राजनीति
के अपराधीकरण के खिलाफ जारी अभियान अपने निर्णायक मोड़ पर है, लेकिन
इसे अभी खत्म नहीं माना जा सकता। तब तो और नहीं, जब हमारे संसदीय
लोकतंत्र की नैतिकता में लगातार गिरावट की चिंता स्पष्ट है और इस पर सार्वजनिक तौर
पर चर्चा भी हो रही है। इस दिशा में सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला 10
जुलाई, 2013 को आया, जिसमें देश की
सबसे बड़ी अदालत ने जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8
(4) को
निरस्त कर दिया। इसके तहत किसी भी मामले में दोषी और कम से कम दो साल की सजा पाए
सांसद या विधायक की सदस्यता खत्म हो जाएगी। साथ ही, वह छह साल तक
चुनाव लड़ने के अयोग्य होगा। इस फैसले के प्रभाव को खत्म करने के लिए केंद्र सरकार
एक अध्यादेश लेकर आई थी, पर उसे भी वापस लेना पड़ा। यह इस बात
का संकेत है कि जनाक्रोश को नजर अंदाज करने का बहाना करने वाली संस्थाओं ने सबक
सीखना शुरू कर दिया है। अदालत के हालिया फैसलों की मीडिया और नागरिक समूहों ने भी
यह कहते हुए सराहना की है कि राजनीति से अपराधियों को बाहर रखने में ये अग्रणी
भूमिका निभाएंगे।
हालांकि
इन फैसलों पर राजनीतिक वर्ग की प्रतिक्रिया बेहद सधी हुई थी; वे
नहीं चाहते कि उन्हें अपराधियों के समर्थक के तौर पर देखा जाए। लेकिन वे यह नहीं
मानते कि संसद स्वयं में संप्रभु न होकर देश के लोकतांत्रिक बुनियाद का एक खंभा भर
है, जो संविधान द्वारा चालित होता है। वस्तुतः देश की वास्तविक संप्रभुता
देश के नागरिकों को संविधान के जरिये प्रदान की गई है। और देश में चुनाव सुधारों
की दिशा में उठे कदम उस संविधान की सर्वोच्चता को ही साबित करते हैं, जो
जनता को सर्वोच्च मानता है।
इसी
संदर्भ में पब्लिक इंटरेस्ट फाउंडेशन (पीआईएफ) और नागरिक समाज से जुड़ी अन्य
संस्थाओं ने 2011 में एक जनहित याचिका दाखिल करके चार प्रमुख सिफारिशें
कीं। पहला, गंभीर आपराधिक मामलों में आरोपी संसद और राज्य
विधानमंडलों के चुनाव न लड़ सकें, यह सुनिश्चित करने के लिए दिशानिर्देश
जारी किए जाएं। दूसरा, जघन्य मामलों में आरोपी जनप्रतिनिधियों के
मुकदमों की सुनवाई अधिकतम छह महीने में पूरी हो जाए। तीसरा, गंभीर मामलों के
आरोपियों को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए कानून बनाने के लिए सरकार को निर्देश
दिया जाए। और चौथा, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की
धारा 8 (4) के प्रावधानों को असांविधानिक घोषित किया जाए।
सर्वोच्च न्यायालय ने शुरू की तीन सिफारिशों पर तो अभी कुछ कहा नहीं है, पर
आखिरी सिफारिश उसने स्वीकार कर ली है।
ज्यादातर
मामलों में दोषसिद्धि में देरी की मुख्य वजह न्यायालयों में भारी संख्या में
मुकदमों का लंबित होना है। इसके अलावा आरोपी भी न्यायिक प्रक्रिया में देरी के लिए
सुनियोजित कोशिश करते हैं। इसी वजह से अपराध कानून, 2013 में संशोधन से
संबंधित न्यायमूर्ति वर्मा समिति की रिपोर्ट में यह सिफारिश की गई थी कि जन
प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 (1) (ए) में संशोधन
कर उसमें किए जाने वाले अपराधों को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), 1860 के
तहत दंडनीय घोषित किया जाए।
जघन्य
अपराधों के निर्धारण के लिए इस सिफारिश को तत्काल प्रभाव से स्वीकार करने की जरूरत
है, जिससे पांच साल या उससे अधिक के कैद की सजा वाले प्रावधानों में
न्यायालय द्वारा आरोप तय किए जाने की स्थिति में उम्मीदवार को अयोग्य घोषित किया
जा सके। इसके लिए जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8
(1), 8 (2) और 8 (3) में संशोधन की जरूरत होगी। गंभीर और जघन्य
अपराधों में आरोपी उम्मीदवारों के मुकदमों को समयसीमा के भीतर निपटाने के लिए
विशेष फास्ट ट्रैक अदालतें चलाने की जरूरत है। इससे फैसले का प्रभावी क्रियान्वयन
संभव होगा। इस तरह की अदालतें उन लोगों के लिए सबक होंगी, जिनके खिलाफ
आपराधिक मामले अदालतों में लंबित हैं। जाहिर है, मुकदमों के
त्वरित गति से निपटने पर ऐसे लोगों के चुनावी मैदान में उतरने की संभावनाएं ध्वस्त
हो जाएंगी।
ये
फास्ट ट्रैक अदालतें जनप्रतिनिधियों के मुकदमों की सुनवाई के मामले में सक्षम होनी
चाहिए, जिससे कि संसद और राज्य विधानमंडलों में अनिश्चय की स्थिति खत्म हो।
मीडिया में इस तरह की खबरें आई हैं कि सरकार उस जनहित याचिका का समर्थन कर सकती है,
जिसमें
चुनावी राजनीति में अपराधियों को रोकने के प्रयास के तहत फास्ट ट्रैक अदालतों के
गठन का अनुरोध किया गया है। इस याचिका की पिछली सुनवाई विगत 19
अगस्त को हुई थी, जिसमें न्यायालय ने कानून के जरिये राजनीति को
अपराधियों से मुक्त रखने के प्रयास के रूप में केंद्र सरकार से ऐसे लोगों को चुनाव
लड़ने से रोकने पर विचार करने के लिए कहा था, जिन पर हत्या और
बलात्कार जैसे जघन्य आरोप हैं। यही सिफारिश चुनाव आयोग ने भी की है और अपनी 170वीं
रिपोर्ट में विधि आयोग ने भी। इस मामले में आज फिर सुनवाई है।
आज
देश के लोग लोकतांत्रिक संस्थाओं में नैतिकता और ईमानदारी की मांग कर रहे हैं। इसे
देखते हुए विवश सरकार ने दागी जनप्रतनिधियों को बचाने से संबंधित अध्यादेश
केंद्रीय कैबिनेट की मंजूरी के बावजूद वापस ले लिया। यह कदम भारतीय लोकतंत्र के
संस्थानों में ज्यादा पारदर्शिता, जवाबदेही और लोकतंत्रीकरण हासिल करने
की दिशा में एक नई शुरुआत है। पर इस अभियान की गति को बनाए रखना बहुत जरूरी है,
क्योंकि
अगर 2014 से पहले यह प्रभावी नहीं हुआ, तो आने वाले
वर्षों में इसका फायदा नहीं मिल सकेगा। इसकी वजह यह है कि अगला लोकसभा चुनाव पांच
साल बाद ही होगा।
नृपेंद्र
मिश्र
साभारः
अमर उजाला
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