शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

जवाब देने का अधिकार

जुलाई में अपराधियों को विधायी सदनों में प्रवेश करने से प्रतिबंधित करने का निर्णय सुनाने वाले सुप्रीम कोर्ट ने असंवेदनशील राजनीतिक वर्ग को एक और तगड़ा झटका दिया है। इस बार उसने लंबे इंतजार के बाद मतदाताओं को एक ऐसा अधिकार दे दिया जिसकी मदद से वे राजनीतिक दलों की मनमानी का मुंहतोड़ जवाब दे सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने मतदाताओं को चुनाव में उतरने वाले सभी प्रत्याशियों को खारिज करने का विकल्प देकर चुनाव सुधार की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम उठाया है। इस फैसले के बाद अब मतदाताओं को इनमें से कोई नहींबटन दबाने का विकल्प मिलेगा। अपने आदेश में शीर्ष अदालत ने सभी प्रत्याशियों को खारिज करने के अधिकार को सभी मतदाताओं का मौलिक अधिकार बताया है। उम्मीद की जाती है कि पूरे तंत्र को साफ-सुथरा बनाने का सपना पूरा करने में इस फैसले से बड़ी मदद मिलेगी।

मील का पत्थर नजर आने वाले इस फैसले का समय इससे बेहतर नहीं हो सकता था। चुनाव में बेहतर प्रत्याशियों को चुनने की तेज होती मांग के बावजूद ऐसा कहीं से प्रतीत नहीं हो रहा था कि राजनीतिक दल सार्वजननिक जीवन में साफ-स्वच्छ छवि वाले लोगों को लाने के प्रति गंभीर हैं। यथार्थ यह है कि राजनीतिक दलों द्वारा टिकट वितरण के समय जो एकमात्र पैमाना देखा जाता है वह है किसी प्रत्याशी के जीतने की संभावना। इसका मतलब है कि जो लोग किसी चुनाव क्षेत्र में धनबल और बाहुबल की ताकत से जीतने की संभावना रखते हैं उन्हें टिकट मिलने के अवसर अधिक होंगे। वैसे तो सभी राजनीतिक दलों को यह दोष अपने सिर लेना होगा कि उन्होंने आम तौर पर ऐसे प्रत्याशियों का चयन किया जिन्हें जनता पसंद नहीं करती है, लेकिन केंद्र में सत्ताधारी गठबंधन संप्रग को इस संदर्भ में सबसे अधिक गैर-जिम्मेदाराना तरीके से बर्ताव करने के लिए कहीं अधिक दोष दिया जाएगा।

सुप्रीम कोर्ट ने पिछली जुलाई में जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 के सेक्शन 8 (4) को रद्द कर दिया था, जिसके तहत सांसदों और विधायकों को निचली अदालत में दोषी करार दिए जाने के बावजूद ऊंची अदालत में अपील किए जाने के आधार पर विधायी सदस्य बने रहने का अधिकार दिया गया था। हालांकि अदालत ने आरोप पत्र दायर होने के आधार पर राजनेताओं को चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित नहीं किया। अपने निर्णय में अदालत ने साफ कहा है कि ऐसे लोग जिन्हें दोषी करार दिए जाने के बाद दो साल कैद की सजा सुनाई गई है, उन्हें चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित किया जाए। ऐसे लोगों को ऊंची अदालत में अपील दायर होने के आधार पर छूट नहीं दी जाएगी। अदालत ने जेल में बंद लोगों को भी चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित किया है, क्योंकि ऐसे लोगों को मत देने का अधिकार नहीं होता।

सरकार ने दोषी जनप्रतिनिधियों को अयोग्य होने से बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को बेअसर बनाने के लिए दो संशोधन विधेयकों को मंजूरी दी। इसमें कहा गया है कि दागी सदस्य भी संसद अथवा राज्य विधायिका की कार्यवाही में लगातार भाग ले सकते हैं, लेकिन वह न तो मतदान में हिस्सा ले सकते हैं और न ही वेतन अथवा भत्ते लेने के हकदार होंगे। इसी तरह दूसरे संशोधन में कहा गया है कि गिरफ्तार होने के बावजूद भी किसी सांसद अथवा विधायक का मताधिकार नहीं छीना जा सकता है। इस आधार पर उसका चुनाव लड़ने का अधिकार भी बरकरार रहेगा। अपराधी-राजनेताओं की श्रेणी में आ खड़े होने वाले अपने मित्रों और सहयोगियों को बचाने की हड़बड़ी में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इतना भी इंतजार नहीं किया कि संसदीय समिति अपना काम पूरा कर ले। लिहाजा उसने सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को बेअसर साबित करने के लिए अध्यादेश का सहारा लेने का फैसला कर डाला-वह भी तब जब देश के कुछ शीर्ष कानूनी और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञों ने स्पष्ट रूप से यह विचार व्यक्त किया था कि गंभीर अपराध के दोषी पाए जाने वाले नेताओं को विधायी सदनों का सदस्य बनने से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। इस तरह के सभी सुझावों को खारिज करते हुए अध्यादेश ले आया गया। शुक्रवार को चुनाव में कोई नहींका विकल्प देकर सुप्रीम कोर्ट ने इस संवेदनहीनता को मुंहतोड़ जवाब दिया है। अदालत का यह आदेश हाल में एसोसिएशन आफ डेमोक्रेटिक रिफार्म्स (एडीआर) और नेशनल इलेक्शन वाच की ओर से सामने लाए गए बहुमूल्य शोध आंकड़ों के संदर्भ में विशेष महत्व रखता है। इन संगठनों के मुताबिक लगभग तीस प्रतिशत मौजूदा सांसदों और विधायकों ने अपने शपथपत्रों में यह जानकारी दी है कि उनके खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। इन आंकड़ों के बाद दुनिया का कोई भी देश अपनी राजनीति के स्तर पर शर्मिदगी महसूस करेगा, लेकिन भारत की बात अलग है। जब देश के तीस प्रतिशत जनप्रतिनिधि आपराधिक मामलों से घिरे हों तो यह बिल्कुल सही है कि मतदाताओं के पास सभी प्रत्याशियों को खारिज करने का अधिकार हो और सुप्रीम कोर्ट ने अपने ताजा आदेश से यही हक लोगों को दिया है।

निर्वाचन आयोग को अब इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों में इनमें से कोई नहींका बटन जोड़ना होगा और उम्मीद है कि वह नवंबर में कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में ही यह व्यवस्था करने में कामयाब रहेगा। निर्वाचन आयोग पहले ही ईवीएम के साथ मतदान की पर्ची देने के प्रस्ताव पर गंभीरतापूर्वक काम कर रहा है, जिससे इस आशंका को पूरी तरह समाप्त किया जा सके कि ईवीएम में छेड़छाड़ करके चुनाव नतीजों को प्रभावित किया जा सकता है।



ए. सूर्यप्रकाश (दैनिक जागरण)


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