लैंगिक असमानता के जंगल में भेड़ियों का
यौनिक हिंसा का खेल थमना नहीं जानता। तो भी एक अभिभावक की हैसियत से कोई नहीं
चाहेगा कि उसकी बेटी का ऐसे दरिंदों से वास्ता पड़े।
स्त्री के विरुद्ध होने वाली घृणित
यौनिक हिंसा की ये पराकाष्ठाएं किसी भी अभिभावक को वितृष्णा और असहायता से भर
देंगी। मगर आसाराम पर लगे आरोप या मुंबई में फोटो-पत्रकार के साथ सामूहिक बलात्कार
जैसे घटनाक्रम केवल कमजोर कानून-व्यवस्था और पाखंडी धार्मिकता के संदर्भों में ही
नहीं देखे जाने चाहिए। दरअसल, अभिभावकों की अपनी दोषपूर्ण भूमिका भी इनके लिए कम जिम्मेवार नहीं
है।
स्त्री-सुरक्षा के संदर्भ में सबसे
पहले तो हमें यह समझना चाहिए कि पुरुषत्ववादी कानून-व्यवस्था को राखी बांधते रहने
से लड़कियां सुरक्षित नहीं हो जाती हैं। कठोरतम कानून, बढ़ती पुलिस, कड़े से कड़ा दंड, जूडो-कराटे, महिला आयोग उन्हें हिंसा से नहीं बचा
सकते। अगर सही मायने में लड़कियों को सुरक्षित करना है तो उन्हें ‘जबान’ और ‘विवेक’ देना होगा। इन पर परिवारों में अभिभावकों द्वारा ही, लैंगिक स्वाधीनता को कुचल कर, सबसे प्रभावी रूप से लगाम कसी जाती है।
अपने साढ़े तीन दशक के पुलिस जीवन में
मुझे सैकड़ों अभिभावक अपनी बेटियों के घर से बिना उन्हें खबर किए किसी युवक के साथ
जाने की शिकायत के साथ मिले होंगे। उनके नजरिए से उनकी बेटियों को धोखे से अगवा कर
लिया गया था। पर वे यह समझने और समझाने में असमर्थ होते थे कि जीवन के इतने बड़े
निर्णय में उनकी बेटियों ने उन्हें शरीक क्यों नहीं किया। बेटियों को ‘चुप’ रहना सिखा कर वे उनसे इतने अलग-थलग पड़ चुके थे! ये वही बेटियां हैं, जो बचपन में पैर में कांटा चुभ जाए तो
मां-बाप से सारा दिन उसका बयान करने से नहीं थकती थीं। ऐसा क्यों होता है कि स्कूल
में अध्यापक लड़की का महीनों यौन-शोषण करता है और घर वालों को तभी पता चलता है जब
वह गर्भवती हो जाए। क्या इस घातक संवादहीनता के लिए अभिभावक दोषी नहीं? घर का वातावरण जो लड़की को ‘चुप’ रहना सिखाता है, दोषी नहीं?
पहली गलत नजर, पहला गलत शब्द, पहली गलत हरकत, और क्या लड़की को गुस्से और विरोध से फट
नहीं पड़ना चाहिए?
कहीं
भी, कभी भी, किसी भी संदर्भ में, किसी के भी संसर्ग में, कितने अभिभावक यह सिखाते हैं। बोल कर बदमाशियों को तुरंत नंगा किया
जा सकता है। आज की सामाजिक चेतना की बनावट भी ऐसी है कि अगर बदमाशी सार्वजनिक हो
जाए तो पीड़ित के पक्ष में राज्य और तमाम तबके भी खड़े होते हैं। लड़की का ‘बोलना’ ही आज की परिस्थिति में उसका सबसे कारगर हथियार है। लेकिन परिवारों
में लड़की को ‘चुप’ रहना ही सिखाया जाता है। उसे तमाम महत्त्वपूर्ण विषयों पर बातचीत में
शामिल नहीं किया जाता और विशेषकर यौनिक विषयों पर तो बिल्कुल भी नहीं। लिहाजा, दुराचार के चक्रव्यूह में फंसने पर
अभिमन्यु की तरह परास्त होना ही उसकी नियति हो जाती है। आसाराम प्रसंग की पीड़ित
लड़की इसी प्रक्रिया का शब्दश: उदाहरण है।
