हमारे देश में विकास प्रक्रिया में
निहित असंतुलन कई तरह का है। जहां राज्यों और क्षेत्रों के बीच विषमता बढ़ती गई है, वहीं विभिन्न तबकों के बीच भी।
स्त्रियां शायद और भी वंचित हैं। इसलिए हैरत की बात नहीं कि विकास के लिहाज से
स्त्री-पुरुष के बीच अंतर की वैश्विक सूची में भारत को एक सौ छत्तीस देशों में एक
सौ एकवें स्थान पर जगह मिली है। स्विट्जरलैंड के ठिकाने से काम करने वाले
गैर-सरकारी विश्व आर्थिक मंच ने अर्थव्यवस्था, राजनीति, शिक्षा
और स्वास्थ्य के पैमानों से पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों की स्थिति का आकलन कर यह
सूचकांक तैयार किया है। मंच के पिछले आकलन की तुलना में इस बार कुछ सुधार के
बावजूद भारत अब भी फिसड्डी नजर आता है। अलबत्ता स्त्रियों के राजनीतिक सशक्तीकरण
की कसौटी पर हमारा देश नौवें स्थान पर है, जिसे काफी हद तक संतोषजनक माना जा सकता है। लेकिन महिलाओं के
स्वास्थ्य और जन्म के बाद उनके जीवित बचे रहने के मामले में भारत सबसे नीचे से
दूसरे, यानी एक सौ पैंतीसवें स्थान पर है।
राजनीतिक सशक्तीकरण को भी टुकड़ों में बांट कर नहीं देखा जाना चाहिए। गौरतलब है कि
संसद में महिलाओं की भागीदारी और मंत्री पदों पर उनके आसीन होने जैसी श्रेणियों
में भारत अब भी बहुत सारे देशों से काफी पीछे है। यही नहीं, विकास के तमाम दावों के बीच आर्थिक
भागीदारी में महिलाओं की स्थिति पहले के मुकाबले और खराब हुई है और इस कसौटी पर
भारत एक सौ चौबीसवें स्थान पर है। इसी तरह स्त्रियों की शैक्षणिक उपलब्धियों के
लिहाज से उसे एक बीसवें पायदान पर जगह मिली है।
जाहिर है, इस वैश्विक आकलन में भारत की यह तस्वीर
निराशाजनक है। लेकिन संसद में महज ग्यारह फीसद प्रतिनिधित्व, माध्यमिक या उच्च शिक्षा तक केवल साढ़े
छब्बीस फीसद महिलाओं की पहुंच, श्रम बाजार में उनकी बेहद कम भागीदारी और असमान पारिश्रमिक, कन्याभ्रूण हत्या, प्रसव के बाद बच्चियों की मृत्यु-दर के
आंकड़ों को देखते हुए यह अप्रत्याशित भी नहीं लगता। आज भी दुनिया भर में कुपोषण के
चलते मरने वाले बच्चों की तादाद भारत में सबसे ज्यादा है, जिसमें अधिकतर बच्चियां होती हैं।
आबादी में स्त्री अनुपात भी आज सबसे चिंताजनक स्तर तक है। दरअसल, शासन और नीतियों के स्तर पर
प्रगतिशीलता के तत्त्व भले देखने को मिल जाते हैं, व्यवहार में आज भी स्त्रियों को पग-पग पर बाधाओं का सामना करना पड़ता
है। संसद और विधानसभाओं में उनके लिए एक तिहाई स्थान आरक्षित करने का विधेयक लंबे
समय से राजनीतिक दलों के बीच सहमति न बन पाने के कारण लटका हुआ है। हालांकि स्त्री
अधिकारों को लेकर कई साहस भरे फैसले किए गए और उन्हें कानून में भी तब्दील किया
गया। लेकिन दूसरी ओर, आज
भी समाज में स्त्री की राह रोकने वाली रूढ़िवादी सोच और पूर्वग्रह हावी हैं। बहुत
कम होंगी जिन्हें विवाह से लेकर करियर तक अपने चुनाव की आजादी मिल पाती है। फिर, उच्चशिक्षित मध्यवर्ग के छोटे-से दायरे
से आगे जाकर देखें तो स्त्री अधिकारों के नाम पर व्यापक सूखा ही दिखाई देगा।
लिहाजा, विश्व आर्थिक मंच के इस निष्कर्ष में
कुछ भी गलत नहीं है कि स्त्री-पुरुष समानता की दृष्टि से ठोस प्रगति का प्रदर्शन
करने के लिए भारत अब भी संघर्ष कर रहा है। सवाल है कि क्या कोई देश या समाज अमूमन
सभी क्षेत्रों में स्त्री को हाशिये पर रख कर सही मायने में विकास का दावा कर सकता
है!
जनसत्ता
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