गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

मिस्र: कट्टरवाद से गृहयुध्द की ओर

मुर्सी सरकार को हटाए जाने के बाद से मिस्र में स्थिति बहुत चिंताजनक बन पड़ी है। लेकिन 14 अगस्त के बाद जिस तेजी से यह बिगड़ी है उसकी कल्पना बहुत कम लोगों ने की थी। बड़े पैमाने पर हुई हिंसा में इतने यादा लोग मारे गए हैं या घायल हुए हैं कि अब सुलह-समझौते की संभावना भी बहुत कम हो गई है।

इसी के साथ यह संभावना बहुत कम रह जाती है कि वर्तमान सरकार व सेना मुर्सी समर्थकों को सत्ता की ओर लौटते हुए देंखे। दूसरी ओर, मुर्सी समर्थक लगातार यही मांग करते रहे हैं कि चूंकि मुर्सी के नेत्तृत्व की लोकतांत्रिक चुनाव में निर्वाचित सरकार को हटाना गैर-कानूनी था, अत: उन्हें फिर सत्ता सौंप दी जाए। अतएव इस स्थिति में आपसी सुलह-समझौते की गुंजाइश बहुत कम रह जाती है।

ऐसी स्थिति में अब एक ही संभावना बचती है कि कोई बाहरी शक्ति दोनों पक्षों पर या किसी एक पक्ष पर ऐसा दबाव बनाए कि सुलह-समझौते की कोई राह निकल आए। ऐसी संभावना कम है कि मुस्लिम ब्रदरहुड पर ऐसा कोई दबाव काम कर पाएगा। जहां तक मिस्र की सेना का सवाल है, उस पर तो केवल अमेरिका ही अधिक दबाव बना सकता है। अमेरिका से मिस्र को व विशेषकर वहां की सेना को अरबों डालर की सहायता मिलती है। इस सहायता के बल पर उसके सेना में नजदीकी मित्र भी हैं और वह सेना को प्रभावित करने की स्थिति में भी है। दूसरी ओर यह भी सच है कि अमेरिका ने सेना द्वारा की गई हिंसा की स्पष्ट निंदा की है।

पर सवाल यह है कि अमेरिका क्या इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में अपने और इजराइल के रणनीतिक हितों के विरुध्द जाना चाहेगा? फिलहाल अमेरिका और इजराइल के रणनीतिक हितों में मिस्र की सेना की सहयोगी भूमिका को बहुत महत्वपूर्ण स्थान मिला हुआ है। मिस्र अरब का सबसे बड़ा देश है, इसकी सेना अरब देशों की सबसे बड़ी सेना है। ऐसे में क्या अमेरिका वहां की सेना पर कभी इतना दबाव बनाना चाहेगा कि जिससे उसके रणनीतिक हित ही खतरे में पड़ जाएं? इसका उत्तर है ''नहीं''।  
 
यहां यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि अमेरिका स्वयं भी मुर्सी सरकार के कुछ कार्यों या निर्णयों से चिंतित था। न्यूयार्क टाइम्स में प्रकाशित एक विवरण के अनुसार सेना द्वारा मुर्सी को हटाने के निर्णय में अमेरिका का भी कुछ हद तक हाथ था। लेकिन अमेरिका इतना जरूर चाहता था कि सेना को इतनी हिंसा का इस्तेमाल न करना पड़े।

संभवत: मिस्र की सेना के जनरल भी यह नहीं चाहते थे कि उन्हें इतनी भयानक हिंसा का उपयोग करना पड़े। जब मुर्सी के समर्थन में जबरदस्त प्रदर्शन हो रहे हों, समर्थकों की संख्या अधिक हो व वे मुर्सी को सरकार को फिर स्थापित करने की मांग उठा रहे हों तो सेना के सामने क्या विकल्प बच पाते हैं। उसे या तो हिंसक होना पड़ेगा या मुर्सी समर्थकों के आगे झुकना पड़ेगा। चूंकि दूसरा विकल्प तो उसे किसी तरह स्वीकार्य नहीं है, अत: उसने पहली राह अपनाई है। विरोध प्रदर्शन करने वालों को कुछ दिन चेतावनी देने के बाद सेना ने उनके विरुध्द भयंकर हिंसा की कार्रवाई की है।

अमनपसंद व लोकतांत्रिक लोगों के लिए यह पूरा घटनाक्रम बहुत दुखद रहा है। कहां तो एक समय अरब बसंत की बात हो रही थी, और कहां अब स्थिति ऐसी बन गई है कि लोकतंत्र की स्थापना खून के धब्बों के बीच धूमिल होती जा रही है। दूसरी बड़ी समस्या है कि इस पूरे घटनाम से धार्मिक कट्टरवाद अंत में मजबूत ही होगा। कट्टरवादी संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड को इस समय उत्पीड़न सहना पड़ रहा है। परंतु जो अन्याय व उत्पीड़न का शिकार होता है उसके साथ बाद में अधिक लोग जुड़ते हैं।

हाल के घटनाक्रम में धार्मिक कट्टरवादी दल से लोकतांत्रिक चुनावों के माध्यम से प्राप्त सत्ता को छीना गया था। इससे उनमें यह अनुचित संदेश जाएगा कि सत्ता प्राप्त करने के लिए हिंसा का उपयोग जायज है। ऐसी स्थिति में जब पहले से कुछ कट्टरवादी संगठन हिंसक हैं, तो घटनाक्रम इसे एक खतरनाक हिंसा की राह की ओर ले जा सकता है।

कुछ दिन पहले मिस्र में अनेक पुलिसकर्मियों की जिस तरह हत्या कर दी गई उससे यह संकेत मिलता है कि कुछ कट्टरवादी संगठन अब तेजी से हिंसा के रास्ते की ओर भी बढ़ सकते हैं। इस तरह से गृहयुध्द की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। मुस्लिम ब्रदरहुड के एक बड़े आध्यात्मिक नेता की गिरफ्तारी से भी स्थिति और भड़क गई है।

यह सच है कि मुस्लिम ब्रदरहुड और उससे जुड़े राजनीतिक दलों ने भी सत्ता का सही उपयोग नहीं किया था। मुर्सी की अनेक नीतियां व निर्णय आपत्तिजनक थे। उन्होंने सब को साथ लेकर चलने की नीति नहीं अपनाई। ईरान के राष्ट्रपति अहमदीनेजाद के मिस्र के दौरे के समय जो बातचीत उनसे हुई उसे लेकर सेना के मन में जो गहरे संदेह पैदा हुए थे जिनका निवारण होना चाहिए था।


मुर्सी सरकार गलतियां तो कर रही थी परंतु इन गलतियों के बावजूद लोकतांत्रिक ढंग से चुनी सरकार को इस तरह जोर-जबरदस्ती से हटाना अनुचित था। इससे मिस्र की समस्याएं और बढ़ गई हैं। अब वह गृहयुध्द की ओर जा रहा है। इसका पूरे अरब जगत पर और आसपास के अन्य देशों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। वहां की इस त्रासद स्थिति का सबसे बड़ा सबक यह है कि धार्मिक कट्टरवाद जैसी प्रवृत्तियां चाहे कितनी हानिकारक हों, परंतु उनका सामना लोकतांत्रिक तौर-तरीकों से करना चाहिए, जोर-जबरदस्ती से नहीं।

देशबन्धु

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