गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

आर्थिक विकास के साथ खाद्य सुरक्षा

हमारी अर्थव्यवस्था बीते तीन माह से दबाव में है। रुपया लुढ़क रहा है और महंगाई चढ़ रही है। साथ-साथ आम आदमी भी असन्तुष्ट दिखता है। अर्थव्यवस्था के हाल जो भी हों, आम आदमी को राहत देने में विलम्ब नहीं किया जा सकता है। इस दृष्टि से खाद्य सुरक्षा कानून का स्वागत किया जाना चाहिये। परन्तु आम आदमी को दी गई राहत टिकाउ तब ही होगी जब साथ-साथ अर्थव्यवस्था आगे बढ़ती रहे। वर्तमान खाद्य सुरक्षा कानून में समस्या है कि अर्थव्यवस्था पर बोझ बढ़ेगा और सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के साथ आम आदमी भी तबाह हो सकता है।
नेक काम को हाथ में लेने के पहले उसे निर्वाह करने का सामर्थ्य जुटाना चाहिये। घाटे में चल रही दुकान का मालिक लंगर लगाने चले तो वह एक बार शायद सफल हो भी जाए परन्तु उसकी दुकान खाली हो जायेगी और आगे वह न तो दूकान चला पायेगा और न ही लंगर लगा पायेगा। ऐसी ही हालत हमारी सरकार की है। सरकार के पास खाद्य सुरक्षा कानून को लागू करने का सामर्थ्य नहीं है। अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां भारत के प्रति पहले ही नकारात्मक हैं। भारत की रेटिंग जंक के ऊपर है। यदि रेटिंग में गिरावट आई तो भारत जंक श्रेणी में आ जायेगा। ऐसे में भारत से विदेशी पूंजी का और तेजी से पलायन होगा।
यूपीए और एनडीए द्वारा लागू किये गये विकास के माडल में बड़ी कम्पनियों को छूट दी जाती है। ये कम्पनियां आटोमेटिक मशीनों से सस्ता माल बनातीं हैं। कुटीर उद्योग चौपट हो जाते हैं। बेरोजगारी बढ़ती है। फिर इन्हीं बड़ी कम्पनियों पर टैक्स लगाकर आम आदमी को बेरोजगारी से राहत दी जाती है। अर्थव्यवस्था में जो प्रगति होती है उसका एक बड़ा हिस्सा प्रगति के दुष्प्रभावों को काटने में व्यय हो जाता है। यही कारण है कि हमारी अर्थव्यवस्था दबाव में है। इस दबाव के बावजूद सरकार ने खाद्य सुरक्षा कानून को लागू करने का निर्णय लिया है जिससे सरकार पर वित्तीय बोझ बढ़ेगा। इस कारण नई संस्थाओं ने चालू वर्ष की अनुमानित विकास दर को घटाकर 4.5 प्रतिशत के लगभग कर दिया है।
इस समस्या का सर्वश्रेष्ठ समाधान है कि पूंजी सघन उद्योगों पर टैक्स बढ़ाया जाए। जैसे चीनी का उत्पादन बड़ी मिलों में आटोमेटिक मशीनों से किया जाता है। खांडसारी उद्योग तुलना में श्रम सघन होता है। ऐसे में चीनी मिलों पर टैक्स बढ़ाना चाहिये। ऐसा करने से खांडसारी उद्योग चल निकलेगा और रोजगार स्वत: उत्पन्न होने लगेंगे। सरकार को टैक्स मिलेगा और जनता को रोजगार। नून लगे न फिटकरी रंग भी चोखा आये। इस सुझााव में समस्या डबलूटीओ की है। चीनी मिल पर टैक्स लगाने से भारत में च्ीनी का दाम बढ़ जायेगा। दूसरे देशों से सस्ती चीनी आयात करना लाभप्रद हो जायेगा। समाधान है कि आयातों पर इम्पोर्ट डयूटी में समुचित वृध्दि कर दी जाए। इसके लिए जरूरी हो तो डब्लूटीओ से बाहर आने के लिये भी तैयार रहना चाहिये। तथापि इस प्रस्ताव को लागू करना कठिन लगता है चूंकि विकास के मौलिक माडल में परिवर्तन करना कठिन होगा।
दूसरा समाधान है कि वर्तमान खर्चों में फेरबदल करके उनकी गुणवत्ता में सुधार किया जाए। वर्तमान में गरीबों को राहत देने के लिए केन्द्र सरकार के द्वारा चार बड़े कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं : कृषि समर्थन मूल्य, स्वास्थ और शिक्षा, मनरेगा और फर्टिलाइजर सब्सिडी। फसलों को समर्थन मूल्य इस आशय से दिया जाता है कि मूल्य गिरने के कारण किसान घाटा न खाए। स्वास्थ्य एवं शिक्षा कार्यक्रमों का उद्देश्य ग्रामीण इलाकों में इन सुविधाओं को मुहैया कराना है। मनरेगा का उद्देश्य गरीब को वर्ष में 100 दिन का रोजगार न्यूनतम वेतन पर दिया जाता है। फर्टिलाइजर सब्सिडी का उद्देश्य है कि किसान की लागत कम आए और वह घाटा न खाए। वर्ष 2011-12 इन कार्यमों पर केन्द्र सरकार द्वारा कुल 292 हजार करोड़ रुपये खर्च किए गए। वर्ष 2013-14 में इन कार्यमों पर 362 करोड़ खर्च होने का मेरा अनुमान है।
