1947 में आजादी के समय देश के आम आदमी
की हालत कमजोर थी। शिक्षा का अभाव था। स्वास्थ सेवाएं नगण्य थीं। ऐसे में सरकार ने
कल्याणकारी सेवाएं को जनता को उपलब्ध कराने का जो निर्णय लिया वह प्रशंसनीय था।
पूरे देश में सरकारी स्कूल और हेल्थ सेंटर खोले गये। इसके बाद साठ के दशक में
सार्वजनिक वितरण प्रणाली को लागू किया गया। अमरीका से मिले गेहूं के वितरण के लिये
फेयर प्राइस शाप की श्रृंखला बनाई गयी। समय क्रम में इंदिरा निवास एवं मनरेगा जैसी
योजनाएं चलाई गयीं। इन तमाम जन कल्याणकारी योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए बड़ी
संख्या में सरकारी कर्मियों की भर्ती कराई गयी जिससे सरकार द्वारा इनके माध्यम से
सेवा की जा सके।
वह तब था। आज परिस्थिति में दो तरह से
मौलिक बदलाव आया है। पहला बदलाव यह हुआ है कि आम आदमी की आर्थिक हालत सुधरी है।
वर्तमान में सामान्य श्रमिक की दिहाड़ी लगभग 200-300 रुपये है। इस रकम से परिवार की
कपड़ा और भोजन दैनिक जरूरतें पूरी की जा सकती हैं। अत: जन कल्याण को सरकारी
मेहरबानी जरूरी नहीं रह गयी है। दूसरी तरफ
सरकारी कर्मियों के वेतन में भारी वृध्दि हुयी है विशेषकर पांचवें वेतन
आयोग के बाद। विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार अधिकतर देशों में सरकारी कर्मियों के
देय वेतन, देश के नागरिक की औसत आय से दोगुना या
इससे कम है। लेकिन भारत में इनकी आय 10 गुना से अधिक है। सरकारी कर्मियों के
प्रारम्भिक वेतन आज लगभग 13,300 रुपय वेतन एवं 10,000 रुपय अन्य सुविधाओं जैसे
एचआरए, मेडिकल, प्राविडेंड फंड, पेंशन आदि यानि लगभग 23,000 रुपए प्रति माह है। यह सरकार द्वारा दिये
जाने वाले वेतन की बात है। आईआई एम बेंगलुरु के प्रो. वैद्यनाथन् के अनुसार सरकारी
कर्मियों को वेतन से चार गुणा अधिक आय भ्रष्टाचार से होती है। इसे जोड़ लिया जाये
तो सरकारी कर्मियों की औसत आय 90,000 रुपये प्रति माह है। सरकारी कर्मियों के
अनुसार यह रकम तीन लोगों के परिवार के लिये पर्याप्त नहीं है। इसमें वृध्दि के
लिये आयोग का गठन किया गया है।
देश के लगभग 60 करोड़ वयस्कों में 3
करोड़ सरकारी अथवा संगठित प्राइवेट सेक्टर में कार्यरत हैं। शेष 57 करोड़ असंगठित
क्षेत्र में जीवन यापन कर रहे हैं। मेरे अनुमान से इनकी औसत मासिक आय लगभग 8,000
रुपये होगी। यदि 90,000 रु. में सरकारी कर्मियों की जरूरत पूरी नहीं हो रही है तो
इन 57 करोड़ नागरिकों की जरूरत 8,000 रु. में पूरी हो ही नहीं सकती है। परन्तु ये
फि रभी जीवित हैं।
जाहिर है कि आज सरकारी कर्मियों को आम
आदमी की तुलना में दस गुना अधिक वेतन मिल रहा है। देश के आम नागरिक की औसत आय से
तुलना की जाए तो भी ऐसी ही तस्वीर बनती
है। 2012 में देश के नागरिक की औसत आय 61,000 रुपये प्रति वर्ष थी। तीन व्यक्तियों
का परिवार माने तो परिवार के लिए यह 15,000 रुपये प्रति माह बैठता है। इससे भी
सरकारी कर्मियों की आय छह गुना है।
मैंने गणना की तो पाया कि 2005 से 2010
के बीच सामान्य श्रमिक के शुध्द वेतन में महंगाई काटने के बाद 14 प्रतिशत की
वृध्दि हुयी है। इनकी तुलना में देश के नागरिक की औसत आय में 40 प्रतिशत की वृध्दि
हुयी है। नागरिक की औसत आय में गरीब तथा अमीर दोनों सम्मिलित होते हैं। अमीरों की
आय में तीव्र वृध्दि होने से नागरिक की औसत आय में यादा वृध्दि हुयी है। इसी अवधि
में केन्द्रीय कर्मियों के औसत वेतन में वृध्दि के आंकड़े मुझे उपलब्ध नहीं हैं।
परन्तु सार्वजनिक इकाइयों के कर्मियों के वेतन में इसी अवधि में 63 प्रतिशत की
