शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

रूस जरूरी, पर चीन से सावधान

रूस तो भारत का एक बेहतर रणनीति सहयोगी रहा है और हर मुश्किल में उसने दुनिया की परवाह  किए बगैर भारत का साथ दिया है, लेकिन चीन का चरित्र संदिग्ध है। वह एक तरफ  भारत के साथ अपने कारोबार को विस्तार देने के लिए मित्रता का हाथ बढ़ाता है और दूसरी तरफ  पाकिस्तान के नाभिकीय कार्यक्रमों को विस्तार देकर दक्षिण एशिया की शांति को खतरे में डाल रहे हैं और भारतीय सुरक्षा के समक्ष बेहद गम्भीर चुनौती पैदा कर रहा है।  जो भी हो, चीन के साथ भारत को बेहद रणनीतिक होने की जरूरत है।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 20 से 24 अक्टूबर तक रूस और चीन की यात्रा पर रहेंगे। अगले वर्ष 2014 में होने जा रहे आम चुनाव से पहले यह संभवत: उनकी अंतिम विदेश यात्रा होगी। इन दोनों देशों का भारत के लिए विशेष रणनीतिक महत्व है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह रूसी फेडरेशन के साथ भारत की विशेष एवं प्राथमिकता वाली रणनीतिक साझीदारी के अतिरिक्त अन्य मुद्दों पर भी बातचीत करेंगे जबकि अगले चरण में बीजिंग पहुंचकर दोनों देशों के बीच साझीदारी मजबूत करने के उद्देश्य से द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक मुद्दों पर बातचीत करेंगे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की इस यात्रा से एक तरफ 'रिक' की व्यूहरचना को मजबूत करने की उम्मीद जगती है। लेकिन चीन लगातार ऐसी गतिविधियां सम्पन्न कर रहा है जो भारत के रक्षा हितों के प्रतिकूल हैं, इसलिए यह सवाल भी उठता है कि क्या मनमोहन सिंह चीन जाकर ऐसा कुछ कर पाएंगे जिससे कम से कम चीन के साथ भारत के सम्बंधों की प्रकृति स्पष्ट हो सके?

प्रधानमंत्री की इस यात्रा के दौरान व्यापार, व्यवसाय और ऊर्जा क्षेत्र में कई प्रमुख समझौतों पर हस्ताक्षर होने की संभावना है। पहले चरण में वे 20 से 22 अक्टूबर तक रूस में परमाणु सहयोग, व्यापार और रक्षा जैसे महत्वपूर्ण मामलों पर वार्ता करेंगे, तत्पश्चात 22 अक्टूबर को वे मास्को से बीजिंग के लिए रवाना होंगे जहां वह भारत में सीमापार से आने वाली नदियों, व्यापार घाटे और सीमा पर हुई घटनाओं से जुड़ी चिंता पर बातचीत की उम्मीद है। हाल में ही मास्को में संपन्न भारत-रूस अंतरसरकारी आयोग की बैठक के बाद संकेत हैं कि दोनों देशों ने परमाणु दायित्व मामले के सम्बंध में प्रगति की है जो कुडनकुलम परमाणु बिजली परियोजना (केएनपीपी) की तीसरी और चौथी इकाई के लिये रूसी रियेक्टर की आपूर्ति अनुबंध के लिए महत्वपूर्ण है। समझा जाता है कि सिंह की यात्रा से पहले केएनपीपी की तीसरी और चौथी इकाई के लिए प्रौद्योगिकी-वाणियिक समझौते को अंतिम स्वरूप देने के लिए बातचीत चल रही है और उम्मीद है कि दोनों पक्षों के बीच वार्ता के बाद इस पर समझौता हो जाएगा। उल्लेखनीय है कि भारत के परमाणु क्षतिपूर्ति संबंधी नागरिक उत्तरादायित्व (सीएनएलडी) अधिनियम, 2010 और अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय सिध्दांतों के अनुरूप बनाने की कोशिश हो रही है। अन्य महत्वपूर्ण मामलों में दूरसंचार क्षेत्र में रूसी निवेश शामिल होगा क्योंकि रूस की प्रमुख कंपनी सिस्तेमा ने पिछले सप्ताह स्पेक्ट्रम नीलामी के संबंध में दूरसंचार नियामक ट्राइ के सुझावों पर यह कहते हुए नाखुशी जाहिर की थी इससे अस्पष्टता और नीतिगत अनिश्चितता पैदा हुई है जिससे निवेश योजनाओं पर असर पड़ रहा है। सम्भव है कि प्रधानमंत्री इस सम्बंध में भी रूसी नेतृत्व का आश्वस्त कराएंगे।