हर ‘बड़ा’
आदर
के योग्य नहीं होता। हर दुस्साहस प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता। यहां विवेक की
भूमिका आती है। विवेक भी बातचीत और विमर्श से ही आता है। हर वह परिस्थिति, हर वह आयाम, हर वह खतरा, हर वह उपाय, जो घरेलू और बाहरी दुनिया में लड़की की
सुरक्षा से संबंध रखता है, पूरी तरह उसकी सुरक्षा प्रोफाइल का हिस्सा बनाया जाना चाहिए।
सामाजिक वास्तविकताएं, उनके प्रति हमारे उदासीन रहने से बदलने
नहीं जा रहीं। यौनिक हिंसा का शैतान जब स्त्री के सामने खड़ा हो जाता है तो उस पल न
कानून-व्यवस्था और न राखी-व्यवस्था लड़की के किसी काम की रह जाती हैं। इस शैतान से
सामना ही न हो, इससे उसे उसका विवेक ही बचा सकता है।
मुंबई प्रकरण का यह एक महत्त्वपूर्ण सबक है। परिवार के अलावा सामुदायिक पहल, कार्यस्थल और मीडिया इस ‘विवेक’ को मजबूत करने के अनिवार्य प्लेटफार्म बनने चाहिए।
यह अवसर राज्य, नागरिक समाज, मीडिया के लिए इन जैसे प्रकरणों में
निहित चुनौतियों का उत्तर देने का भी होना चाहिए। यौनिक ही नहीं, लैंगिक चुनौतियों का भी। जाहिर है कि
महज पुरुषत्ववादी या सजावटी उपायों से स्त्रियां सुरक्षित होने नहीं जा रहीं।
न्यायमूर्ति वर्मा समिति की सिफारिशों और उनसे निकले विधायी प्रावधानों ने यौनिक
हिंसा के सारे मसले को केवल कानून-व्यवस्था के ‘मर्दाने’ चश्मे
से देख कर, कड़े कानून और कठोर दंड जैसे उपायों से
नियंत्रित करने का प्रयास किया। पर इन उपायों से स्त्रियों में सुरक्षा की भावना
नहीं पनप सकी। दरअसल, इन
कदमों से संबंधित सरकारी-गैरसरकारी क्षेत्रों में भी समस्या के निराकरण को लेकर
शायद ही विश्वास बना हो।
अब स्त्री-सुरक्षा के सजावटी उपायों की
जमकर छीछालेदर की जानी चाहिए। ये उपाय स्त्री-सुरक्षा का एक भ्रमजाल बुनते हैं।
महिला आयोगों, महिला पुलिस थानों, महिला बसों-ट्रेनों, महिला बैंकों-डाकघरों, महिला शिक्षण संस्थानों आदि का
स्त्री-सुरक्षा के संदर्भ में उतना ही योगदान हो सकता है जितना भैयादूज, राखी, करवा चौथ जैसे त्योहारों का बच गया है। इनकी उपयोगिता मात्र
भावनात्मक रस्म-अदायगी की रह गई है। क्या हमें सजावटी उपायों का महिमा-मंडन बंद
नहीं करना चाहिए?
यौन हिंसा के उपरोक्त प्रकरणों से दो
जीवंत सवाल निकल कर सामने आते हैं। एक प्रभावशाली व्यक्ति के कुकृत्य उजागर होने
के बावजूद उसे सामाजिक वैधानिकता क्यों मिलती रहती है? कौन-सी प्रवृत्तियां और लोग हैं, जो बेशर्मी से बेपरदा हो चुके भेड़ियों
को भी संदेह का लाभ या सम्मान का लबादा देने में जुटे रहते हैं? मुंबई प्रकरण (इससे पहले सोलह दिसंबर
का दिल्ली प्रकरण भी) में शामिल गुनहगारों की पाशविकता की जड़ें कहां हैं? उनके लिए एक अनजान और असुरक्षित लड़की
पर हैवानियत का प्रहार करना इतना सहज क्यों रहा? गांवों-कस्बों से औचक काम-धंधे के सिलसिले में आने वालों के लिए
मुंबई-दिल्ली जैसे महानगरों के सांस्कृतिक परिवेश से परिचय के क्या आयाम होने
चाहिए?
