गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

सातवें वेतन आयोग का एजेंडा

सरकार ने केंद्रीय कर्मियों के वेतन बढ़ाने को सातवें वेतन आयोग को गठित करने का निर्णय लिया है। पिछले वेतन आयोग ने 'जरूरत' के आधार पर वेतन वृद्धि की संस्तुति की थी। तीन व्यक्तियों के परिवार के निर्वाह के लिए जितने वेतन की जरूरत हो उतना सरकारी कर्मियों को दिया था। प्रारंभिक स्तर पर सरकारी कर्मियों को आज लगभग 13,300 रुपये वेतन और 10,000 रुपये अन्य सुविधाओं जैसे एचआरए, मेडिकल, प्रोविडेंड फंड, पेंशन आदि यानी लगभग 23,000 रुपये प्रति माह मिलते हैं। यह सरकार द्वारा दिए जाने वाले वेतन की बात है। आइआइएम बेंगलूर के प्रो. वैद्यनाथन के अनुसार सरकारी कर्मियों को वेतन से चार गुणा अधिक आय भ्रष्टाचार से होती है। इसे जोड़ लिया जाए तो सरकारी कर्मियों की औसत आय 90,000 रुपये प्रति माह है। सरकारी कर्मियों के अनुसार यह रकम तीन लोगों के परिवार के लिए पर्याप्त नहीं है। इसमें वृद्धि के लिए आयोग का गठन किया गया है।

देश के लगभग 60 करोड़ वयस्कों में तीन करोड़ सरकारी अथवा संगठित प्राइवेट सेक्टर में कार्यरत हैं। शेष 57 करोड़ असंगठित क्षेत्र में जीवनयापन कर रहे हैं। मेरे अनुमान से इनकी औसत मासिक आय लगभग 8,000 रुपये होगी। यदि 90,000 रुपये में सरकारी कर्मियों की जरूरतें पूरी नहीं हो रही हैं तो इन 57 करोड़ नागरिकों की जरूरत 8,000 रुपये में पूरी कैसे हो रही हैं। इससे प्रमाणित होता है कि सरकारी कर्मियों को वर्तमान में जरूरत पूर्ति के लिए पर्याप्त वेतन मिल रहा है। इसमें वृद्धि का औचित्य नहीं है।

केंद्रीय सरकारी कर्मियों के कॉन्फेडरेशन के अधिकारियों का कहना है कि सरकारी कर्मचारियों को निजी क्षेत्र और सार्वजनिक इकाइयों के बराबर वेतन दिया जाना चाहिए। यह तर्क सही नहीं है। निजी क्षेत्र के कर्मियों की गुणवत्ता बाजार के द्वारा आंकी जाती है। सरकारी कर्मियों का ऐसा कोई आकलन नहीं होता है। सरकारी प्रतिष्ठानों का मूल उद्देश्य होता है जनता की सेवा करना न कि लाभ कमाना। अत: सरकारी कर्मियों के वेतन जनता की आय के बराबर होने चाहिए। मैंने गणना की तो पाया कि 2005 से 2010 के बीच सामान्य श्रमिक के शुद्ध वेतन में महंगाई काटने के बाद 14 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इनकी तुलना में देश के नागरिक की औसत आय में 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। नागरिकों की औसत आय में गरीब तथा अमीर दोनों सम्मिलित होते हैं। अमीरों की आय में तीव्र वृद्धि होने से नागरिक की औसत आय में ज्यादा वृद्धि हुई है। इसी अवधि में केंद्रीय कर्मियों के औसत वेतन में वृद्धि के आंकड़े मुझे उपलब्ध नहीं हैं, परंतु सार्वजनिक इकाइयों के कर्मियों के वेतन में इसी अवधि में 63 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। सरकारी कर्मियों के वेतन में भी इतनी ही वृद्धि हुई होगी। अत: असंगठित कर्मियों के वेतन में 14 प्रतिशत और सरकारी कर्मियों के वेतन में 63 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इस पर भी कर्मियों की जरूरतें पूरी नहीं हो रही हैं। उन्हें और चाहिए।

