बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

अमरीका में कामबंदी

राजनैतिक विरोध व अवरोध के कारण देश के वित्तीय परिदृश्य पर गतिरोध दिखना, अनोखी बात नहींहै। भारत में हम आए दिन देखते हैं कि एक बयान या निर्णय से किस प्रकार शेयर बाजार उठते-गिरते हैं और उसका सीधा असर अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। अपने देश में पिछले कुछ अरसे से आर्थिक संकट हम देख ही रहे हैं। लेकिन जिस अमरीकी पूंजीवाद पर चलने की दबी-छिपी महत्वाकांक्षा हमारे कुछ अर्थशास्त्रियों, राजनेताओं की है, उसकी दशा भी हमसे बेहतर नहींहै, बल्कि उसे बदतर कहना अधिक सही होगा। वैश्विक मंदी के वक्त अमरीका की कमजोर अर्थनीतियों का परिणाम दुनिया ने देखा था। तब भी उसके प्रति मोहभंग नहींहुआ। अब एक बार फिर उसका वित्तीय खोखलापन सामने आया है, जिसके कारण उस पर दिवालिया होने की तलवार लटक रही है। मुमकिन है राजनैतिक चतुराई और छद्म नीतियों के कौशल से वह इस संकट से उबर जाए, लेकिन इससे यह कदापि नहींसमझना चाहिए कि उसकी आर्थिक बुनियाद मजबूत हो गई। सच्चाई यही है कि अमरीका आज विश्व के बड़े कर्जदारों में एक है, बस अपनी चौधराहट बनाए रखने के लिए वह दरवाजे पर हाथी बांध कर दुनिया को दिखाता रहता है।
अमरीका सरकार इस बार गंभीर संकट में फंसी है क्योंकि सत्तारूढ़ डेमोक्रेटिक पार्टी व रिपब्लिकन पार्टी के बीच सहमति न बन पाने के कारण सीनेट से तय समयसीमा के भीतर बजट को मंजूरी नहींमिल पायी। अमरीका में 30 सितम्बर की रात बारह बजे तक बजट को मंजूरी मिलने का वक्त था। पर रिपब्लिकन राष्ट्रपति बराक ओबामा के महत्वाकांक्षी स्वास्थ्य कानून, जिसे ओबामा केयर भी कहा जाता है, को मंजूरी देने तैयार नहींहुए। प्रतिनिधि सभा में रिपब्लिकन सदस्यों और सीनेट में उनके सहयोगियों की मांग है कि इस कानून को वापस लिया जाए, या इस पर होने वाले खर्च के लिए पैसे न दिए जाएं, तभी वे सरकारी खर्च के लिए बिल पारित करेंगे। चूंकि प्रतिनिधि सभा में रिपब्लिकन का बहुमत है, इसलिए सरकार बजट पारित नहींकरवा पायी। स्वास्थ्य कानून का अधिकांश हिस्सा 2010 में पारित हो चुका है, अमरीकी सुप्रीम कोर्ट से भी इसे मंजूरी मिल चुकी है और मंगलवार से यह कानून का रूप ले लेगा। बराक ओबामा के महत्वाकांक्षी निर्णयों में से यह एक है, इसलिए वे पीछे हटने तैयार नहींहैं। उधर रिपब्लिकन का मानना है कि यह नागरिकों के लिए महंगा और आर्थिक विकास के लिए बुरा है। सरकार और विपक्ष के बीच विरोध का परिणाम यह निकला कि 17 साल बाद अमरीका को कामबंदी का सामना करना पड़ रहा है। इससे पहले 1995 दिसम्बर में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के कार्यकाल में 28 दिनों की कामबंदी हुई थी। वर्तमान कामबंदी के चलते लगभग 7 लाख कर्मचारियों को अवैतनिक छुट्टी पर भेज दिया गया। इस दौरान वायु यातायात, राष्ट्रीय सुरक्षा और परमाणु हथियार व बिजली ये विभाग पूरी तरह काम बंदी से प्रभाव मुक्त रहेंगे। जबकि रक्षा, वाणिज्य, यातायात और ऊर्जा विभागों के कई कर्मचारियों को छुट्टी पर भेज दिया जाएगा। देश के 19 संग्रहालय, प्राणिउद्यान, कई स्मारक पूरी तरह बंद होंगे। वृध्दों को मिलने वाली सहायता राशि में देरी होगी, नए पासपोर्ट व वीजा जारी करने का काम पूरी तरह बंद रहेगा। इस बीच अगर समझौते की कोई सूरत बन गई, तो स्थिति जल्द से जल्द सामान्य करने की कोशिश की जाएगी। अगर अवरोध जारी रहा तो वित्तीय संकट के साथ-साथ कर्ज से उबरने का नया संकट अमरीका के सामने रहेगा। अमरीकी सरकार की कर्ज सीमा 17 अक्टूबर को समाप्त हो रही है। 16.7 खरब डालर के कर्ज लेने की समय सीमा मई में ही खत्म हो गई है। वित्त मंत्री जैक ल्यू हिसाब खातों में किसी न किसी तरह रास्ता निकाल कर देश के बिलों का भुगतान करते आ रहे हैं। लेकिन जब मूल धन ही न हो तो ऊपरी गुणा-भाग से कितने दिनों तक काम चलाया जा सकता है। अमरीकी कामबंदी व कर्ज संकट से यूरोजोन प्रभावित होगा ही, विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाएं, जिनका अमरीका से नियमित कारोबार चलता है, उन पर भी विपरीत असर पड़ेगा। भारत उन्ही देशों में से एक है। जो भारतीय कंपनियां सीधे अमरीकी सरकार के लिए काम करती हैं, उन्हें भुगतान पाने में विलंब होगा और इसका व्यापक असर पड़ेगा। लाखों कर्मचारियों के बिना वेतन बैठे रहने से सामाजिक समस्याएं भी उत्पन्न हो सकती हैं, जिसका पहला निशाना अप्रवासी बनेंगे। 1976 से 2013 तक अमरीका 18 बार कामबंदी का सामना कर चुका है। लेकिन अधिकतर बार ऐसा सप्ताहांत पर हुआ और उससे अधिक अड़चन नहींआई। इस बार राजनैतिक संकट के साथ-साथ आर्थर्िक संकट भी गहरा है, देखना है कि यस वी कैन का मंत्र देने वाले बराक ओबामा अमरीका को इस संकट से निकाल सकते हैं या नहीं।


देशबन्धु

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