वृध्दि हुयी है। सरकारी कर्मियों के वेतन में भी इतनी ही वृध्दि हुई होगी। अत:
असंगठित कर्मियों के वेतन में 14 प्रतिशत एवं सरकारी कर्मियों के वेतन में 63
प्रतिशत की वृध्दि हुयी है। तिस पर
कर्मियों की जरूरतें पूरी नहीं हो रही हैं, उन्हें और चाहिये।
पांचवें एवं छठे आयोग से अपेक्षा की
गयी थी कि सरकारी कर्मियों की जवाबदेही एवं कार्यकुशलता में सुधार के लिये सुझाव
दिये जायेंगे। पांचवें वेतन आयोग ने सुझाव दिया था कि दस वर्षों में सरकारी
कर्मियों की संख्या में 30 प्रतिशत की कटौती करनी चाहिये। इसके सामने 20 वर्षों में मात्र 10 प्रतिशत की कटौती हो
पायी है। दूसरी संस्तुति दी गयी थी कि ग्रुप 'ए'
अधिकारियों
के कार्य का मूल्यांकन बाहरी संस्थाओं के द्वारा कराया जाना चाहिये। मेरी जानकारी
में इसे लागू नहीं किया गया है। छठे वेतन आयोग ने इस दिशा के में वेतन के अतिरिक्त
कार्य कुशलता का इन्सेन्टिव देने मात्र का सुझाव दिया था। लेकिन मेरा अनुभव बताता
है कि सरकारी विभागों की कार्यकुशलता में गिरावट ही आयी है। तात्पर्य यह कि पिछले
वेतन आयोगों द्वारा जो कारगर संस्तुति दी गयी थी उन्हें सरकार के द्वारा लागू नहीं
किया गया है।
देश संकट में है और आम आदमी असंतुष्ट
है। वह देख रहा है कि ग्रुप सी सरकारी कर्मी बाइक पर घूम रहे हैं और पक्का मकान
बना रहे हैं जबकि उसकी स्थिति यथावत है। जरूरत इस समय सरकारी कर्मियों के
भ्रष्टाचार पर रोक लगाने और उनकी कार्य कुशलता में इजाफ ा लाने की है न कि वेतन
बढ़ाने की। पहला सुझाव है कि हर ग्रुप 'ए'
एवं
ग्रुप 'बी' के सरकारी कर्मी से संबध्द जनता का गुप्त सर्वे डाक द्वारा कराया
जाये। किसी समय मैं एक पांच सितारा एनजीओ का मूल्यांकन कर रहा था। मैने उनके
सदस्यों को पत्र लिखकर उनका आकलन मांगा। उत्तरों से स्पष्ट हुआ कि एनजीओ के
अधिकारी सदस्यों से वार्ता ही नहीं करते थे। इस प्रकार का गुप्त सर्वे कराना
चाहिये। दूसरा सुझाव है कि ग्रुप 'ए'
कर्मियों
का किसी स्वतंत्र बाहरी संस्था से मूल्यांकन कराना चाहिये। एनजीओ सेक्टर में
सामान्यत: हर 5 या 10 वर्ष के बाद किसी स्वतंत्र व्यक्ति से रिव्यू कराया जाता है।
इसे सरकारी कर्मियों पर लागू करना चाहिये। अर्थशास्त्र में कौटिल्य लिखते हैं कि ''गृहस्थों की नियुक्ति करनी चाहिये कि
वे परिवारों की संख्या, उत्पादन
का स्तर एवं सरकार द्वारा वसूले गये टैक्स का स्वतंत्र मूल्यांकन करें।'' इस सिध्दान्त को लागू करना चाहिये।
तीसरा सुझाव है कि सरकारी कर्मियों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिये एक
स्वतंत्र खुफि या संस्थान स्थापित करना चाहिये जो कि भारत के चीफ जस्टिस अथवा लोकपाल के आधीन एवं सरकार के दायरे
से बाहर हो। कौटिल्य लिखते हैं कि जासूसों के माध्यम से सरकारी अधिकारियों को घूस
देने की पेशकश की जानी चाहिये और उन्हें ट्रैप करना चाहिये। इस संस्था द्वारा यह
कार्य कराना चाहिये।
वर्तमान में सरकारी कर्मियों की औसत आय
सामान्य श्रमिक की आय से दस गुणा अधिक है। इसमें वृध्दि का कोई औचित्य नहीं है। अत:
सातवें वेतन आयोग को वेतन संबंधी संस्तुति देने को नहीं कहना चाहिये। केवल
भ्रष्टाचार नियंत्रण और कार्य कुशलता सुधारने के सुझाव देने को कहना चाहिये।
कल्याणकारी विभागों के सरकारी कर्मियों
की भर्ती इसलिये की गयी थी कि बदहाल गरीब नागरिकों की ये सेवा कर सकें। अब इनकी
भूमिका सेवक के स्थान पर शोषक की हो गयी है। गरीब पर टैक्स लगाकर इन्हें उंचे वेतन
दिये जा रहे हैं। इसे तत्काल बंद करना चाहिये।
देशबन्धु
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