पिछले
कुछ महीनों से देश में एक अजीब-सी मायूसी छा रही थी। महत्वपूर्ण नीतियों में विलंब,
भ्रष्टाचार
और लोकमत को अनदेखा करने की प्रवृत्ति से निराशा का माहौल बन गया था। लेकिन हताशा
के ये बादल अब धीरे-धीरे हटते नजर आ रहे हैं। शुक्रिया उन नागरिकों का जिन्होंने
जनहित में लड़ाई लड़ी। इसके अलावा माहौल में परिवर्तन में न्यायालय के निर्णयों का
भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। इन्हीं की बदौलत राजनीतिक सुधारों के नागरिकों के
प्रयास आंशिक रूप से ही सही, सफल हो पाए। आखिरकार जनता के दबाव और
चुनावी राजनीति की मजबूरियों के कारण सरकार को अंतत: कार्रवाई करनी ही पड़ी।
सबसे
पहले आया मुख्य सूचना आयोग का निर्णय। इसमें छह बड़े राजनीतिक दलों को लोक
प्राधिकरण घोषित कर सूचना के अधिकार (आरटीआइ) अधिनियम के दायरे में लाया गया। इसका
नतीजा यह हुआ कि इन दलों से जानकारी मांगने के दरवाजे जनता के लिए खुल गए। फिर आया
आपराधिक मामलों में दोषी करार हुए सांसदों, विधायकों के
संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय, जिसने जनप्रतिनिधित्व
अधिनियम की धारा 8(4) को गैर-संवैधानिक घोषित कर दोषी सांसदों,
विधायकों
को संसद और राज्य विधानसभाओं से बाहर निकालने का रास्ता खोल दिया। अंत में आया
सर्वोच्च न्यायालय का एक और निर्णय जिसने भारतीय मतदाताओं को चुनाव में खड़े सभी
उम्मीदवारों को ठुकराने का अधिकार दिया। तुरंत बाद, कई कार्यकर्ताओं
और मुहिम से जुड़े लोगों ने संसद और राजनीतिक वर्ग पर जनता का दबाव बनाना शुरू
किया ताकि इन बदलावों में किसी भी प्रकार का परिवर्तन ना किया जाए। इस दबाव के
चलते, सरकार को अंत में आरटीआइ (संशोधन) विधेयक को स्थायी समिति के पास
भेजना पड़ा और दोषी सांसदों पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को पलटने वाले विधेयक
को भी स्थगित करना पड़ा। लेकिन इतना प्रयास भी पर्याप्त साबित नहीं हुआ।
इस
सबके बावजूद लोकमत की अनदेखी करते हुए सरकार ने धारा 8(4) पर सुप्रीम
कोर्ट के निर्णय को पलटने के लिए एक अध्यादेश लाने का अप्रत्याशित प्रयास किया। इस
प्रकार की शीघ्रता न केवल अनैतिक थी, बल्कि प्रक्रियात्मक रूप से गलत भी थी।
जब संसद सरकार के साथ नहीं थी और सरकार एक बार पहले ही विधेयक पारित करवाने में
असफल रही थी, तो अध्यादेश का रास्ता अपनाना आश्चर्यजनक था!