पांचवें और छठे आयोग से अपेक्षा की गई थी कि सरकारी कर्मियों की जवाबदेही और कार्यकुशलता में सुधार के लिए सुझाव दिए जाएंगे। पांचवें वेतन आयोग ने सुझाव दिया था कि दस वषरें में सरकारी कर्मियों की संख्या में 30 प्रतिशत की कटौती करनी चाहिए। जबकि 20 वषरें में मात्र 10 प्रतिशत की कटौती हो पाई है। दूसरी संस्तुति की गई थी कि समूह '' अधिकारियों के कार्य का मूल्यांकन बाहरी संस्थाओं द्वारा कराया जाना चाहिए। मेरी जानकारी में इसे लागू नहीं किया गया है। छठे वेतन आयोग ने इस दिशा में वेतन के अतिरिक्त कार्य कुशलता का इंसेन्टिव देने मात्र का सुझाव दिया था, लेकिन मेरा अनुभव बताता है कि सरकारी विभागों की कार्य कुशलता में गिरावट ही आई है। तात्पर्य यह कि पिछले वेतन आयोगों द्वारा जो कारगर संस्तुतियां की गई थीं उन्हें सरकार ने लागू नहीं किया है।

देश संकट में है और आम आदमी असंतुष्ट है। जरूरत इस समय सरकारी कर्मियों के भ्रष्टाचार पर रोक लगाने और उनकी कार्यकुशलता में इजाफा लाने की है न कि वेतन बढ़ाने की। पहला सुझाव है कि समूह '' और समूह 'बी' के सरकारी कर्मी से संबद्ध जनता का गुप्त सर्वे डाक द्वारा कराया जाए। किसी समय मैं एक एनजीओ का मूल्यांकन कर रहा था। मैंने इसके सदस्यों को पत्र लिखकर उनका आकलन मांगा। उत्तार से स्पष्ट हुआ कि एनजीओ के अधिकारी सदस्यों से वार्ता ही नहीं करते थे। इस प्रकार का गुप्त सर्वे कराना चाहिए। दूसरा सुझाव है कि समूह '' कर्मियों का किसी स्वतंत्र बाहरी संस्था से मूल्यांकन कराना चाहिए। एनजीओ सेक्टर में सामान्यतया हर पांच या दस वर्ष के बाद किसी स्वतंत्र व्यक्ति या एजेंसी से रिव्यू कराया जाता है। इसे सरकारी कर्मियों पर लागू करना चाहिए। अर्थशास्त्र में कौटिल्य लिखते हैं कि परिवारों की संख्या, उत्पादन का स्तर और सरकार द्वारा वसूले गए टैक्स का स्वतंत्र मूल्यांकन करने में गृहस्थों की नियुक्ति करनी चाहिए। इस सिद्धांत को लागू करना चाहिए। तीसरा सुझाव है कि सरकारी कर्मियों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए एक स्वतंत्र खुफिया संस्थान स्थापित करना चाहिए जो भारत के चीफ जस्टिस अथवा लोकपाल के अधीन और सरकार के दायरे से बाहर हो। कौटिल्य लिखते हैं कि जासूसों के माध्यम से सरकारी अधिकारियों को घूस देने की पेशकश की जानी चाहिए और उन्हें पकड़ना चाहिए। इस संस्था द्वारा यह कार्य कराना चाहिए।


वर्तमान में सरकारी कर्मियों की औसत आय सामान्य श्रमिक की आय से दस गुणा अधिक है। इसमें वृद्धि का कोई औचित्य नहीं है। अत: सातवें वेतन आयोग को वेतन संबंधी संस्तुति देने को नहीं कहना चाहिए। केवल भ्रष्टाचार नियंत्रण और कार्य कुशलता सुधारने के सुझाव देने को कहना चाहिए।


डॉ. भरत झुनझुनवाला,

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