चीन यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री द्वारा अपने चीनी समकक्ष के साथ प्रमुख द्विपक्षीय और क्षेत्रीय मुद्दों पर बातचीत होने की संभावना है, जिनमें सीमा-पार की नदियों के मामले, व्यापार घाटा कम करने के लिए औद्योगिक पार्कों के जरिए चीनी निवेश बढ़ाने के तरीके और सीमा पर हुई घटनाएं शामिल होंगी। यह भी संभावना है कि वीजा प्रणाली को आसान बनाने के लिए समझौते तक पहुंचने की कोशिश हो। चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा बहुत अधिक होने के कारण भारत चीन पर और अधिक उत्पादों के आयात और बेहतर बाजार पहुंच के लिए दबाव डाल सकता है। आधिकारिक आंकड़े के मुताबिक वित्त वर्ष 2012-13 में भारत का चीन के साथ व्यापार घाटा रिकार्ड 40.78 अरब डालर है जो 2011-12 में 39.4 अरब डालर और 2010-11 में 27.95 अरब डालर रहा था। यही नहीं, पांच रायों- उत्तर प्रदेश, गुजरात, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक, में चीनी व्यावसायिक पार्क स्थापित करने का प्रस्ताव है जो विशेष आर्थिक क्षेत्र की तरह काम करेगा। लेकिन क्या ब्रह्मपुत्र पर तीन बांध बनाने सम्बंधी चीनी कदम पर कोई ठोस बातचीत होगी। चीनी सेनाओं द्वारा बार-बार भारतीय सीमा में प्रवेश करने की जो घटनाएं हुई हैं, क्या प्रधानमंत्री उस विषय पर दमदार तरीके से भारत का पक्ष रख पाएंगे? चीन ने पाकिस्तान को जो दो परमाणु रिएक्टर्स देने सम्बंधी डील की है और यह भारत की सुरक्षा के लिए बेहद खतरनाक है, क्या प्रधानमंत्री इस विषय पर चीन को पीछे हटने के लिए राजी कर पाएंगे? प्रधानमंत्री का यह मानकर चीन से बात करनी चाहिए कि हम सिर्फ बाजार और सेल्समैन ही नहीं हैं जो सिर्फ मुनाफे की संस्कृति से चलते हैं बल्कि एक राष्ट्र हैं। यदि इन प्रश्नों के उत्तर नकारात्मक मिलते हैं, तो क्या इन यात्राओं को केवल एक व्यवसायी की यात्राओं के रूप देखा जाना चाहिए या एक देश के राजनीतिक नेता की यात्रा के रूप में?