संविधान के तहत अध्यादेश लाने की अनुमति केवल तभी दी जाती है जब संसद सत्र में न
हो और जब किसी संदर्भ में तत्काल कार्रवाई करना अनिवार्य हो। मैं यह तो नहीं जानता
कि मंत्रिमंडल की बैठक से पहले सरकार ने क्या राजनीतिक गणना की और किस बिना पर यह
निर्णय लिया, लेकिन यह स्पष्ट है कि यह कार्रवाई हताशा में
की गई थी ताकि दोषी राजनेताओं को बचाया जा सके।
कांग्रेस
के नेताओं द्वारा हस्तक्षेप और उसके पश्चात सरकार का यू-टर्न भी इसी प्रकार की
किसी राजनीति का हिस्सा होगा, ताकि पार्टी को इस स्टैंड से कुछ
राजनीतिक लाभ प्राप्त हो सके। किंतु दुख इस बात का है कि यह राष्ट्रपति भवन से
अध्यादेश वापस भेजे जाने की अफवाहों के बाद हुआ।सरकार का यह निर्णय यदि थोड़ा समय
पहले आया होता तो न सिर्फ यह ज्यादा विश्वसनीय होता, बल्कि संसद में
हमारे जैसे अन्य सांसदों, जो उस संशोधन के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे
हैं, का अच्छा सहारा साबित होता। फिर भी, इस लड़ाई का अंत
उन सभी लोगों के लिए एक आशा की किरण साबित हुआ है जो ऐसे सुधारों की लंबे समय से
वकालत कर रहे थे। यदि यह परिवर्तन कायम रहा तो उम्मीद है कि आने वाले वषों में
भारत की राजनीति का रुख बहुत हद तक बदल जाएगा।
मौजूदा
व्यवस्था में, दोषी लोगों के लिए विधानमंडल में चुनाव जीत कर
कानूनी प्रक्रियाओं को स्थगित करवाना और उनसे बचना आसान हो जाता है। आपराधिक जांच
को प्रभावित करने और पुलिसकर्मियों को दुश्मन से दोस्त बनाने की प्रबल इच्छा
अपराधियों को राजनीति की ओर आकर्षित करती है। कोई अचरज की बात नहीं है कि 2009
में लोकसभा में चुनाव जीत कर आए 543 में से 76 सदस्यों के
खिलाफ हत्या, दुष्कर्म और डकैती जैसे गंभीर आपराधिक मामले
दर्ज हैं। यही हाल राज्य विधानसभाओं का भी है। इस वर्ष अप्रैल माह के अंत में
मैंने इसी मुद्दे पर इस समाचारपत्र में एक लेख लिखा था जिसमें भारत में राजनीति से
अपराधीकरण को खत्म करने की जरूरत पर जोर दिया था। मैंने तर्क दिया था कि मौजूदा
कानून, खासतौर से जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8(4) दोषी
सांसदों व विधायकों को जरूरत से अधिक सुरक्षा प्रदान करता है। एक तरफ यह कानून
गंभीर अपराधों के दोषी प्रत्याशियों को चुनाव लड़ने से रोकता है, वहीं
इसकी धारा 8 (4) मौजूदा विधेयकों को इस दंड से माफ करती है।
इससे दोषी विधेयकों को चुनाव लड़ने का अनुचित लाभ प्राप्त होता है।
मेरा
मानना है कि यह कानून भारतीय संविधान की धारा 14 (कानून के समक्ष
समानता का अधिकार) में उल्लिखित विचारों के विपरीत है। मैंने राजनीति से अपराधीकरण
खत्म करने के हमारे एजेंडे के विस्तार के लिए कुछ महत्वपूर्ण सुधारों की बात कही
थी- सर्वप्रथम, धारा 8(4) को निरस्त करना
और दूसरा, चुने हुए प्रतिनिधियों के विरुद्ध आपराधिक मामलों की तेजी से सुनवाई
(90-180 दिनों के भीतर) करने के लिए ‘फास्ट ट्रैक’
न्यायालयों
की स्थापना करना। शुक्र है, पहले और सबसे महत्वपूर्ण सुधार पर
सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी मुहर लगा दी है, किंतु अभी भी
लड़ाई आधी बाकी है। यह बहुत जरूरी है कि दूसरा सुधार जल्द से जल्द लाया जाए। मामला
अभी ताजा है- इसीलिए यह अवसर बिल्कुल उपयुक्त है।
जब
तक चुनाव जीत कर आए प्रतिनिधियों के खिलाफ आपराधिक मामलों में तेजी से जांच नहीं
की जाएगी, ये मामले वषों अधूरे रहेंगे। ऐसे में राजनीतिक संरक्षण और अदालतों
में ‘स्थगन का आचरण’ न्यायिक प्रक्रिया का मजाक बना कर रख
देंगे और हमारे दूसरे बदलावों के कोई मायने नहीं रह जाएंगे। भारत के चुनावी
परिदृश्य पर असल प्रभाव तभी पड़ेगा जब मामलों का निपटारा उचित समयसीमा के भीतर
किया जाएगा। यह क्षण ऐतिहासिक हो सकता है। या तो यह भारत में राजनीति को हमेशा के
लिए बदल देगा या फिर सिर्फ एक बेमानी रुकावट, एक गतिरोध बन कर
रह जाएगा, जिससे हमारा राजनीतिक वर्ग आसानी से निपट लेगा। अब यह जरूरी है कि
चिंतित नागरिकों के गुस्से को जल्द से जल्द सहमति बनाने और जनमत जुटाने के लिए
इस्तेमाल किया जाए।
बैजयंत
‘जय’ पांडा
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