पहली नजर में दोनों प्रश्न असंबद्ध नजर
आ सकते हैं। पर दोनों के पीछे एक ही लैंगिक मनोवृत्ति की भूमिका को देख पाना
मुश्किल नहीं है। दिल्ली, मुंबई के हैवान अपने गांवों, कस्बों में भी वही सब कर रहे होते हैं, जो करते वे अब पकड़े गए हैं। वे इतने दुर्लभ लोग भी नहीं; उनके जैसे बहुतेरे अपने-अपने स्तर पर
स्त्री-उत्पीड़न के ‘सहज’ खेल में लगे होंगे। गांवों, कस्बों में ये बातें प्राय: दबी रह
जाती हैं। यहां तक कि महानगरों में भी ज्यादातर मामले सामने नहीं आ पाते; विशेषकर अगर पीड़ित किसी झुग्गी या चाल
की रिहायशी हो तो उसे चुप कराना और भी आसान होता है। पैसे का प्रलोभन, गुंडा-शक्ति का प्रभाव, लंबी-खर्चीली-थकाऊ कानूनी प्रक्रिया, प्राय: इस काम को हैवानों के पक्ष में
संपन्न कर जाती हैं।
रसूख वाले आरोपियों की लंबे समय तक
चलती रहने वाली वैधानिकता के पीछे भी इन्हीं कारणों का सम्मिलित हाथ होता है। उनके
शिकार प्राय: उनके अपने भक्त ही हुआ करते हैं, जिनका मानसिक अनुकूलन अन्यथा गुरु की ‘कृपा’ से
अभिभूत बने रहने का होता है। लिहाजा, उन्हें दबा पाना और आसान हो जाता है। इसमें समान रूप से अभिभूत अन्य
भक्तों का समूह भी भूमिका अदा करता है। ऊपर से उन भक्त-समूहों को चुनावी या समाजी
भेड़ों के रूप में देखने वाले निहित स्वार्थों के स्वर भी इसमें शामिल हो जाते हैं।
आसाराम के मामले में धीमी कानूनी कार्रवाई पर राजनीतिक दलों, सामाजिक संगठनों और मीडिया समूहों की
दबी-जुबानी इन्हीं प्रभावों का परिणाम है।
भारतीय समाज में स्त्री के विरुद्ध
हिंसा को लेकर हलचल की कमी नहीं है। जरूरत है इसे सही और प्रभावी दिशा देने की। यह
समझ बननी ही चाहिए कि पुरुष पर निर्भरता के रास्ते स्त्री को सुरक्षित नहीं बनाया
जा सकता। स्त्री विरोधी हिंसा से मुक्ति का रास्ता स्त्री की स्वाधीनता से होकर ही
जाएगा। लैंगिक स्वाधीनता के मुख्य तत्त्व होंगे: संपत्ति और अवसरों में समानता; घर-समाज-कार्यस्थल पर निर्णय
प्रक्रियाओं में स्त्री की बराबर की भागीदारी; सार्वभौमिक यौन-शिक्षा की अनिवार्यता; कानून-व्यवस्था में लगे तमाम राजकर्मियों, विशेषकर पुलिस और न्यायिक अधिकारियों
का हर रूप में (व्यक्तिगत, सामाजिक, पेशेवर)
स्त्री के प्रति संवेदनशील होने की पूर्व-शर्त; महानगरीय जीवन में गांवों-कस्बों से किसी भी स्तर पर औचक प्रवेश करने
वालों के लिए अनिवार्य ‘परिचय
कार्यशाला’, और एक ऐसी कानूनी प्रक्रिया जिसमें
पीड़ित को न्याय के दरवाजों (थाना, कचहरी, क्षतिपूर्ति
आदि) पर धक्के न खाने पड़ें, बल्कि न्याय के ये आयाम स्वयं पीड़ित के दरवाजे पर चल कर आएं और
समयबद्धता की जवाबदेही से बंधे हों।
दरअसल, अपराध न्याय-व्यवस्था की एजेंसियों की पेशेवर कार्यकुशलता के दम पर
इसे संभव नहीं किया जा सकता। लैंगिक सोच के स्तर पर वहां भी आसारामी तर्क हावी हो
जाते हैं। मुंबई पुलिस आयुक्त ने एक टीवी बहस में मुंबई बलात्कार कांड की पीड़ित
लड़की की यौनिक असुरक्षा के लिए उसकी लैंगिक स्वाधीनता को जिम्मेदार ठहराया। उनकी
नजर में लड़की का पुरुष-मित्र के साथ होना ही उस पर हुई यौनिक हिंसा का कारण है।
प्रतिप्रश्न बनता है कि अगर लड़की अपने भाई, पिता या सहकर्मी के साथ होती तो क्या शिकार होने से बच जाती? आसाराम ने दिल्ली में सोलह दिसंबर के
बलात्कार कांड की शिकार बनी लड़की की इसलिए भर्त्सना की थी कि उसने बलात्कारियों के
हाथ में राखी बांध कर उन्हें भाई क्यों नहीं बना लिया। आसाराम का यह तर्क और
लैंगिक स्वाधीनता को कोसता पुलिस आयुक्त का तर्क एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
इसीलिए सबसे बढ़ कर, राज्य के लिए नीति और योजना के स्तरों
पर लैंगिक समानता का सिद्धांत लागू करना अनिवार्य हो, और परिवार और समाज भी स्त्री की यौनिक
पवित्रता की मरीचिका का पीछा करना छोड़ उसके सशक्तीकरण पर स्वयं को केंद्रित करें।
अनुभवी प्रतिबद्ध समाजकर्मियों का- पेशेवर न्यायविदों-नौकरशाहों-राजनेताओं का
नहीं- एक अधिकारप्राप्त स्वायत्त प्राधिकरण इस जटिल और बहुस्तरीय सामाजिक, कानूनी, विधायी, प्रशासनिक
प्रक्रिया की निगरानी और मार्गदर्शन करे।
जनसत्ता
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