इन कार्यमों का उद्देश्य गरीब को राहत पहुंचाना है। परन्तु इनमें गरीब का हिस्सा कम ही है। फूड कार्पोरेशन को दी जा रही सब्सिडी मुख्यत: कार्पोरेशन के कर्मियों और बड़े किसानों को ही पहुंचती है। स्वास्थ और शिक्षा पर किए जा रहे खर्च सरकारी टीचरों और डाक्टरों को पोषित करती है। नरेगा में सरपंच और विभाग का हिस्सा 25 से 75 प्रतिशत तक बताया जा रहा है। फर्टिलाइजर सब्सीडी अकुशल उत्पादकों तथा बड़े किसानों को जा रही है।
हमें ऐसा उपाय करना चाहिये कि गरीब के नाम पर किए जा रहे खर्च वास्तव में गरीब को पहुंचे। सुझाव है कि इन चारों कार्यक्रमों को पूरी तरह बन्द कर दिया जाए। इससे केन्द्र सरकार को 362 हजार करोड़ रुपये प्रति वर्ष की बचत होगी। इस रकम को बीपीएल कार्ड धारकों को सीधे दे दिया जाए। 80 करोड़ गरीबों में प्रत्येक को 4500 रुपये प्रति वर्ष मिल जायेंगे। पांच व्यक्तियों का परिवार मानों तो 22,500 प्रति वर्ष या लगभग 2,000 रुपये प्रति माह मिल जायेंगे। विशेष यह कि मनरेगा के दिखावटी कार्यों को करने में उसके जो 100 दिन व्यर्थ हो जाते हैं वे बच जायेंगे। इन 100 दिनों में 125 रुपये की दिहाड़ी से उसे 12500 रुपये अतिरिक्त मिल जायेंगे। इसे जोड़ लें तो प्रत्येक परिवार को 3000 रुपये प्रति माह मिल सकते हैं। इसके लिये केन्द्र सरकार को एक रुपया भी अतिरिक्त नहीं खर्चा करना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त राय सरकारों द्वारा लगभग 360 हजार करोड़ इन मदों पर खर्च किये जा रहे हैं। इस रकम को जोड़ लें तो प्रत्येक बीपीएल परिवार को 5,000 रुपये प्रति माह दिये जा सकते हैं। यह विशाल राशि वर्तमान में गरीब के नाम पर सरकारी कर्मियों, अकुशल उत्पादकों, बड़े किसानों और अमीरों को दी जा रही है। इसे गरीब तक पहुंचा दें तो समस्या हल हो जायेगी। इस रकम से परिवार अपने भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा की व्यवस्था कर सकता है।
सरकार ने जो उपाय लागू कर रखा है वह तीसरे स्तर का निकृष्ट है। इससे बड़ी कम्पनियों द्वारा छोटे लोगों के रोजगार छीने जाते हैं। जैसे हथकरघा देश में समाप्तप्राय हो चला है। इसमें जनकल्याण के नाम पर किए गए खर्च के मुख्य लाभार्थी सरकारी कर्मी और नेता होते हैं जिन्हें रिसाव का बड़ा अवसर मिल जाता है। लेकिन यह माडल टिकाउ नहीं है जैसा कि हाल की घटनाओं से दिखता है।

विपक्ष को चाहिए कि आम आदमी को राहत पहुंचाने का नया कार्यम पेश करे। फूड कार्पोरेशन, स्वास्थ्य एवं शिक्षा, मनरेगा तथा फर्टिलाइजर सब्सिडी कार्यक्रमों को बंद करके इस रकम को सीधे गरीब को देने की मांग करनी चाहिए। ऐसा करने से बाजार को सरकार के बढ़ते खर्च का भय जाता रहेगा। सरकार को खर्च पोषित करने के लिए भारी मात्रा में अतिरिक्त ऋण नहीं लेने पड़ेंगे। सरकार का वित्तीय घाटा नियंत्रण में आयेगा। सरकार को देश के उद्यमियों पर अतिरिक्त टैक्स नहीं लगाना पड़ेगा। उद्यमियों को राहत मिलेगी। उत्पादन बढ़ेगा। सरकार को टैक्स यादा मिलेगा और रुपया संभल जायेगा। जनता भी खुशहाल होगी।  

देशबन्धु

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