दागी नेताओं को अयोग्य ठहराने और
नकारात्मक मतदान को वैधता देने वाले सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला, एक अरसे से लंबित चुनाव सुधार की जरूरत
को बल प्रदान करने वाले हैं। इन फैसलों पर देश में व्यापक सकारात्मक प्रतिक्रिया
का आना, संकेत है कि चुनाव सुधार के पक्ष में
जनमत तैयार हो रहा है। सुधार को लेकर चुनाव आयोग पहले से ही कोशिशें करता रहा है, लेकिन एक स्वस्थ लोकतंत्र में बदलाव और
सुधार की जो प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए वैसा कुछ फिलहाल नहीं दिख रहा। जो समाधान
लोकतंत्र के सर्वोच्च निकाय संसद से निकलना चाहिए वो न्यायालय से निकल रहा है।
यह विडंबना ही है कि लोकतंत्र की
बेहतरी के लिए जनता को अपने जनप्रतिनिधियों से नाउम्मीदी ही हाथ लगी है। सर्वोच्च
न्यायालय के ताजा फैसले और जनदबाव को देखते हुए अब यह स्पष्ट है कि चुनाव सुधार को
राजनीतिक दलों को जितना टालना था टाल लिया। इसे और अधिक रोकना अब संभव नहीं। किसी
लोकतंत्र को परिवक्व होने में करीब छह दशक बहुत कम नहीं होते और न ही बहुत ज्यादा, लेकिन इतने सालों बाद भी पारदर्शी
चुनाव के बुनियादी सिद्धांतों का अमल में न आ पाना वस्तुत: संसदीय प्रणाली की
असफलता ही कही जाएगी। विगत 12 वर्षो से नकारात्मक मतदान का अधिकार देने की मांग हो
रही थी। राइट टु रिजेक्ट को लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं की तरफ से सरकार पर दबाव
डाला जाता रहा है। भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम की अगुआई करने वाले अन्ना हजारे पहले
ही इसे मुद्दा बनाने की घोषणा कर चुके हैं। हालांकि समग्र चुनाव सुधार के बिना ये
तदर्थ उपाय पहले जैसे ही नाकाफी साबित होंगे।
ऐसा नहीं है कि यह कोई नई बहस है।
नब्बे के दशक से इसे लेकर आम जनता के नजरिये में बदलाव आया है और अब जनता सरकार से
जवाबदेही चाहती है। सत्तर के दशक से ही चुनाव सुधार की जरूरत महसूस होने लगी थी।
चुनाव आयोग ने 1970 में पहली बार सरकार को चुनाव सुधार का अपना प्रस्ताव भेजा।
आयोग ने दूसरा और तीसरा प्रस्ताव 1977 और 1982 में भेजा था। इसके अलावा कुछ राजनीतिक
दलों ने भी सरकार को समय-समय पर इस संबंध में प्रस्ताव दिए थे। लोकनायक जयप्रकाश
नारायण ने इस संबंध में एक कमेटी भी गठित की थी, लेकिन ये सारे प्रस्ताव सिर्फ सुझाव तक सीमित रह गए और चुनाव आयोग की
पहलकदमी पर कुछ सुधार की कोशिशें भी हुईं। 1990 में पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री
दिनेश गोस्वामी समिति की रिपोर्ट आई। 1992 में तत्कालीन चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने
गोस्वामी समिति की रिपोर्ट लागू करने के लिए नरसिम्हा सरकार को पत्र भी लिखा, लेकिन इन प्रस्तावों और आयोग के
पत्रचारों पर किसी ठोस पहलकदमी का समय कभी नहीं आया। जब भी दबाव बढ़ा, सरकार ने कुछ तात्कालिक संशोधनों को
पारित कर अपना पिंड छुड़ा लिया। इस लंबे अंतराल में सरकारों ने चुनाव सुधार के
कार्यक्रम को तब तक स्थगित रखा, जब तक उन्हें तसल्ली नहीं हो गई कि इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ने
जा रहा। इसी कड़ी में 1989 में जनप्रतिनिधित्व कानून-1951 में संशोधन कर
इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम के इस्तेमाल का रास्ता साफ हुआ। अस्सी के दशक
में ही मतदान की उम्र 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई और दलबदल कानून को कठोर
बनाया गया।
नब्बे के दशक में मतदान के लिए फोटो
