सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

नदियों में मूर्ति विसर्जन

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला देते हुए गंगा-यमुना में मूर्ति विसर्जन की इजाज़त देने से इन्कार कर दिया है। अदालत ने प्रशासन के उस सुझाव को मानने से भी इन्कार कर दिया है कि मूर्तियों को विसर्जन के बाद निकाल लिया जाए। गंगा प्रदूषण जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति अरुण टंडन की खंडपीठ ने अपने फैसले में प्रशासनिक लापरवाही के प्रति नाराजगी जताते हुए अदालत ने कहा कि साल भर पहले आदेश देने के बावजूद अगर अधिकारी सोते रहे तो अब जनता का गुस्सा भी भुगतें। गौरतलब है कि हाईकोर्ट ने नौ अक्तूबर 2012 को ही गंगा-यमुना में दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन पर रोक लगा दी थी। मगर पिछले साल प्रशासन के पास कोई वैकल्पिक प्रबंध नहीं था, इसलिए इस शर्त के साथ विसर्जन की अनुमति दी गई कि मूर्तियों के साथ फूल-माला, कास्मेटिक कपड़े और रंग आदि प्रवाहित नहीं किए जाएंगे। कोर्ट ने विसर्जन से पूर्व और बाद में प्रदूषण का तुलनात्मक अध्ययन करके रिपोर्ट भी मांगी थी। छह नवंबर 2012 को प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने रिपोर्ट दी कि विसर्जन के बाद प्रदूषण की मात्रा कई गुना बढ़ जाती है। इसके बाद से हाईकोर्ट ने मूर्ति विसर्जन पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाते हुए प्रशासन को वैकल्पिक तौर पर झील या तालाब विकसित करने का निर्देश दिया था।
यह विडंबना है कि अपने पर्यावरण, नदियों-तालाबों को संरक्षित रखने की जिम्मेदारी निभाने के लिए भी समाज को अदालती आदेश की बाट जोहनी पड़ रही है। भारत औद्योगिक तरक्की में इतना आत्ममुग्ध हो गया कि उसे यह तक नजर नहींआया कि कैसे उसका पर्यावरण, प्राकृतिक सौंदर्य, नदी, झीलें, तालाब नष्ट होते जा रहे हैं। हर वर्ष गर्मी देश के बड़े हिस्से में पानी के लिए हाहाकार मचता है, एक-एक बूंद के लिए तरसने की स्थिति बनती है, दूसरी ओर बारिश के मौसम में बाढ़ की स्थिति बन जाती है, गांव के गांव डूबते हैं, शहरों के कई इलाके जलमग्न हो जाते हैं। ऐसा क्यों होता है, इसका कारण अब बच्चा-बच्चा जानता है। हर साल पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। स्कूलों, कालेजों, संस्थाओं में पर्यावरण के प्रति जागरूकता फैलाने का उपक्रम किया जाता है और बताया जाता है कि नदियां हमारी जीवनरेखा है, वर्षा की हर बूंद सहेजना चाहिए, पानी व्यर्थ नहींबहाना चाहिए, तीसरा विश्वयुध्द अगर होगा, तो पानी के लिए होगा। सार्वजनिक नल पर पानी भरने के लिए लड़ती महिलाओं के लिए पानीपत का युध्द जैसे व्यंग्यात्मक जुमले भी खूब जड़े जाते हैं। लेकिन इस बतकही से ऊपर उठकर जल संरक्षण, नदी-तालाबों की धरोहरों को संभालने का काम व्यवहार में कैसे किया जाए, इस ओर कोई ठोस कदम समाज की ओर से उठाया जाए, ऐसा बहुत कम होता है।
औद्योगिक कचरे से नदी-तालाबों-झीलों का कितना नुकसान हुआ है, इसका विश्लेषण करें तो बेहद भयावह और बहुत हद तक दर्दनाक तस्वीर हमारे सामने आती है कि किस क्रूरता से हम जल के स्वाभाविक स्रोतों को बर्बाद कर रहे हैं। इमारतें खड़ी करने के लिए तालाबों को पाट दिया गया। बावड़ियों-कुओं को पानी की जगह कचरे से भर दिया। नदियों में अविचारित तरीके से अपशिष्ट पदार्थों का निकासी स्थल बनाकर जल को जहरीला बना दिया। अधजली लाशों को नदी में बहाकर हम यह मान रहे हैं कि इससे आत्मा का उध्दार होगा। जो प्रत्यक्ष नहींहै, उसके कल्याण की चिंता है और जो सामने नष्ट हो रहा है, उसकी ओर से हमने आंखें मूंद ली। फूल-मालाएं, पूजन सामग्री के साथ-साथ मूर्तियों के विर्सजन की सदियों से परंपरा चली आ रही है। लेकिन इस ओर ध्यान नहींदिया गया कि पहले मूर्तियों में रासायनिक रंग और पदार्थ प्रयुक्त नहींहोते थे, जो जल को दूषित करते हैं। पहले धार्मिक कार्यों में आडंबर कम और आस्था अधिक होती थी। अब तो आडंबर का ही बोलबाला है। जनसंख्या बढ़ने के साथ-साथ धार्मिक गतिविधियों में भी बढ़ोत्तरी हुई और आडंबर में भी। धर्म का ऐसा बोझ उठाते-उठाते हमारी नदियों का दम टूट रहा है, लेकिन उस ओर न समाज अपनी जिम्मेदारी निभा रहा है, न सरकारें। समाज हमेशा इस इंतजार में रहता है कि उसके कल्याण के लिए सरकार ही काम करेगी और अगर न करे तो वह उसकी निंदा करेगा। उधर सरकारें कोई भी कड़ा कदम उठाने से पहले यह निश्चित कर लेना चाहता है कि उसका मतदाता नाराज न हो। ऐसे में सदियों से चली आ रही परंपरा को बदलने का साहस कोई नहींदिखाना चाहता। लेकिन अब वक्त आ गया है कि इस परंपरा को बदला जाए, वर्ना परंपरा निभाने के लिए न नदियां बचेंगी, न इंसान। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गंगा-यमुना के प्रदूषण को रोकने के लिए जो आदेश दिया है, उसे समूचे देश में स्वेच्छा से अपनाया जाए, तो धर्म और पर्यावरण दोनों का भला होगा!

देशबन्धु



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