बिजली की
बढ़ती जरूरत को पूरा करना जिस तरह दिनोंदिन मुश्किल होता जा रहा है, उसमें यह सवाल स्वाभाविक है कि
सीमित परंपरागत स्रोतों के बूते इस चुनौती से पार पाना कितना संभव होगा। लेकिन
ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों की प्रचुर उपलब्धता के बावजूद छिटपुट और छोटे स्तर पर
की जाने वाली कवायद के अलावा शायद ही कभी इसके व्यापक सदुपयोग की कोई ठोस पहल हुई
हो। इससे संबंधित तकनीकी पर भारी खर्च इसकी एक वजह रही है। लेकिन समय के साथ
दुनिया भर में सौर ऊर्जा तकनीक के विकास पर लगातार काम हुआ है और इसके फलस्वरूप
संयंत्र पर आने वाले खर्च घटाना संभव हो सका है। भारत में इसके अधिकतर राज्यों की
जलवायु को देखते हुए सौर ऊर्जा की अपार संभावनाएं हैं। पर इस मामले में हम अग्रणी
होने के बजाय फिसड्डी ही रहे हैं। अब देर से सही, सरकार ने सौर ऊर्जा की एक वृहद
परियोजना तैयार की है, जो अमल
में आती है तो इस दिशा में संभवत: दुनिया भर में सबसे बड़ी परियोजना होगी। सरकार
संचालित भेल यानी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल लिमिटेड के तहत जयपुर के पास करीब तेईस
हजार एकड़ के दायरे में चार हजार मेगावाट की क्षमता वाला प्रस्तावित सौर ऊर्जा
संयंत्र तकनीक के लिहाज से और आकार में दुनिया में सबसे बड़ा संयंत्र होगा।
गैरपरंपरागत
एवं अक्षय ऊर्जा मंत्रालय के मुताबिक भारत की कुल आबादी के चालीस फीसद हिस्से की
पहुंच परंपरागत ऊर्जा संसाधनों तक नहीं है। जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय सौर मिशन की
शुरुआत के बाद पिछले तीन साल में सौर ऊर्जा उत्पादन की क्षमता में सोलह सौ पचासी
मेगावाट की वृद्धि हुई है, जबकि
लक्ष्य एक हजार मेगावाट का ही था। इससे उत्साहित होकर अब सरकार ने 2017 तक इसे दस हजार मेगावाट तक
बढ़ाने का फैसला किया है। फिलहाल देश की कुल ऊर्जा खपत में सौर ऊर्जा की भागीदारी
सिर्फ आधा फीसद है। अगर तत्परता से काम हुआ तो 2022 में मिशन के तीसरे चरण के पूरा होने तक यह आंकड़ा पांच से
सात फीसद तक पहुंच सकता है। कुछ साल पहले सौर ऊर्जा की एक यूनिट के लिए अठारह रुपए
चुकाना पड़ता था, आज यह कीमत घट कर साढ़े आठ रुपए
तक आ गई है। सौर ऊर्जा की लागत घटाने के दुनिया भर में हो रहे प्रयोग यह उम्मीद
जगाते हैं कि भविष्य में उपभोक्ताओं के लिए इसकी कीमत और कम की जा सकेगी।
पिछले
साल अगस्त में ऊर्जा से संबंधित संसदीय समिति ने लोकसभा में पेश अपनी रिपोर्ट में
सरकार के ढीले रवैए की आलोचना करते हुए कहा था कि देश में अक्षय ऊर्जा की अपार
संभावनाएं हैं और इससे पौने दो लाख मेगावाट से ज्यादा बिजली पैदा की जा सकती है।
भारत में अक्षय ऊर्जा के स्रोतों की उपलब्धता इतनी है कि अगर इनका समुचित दोहन
किया जाए तो बिजली की मांग के एक बड़े हिस्से को इनसे पूरा किया जा सकता है। इससे
कोयला, प्राकृतिक गैस और पेट्रोलियम पर
हमारी निर्भरता घटेगी और प्रदूषण में भी काफी कमी आएगी। जर्मनी में आज बिजली का एक
बड़ा हिस्सा सौर ऊर्जा से प्राप्त होता है और यह लाखों लोगों के रोजगार का भी जरिया
बन चुकी है। इसी तरह, स्पेन और चीन जैसे कई देशों ने
सौर और पवन ऊर्जा को विशेष महत्त्व देने के लिए कानून बना कर जनोपयोगी सेवाएं देने
वाली कंपनियों के लिए अक्षय ऊर्जा की खरीद अनिवार्य कर दी। दूसरी ओर, भारत में अकेले दूरसंचार टॉवर हर साल लगभग पांच हजार करोड़
रुपए का तेल जला रहे हैं। जाहिर है, अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में
हमारी प्रगति निहायत असंतोषजक रही है।
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