गौर से देखें तो इस समय चीनी गतिविधियां उपमहाद्वीप में भारत को घेरने के प्रयत्नों से जुड़ी हैं। चीन आज भारत के पड़ोसी देशों के साथ अपनी 'रणनीतिक साझेदारी' को अंजाम देने के वृहत्तर प्रयासों में लगा हुआ है। वह धन और हथियार देकर भारत के पड़ोसी देशों में पैठ बनाता जा रहा है। भले ही यह सिध्द न हो पाया हो कि माओवादियों को हथियार चीन ही मुहैया करा रहा है लेकिन अब तक कई ऐसी खबरें आ चुकी हैं कि उसके युन्नान प्रांत में हथियारों का बहुत बड़ा कालाबाजार है और माओवादियों के पास उपलब्ध हथियारों का सम्बंध बहुत हद तक यहीं बनने वाले हथियारों से है। भारत को रोकने के उद्देश्य से ही चीन पाकिस्तान को परमाणु बम का ब्लू प्रिंट मुहैया कराया, उसे मिसाइल तकनीक की और पारम्परिक हथियार भी। अमेरिकी परमाणु वैज्ञानिकों थॉमस रीड और डैनी स्टिलमैन की पुस्तक 'न्यूक्लियर एक्सप्रेस में स्पष्ट खुलासा किया गया है कि चीन ने 26 मई, 1990 को अपने लोपनोर परीक्षण स्थल पर पाकिस्तान के लिए परमाणु परीक्षण किया था। परमाणु शक्ति से सम्पन्न होने के बाद पाकिस्तान भारत की सुरक्षा के लिए एक बड़ा खतरा बन गया है। ताजा खबर यह है कि चीन पाकिस्तान के साथ परमाणु डील के तहत दो और परमाणु संयंत्र देने जा रहा है। इस डील के तहत चीन स्वदेश निर्मित 1100 मेटगावॉट न्यूक्लियर रिएक्टर्स की शृंखला 'एसीपी 1000' को पहली बार किसी दूसरे देश (पाकिस्तान) को बेच रहा है। इस परियोजना के तहत 9.6 अरब डॉलर (लगभग 49,404 करोड़ रुपए) की लागत से कराची के नजदीक केएएनएनयूपी 2 और 3 संयंत्र स्थापित किए जाएंगे। इस रिपोर्ट के आने के बाद से कि चाइना नेशनल न्यूक्लियर कार्पोरेशन लि. ने पाकिस्तान सरकार के साथ वाणियक अनुबंध पर हस्ताक्षर कर दिए हैं, भारत ने उच्च स्तरीय आधिकारिक बैठकों के दौरान चीन के सामने यह मुद्दा उठाया। भारत ने चीन के समक्ष यह दलील भी रखी है कि यह करार परमाणु अप्रसार देशों के समूह और परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के सदस्य के तौर पर चीन की अंतरराष्ट्रीय प्रतिबध्दताओं के विपरीत है। भारत ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि चीन द्वारा पाकिस्तान को परमाणु सहयोग मजबूत करने से इसका असर भारत की सुरक्षा पर पड़ेगा। इसका कारण यह है कि पाकिस्तान अपने असैन्य कार्यम को सैन्य कार्यम से अलग रखने को लेकर प्रतिबध्द नहीं है। लेकिन इसके विपरीत चीन यह दलील दे रहा है कि उसका परमाणु सहयोग चीन-पाक परमाणु सहयोग समझौते के तहत ही आता है। एक अहम् प्रश्न यह है कि क्या उस स्थिति में भी जब पाकिस्तान सैन्य और असैन्य परमाणु कार्यम को अलग-अलग रखने के लिए अपनी प्रतिबध्दता न प्रकट कर रहा हो, तब भी चीन द्वारा परमाणु रिएक्टर प्रदान करना एनपीटी के अनुच्छेद 6 का सीधा-सीधा उल्लंघन नहीं है। हालांकि एनएसजी गाइडलाइंस किसी भी सप्लायर देश को यह अधिकार प्रदान कर देती है कि वह उन देशों को नाभिकीय प्रौद्योगिकी और नाभिकीय ईंधन बेच सकता है जो अपना परमाणु कार्यम आईएईए सुरक्षा उपायों के तहत चला रहे हैं (पांच नाभिकीय शक्तियों को छोड़कर)। लेकिन क्या पाकिस्तान आईएईए सुरक्षा उपायों के तहत अपना परमाणु कार्यम चला रहा है? वैदेशिक या रक्षा मामलों के जानकार इस बात से परिचित होंगे कि पाकिस्तान नाभिकीय हथियार सम्पन्न 'नॉन-एनपीटी' देश है और पूरी तरह से सेफगॉर्र्ड्स सम्बंधी शर्तों व नियमों का अनुपालन नहीं करता है।

बहरहाल रूस तो भारत का एक बेहतर रणनीति सहयोगी रहा है और हर मुश्किल में उसने दुनिया की परवाह किए बगैर भारत का साथ दिया है, लेकिन चीन का चरित्र संदिग्ध है। वह एक तरफ  भारत के साथ अपने कारोबार को विस्तार देने के लिए मित्रता का हाथ बढ़ाता है और दूसरी तरफ  पाकिस्तान के नाभिकीय कार्यमों को विस्तार देकर दक्षिण एशिया की शांति को खतरे में डाल रहे हैं और भारतीय सुरक्षा के समक्ष बेहद गम्भीर चुनौती पैदा कर रहा है।  जो भी हो, चीन के साथ भारत को बेहद रणनीतिक होने की जरूरत है। अफसोस इस बात का है कि भारत इस समय इससे बहुत दूर खड़ा है। 


रहीस सिंह


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुल पेज दृश्य