लिए भयभीत हो सकते हैं परंतु दीर्घकालीन असर
नहीं होता। मुंबई को ही लें। वहां से न मजदूर भागे हैं और न कारोबारी। सब कुछ
ठीक-ठाक हो गया है। निश्चित रूप से काफी क्षति हुई और थोड़े समय के लिए भय का
वातावरण रहा। सुरक्षा को लेकर खर्च भी बढ़ा। जनसंचार माध्यमों द्वारा प्रसारित
सनसनीखेज खबरों में लोगों की दिलचस्पी भी कुछ समय बाद घट गई।
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