पहचान पत्र अनिवार्य कर दिया गया। यह भी तब हो पाया जब तत्कालीन चुनाव आयुक्त टीएन
शेषन अड़ गए और कई राज्यों में पहचान पत्र बनने तक चुनावों को टाल दिया। साथ ही
सरकार ने सुधार के उलट कुछ ऐसे संशोधन भी किए जो चुनावी पारदर्शिता और राजनीतिक
भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाले थे। उदाहरण के लिए जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा
17(1) में सरकार ने संशोधन कर सगे-संबंधियों, परिचितों और कार्यकर्ताओं द्वारा चुनाव प्रचार में किए गए खर्च को
प्रत्याशी के खाते से अलग कर दिया। सभी जानते हैं कि निर्धारित होने के बावजूद आज
प्रत्येक प्रत्याशी का चुनावी खर्च कल्पनातीत है। चुनाव सुधार को लेकर संजीदगी का
पुट पूर्व चुनाव आयुक्त टीएन शेषन के कार्यकाल के दौरान आया। मसलन, चुनाव के दौरान कड़ी आचार संहिता लागू
करना, उम्मीदवारों की संपत्ति का लेखा-जोखा, चुनावी खर्च और प्रचार की निगरानी आदि।
1989 में ही चुनाव आयोग ने सरकार को सुझाया कि दागी नेताओं को चुनाव लड़ने से
अयोग्य करार दिया जाए। 2001 में नकारात्मक मतदान के अधिकार का प्रस्ताव भी दिया, लेकिन सरकार की तरफ से कोई जवाब नहीं
आया। 2004 में तत्कालीन चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति ने सुझाव दिया कि
प्रत्याशियों को खारिज करने का विकल्प इवीएम में शामिल हो। बावजूद इसके जब कोई
समाधान नहीं दिखा तो भ्रष्टाचार विरोधी अभियान चलाने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं ने
दबाव बढ़ाना शुरू किया और पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ने सर्वोच्च न्यायालय
में याचिका दायर कर दी जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने ताजा फैसला सुनाया। चुनाव
नियमावली (1961) की धारा 49(ओ) के तहत मतदाता नकारात्मक वोटिंग पहले भी कर सकते थे, लेकिन तब मतदान की निजता गुप्त नहीं
होती थी। चुनाव सुधार को लेकर अब तक की सभी सरकारों का नजरिया उदासीन रहा है।
जब गोस्वामी समिति की रिपोर्ट आई तो
केंद्र में मोर्चा सरकार खुद संकट में थी। नरसिम्हा राव सरकार ने भी इसकी सुध नहीं
ली। 1993 में वोहरा समिति और फिर 1999 में न्यायमूर्ति बी.जीवन रेड्डी की
अध्यक्षता वाली समिति की सिफारिशें आईं। राजग सरकार ने इन्हें ठंडे बस्ते में ही
रहने देने में भलाई समझी। 2001 में संविधान समीक्षा के लिए गठित आयोग ने भी संशोधन
का सुझाव दिया था। 2004 में चुनाव आयोग ने नए सिरे से विस्तृत प्रस्ताव भेजा, लेकिन संप्रग सरकार के दोनों कार्यकाल
दौरान मनमोहन सरकार मौन रही। अब जब न्यायालय का हस्तक्षेप हुआ है तो सरकार चेती है, लेकिन सरकार ने एक सही कदम को उलटने की
कोशिश की जिस पर अब लीपापोती की कोशिश हो रही है। नकारात्मक मतदान पर अदालती फैसले
से आने वाले समय में जो संवैधानिक दिक्कतें पेश होने वाली हैं, उसका समाधान संसद में नया विधेयक लाकर
ही किया जा सकता है। यदि किसी चुनाव क्षेत्र विशेष में सामूहिक नकारात्मक मतदान
पड़े तो चुनाव रद होना चाहिए या नहीं, इसका फैसला कैसे होगा, क्योंकि अदालती आदेश में इसका उल्लेख नहीं है। इसी तरह दागी नेताओं
को अयोग्य ठहराने वाले प्रस्ताव पर अदालती फैसला आने के बावजूद इसे उलटने के लिए
अध्यादेश लाया गया, हालांकि
इसे अब वापस ले लिया गया। अब जबकि भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरे देश की एक आवाज है और
इससे निपटने के उपाय करने का दबाव बढ़ रहा है तो चुनाव सुधार अवश्यंभावी हो गया
है।
संदीप राउजी(Azadi Me)
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