रविवार, 20 अक्तूबर 2013

महंगाई का दंश

पिछले दिनों यह माना जा रहा था कि डॉलर के मुकाबले रुपए का लगातार अवमूल्यन ही महंगाई का सबब बना हुआ है। लेकिन रुपए के थोड़ा संभलने और चालू खाते के घाटे में उल्लेखनीय कमी आने के बावजूद महंगाई से कोई राहत नहीं मिल पाई है। यही नहीं, ताजा आंकड़े बताते हैं कि महंगाई पिछले सात महीनों के रिकार्ड स्तर पर पहुंच गई है। और भी चिंताजनक पहलू यह है कि खाने-पीने की चीजों की महंगाई इस वक्त पिछले तीन साल में सबसे ज्यादा है; सितंबर में यह अठारह फीसद से भी ऊपर पहुंच गई। यह हालत ऐसे साल में है जब मानसून ने मेहरबानी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है और अच्छी वर्षा के कारण मौजूदा वित्तवर्ष में कृषि क्षेत्र की विकास दर चार फीसद से ऊपर पहुंचने की उम्मीद की जा रही है। इसलिए महंगाई का ताजा दौर चिंता के साथ-साथ थोड़ी हैरानी का विषय भी है। रिजर्व बैंक ने मौद्रिक नीति की अपनी पिछली समीक्षा में नीतिगत दरों में कुछ कटौती की उम्मीद से उलट उनमें कुछ बढ़ोतरी कर दी, इसी तर्क पर मुद्रास्फीति पर काबू पाने के लिए ऐसा करना जरूरी है। पर उसके इस कदम का भी कोई अपेक्षित परिणाम नजर नहीं आ रहा है। ताजा आंकड़ों ने एक बार फिर रिजर्व बैंक को इस दुविधा में डाल दिया होगा कि बाजार में पूंजी प्रवाह बढ़ाने और मुद्रास्फीति नियंत्रण में वह किसे प्राथमिकता दे।

बहुत-से जानकारों का कयास है कि रिजर्व बैंक एक बार फिर रेपो दरों में चौथाई फीसद की बढ़ोतरी कर सकता है। ऐसा हुआ तो कर्ज थोड़ा और महंगा हो जाएगा और बैंकों से लिए गए कर्जों पर मासिक किस्तें थोड़ी और चुभने लगेंगी। पर सवाल यह है कि क्या मौद्रिक कवायद से महंगाई पर लगाम लगाने की कोशिशें सफल हो पा रही हैं? यह बहुत बार देखा गया है कि ऐसे प्रयास सार्थक साबित नहीं हो पाए हैं। उन्हें अधिक से अधिक सावधानी के कदम कहा जा सकता है। दरअसल, अर्थव्यवस्था को गति देने और मुद्रास्फीति पर लगाम लगाने की उम्मीद वित्त मंत्रालय से की जानी चाहिए, न कि रिजर्व बैंक से। महंगाई से निपटने का तकाजा नीतिगत फैसलों, आपूर्ति की राह की अड़चनें दूर करने, जमाखोरी और कालाबाजारी रोकने आदि से ताल्लुक रखता है। लेकिन अब यह कोई रहस्य की बात नहीं है कि प्याज की कीमत बेतहाशा बढ़ने के पीछे जमाखोरी सबसे बड़ी वजह है। मगर इस पर अंकुश लगाने में न केंद्र सरकार ने तत्परता दिखाई है न प्याज की उपज वाले अग्रणी राज्य महाराष्ट्र की सरकार ने। अनाज के वायदा बाजार के चलते कीमतों को प्रभावित करने में सटोरियों की भूमिका बढ़ती गई है। पर केंद्र सरकार वायदा बाजार के औचित्य पर पुनर्विचार के लिए कभी तैयार नहीं होती। फिर, यह आम अनुभव की बात है कि थोक कीमतों और खुदरा कीमतों के बीच अंतर अतार्किक रूप से बहुत ज्यादा रहता है। इस अंतर को कैसे तर्कसंगत बनाया जाए, इस दिशा में न केंद्र सरकार सोचती है न राज्य सरकारें।

महंगाई से निपटने के लिए उठाए जा सकने वाले नीतिगत कदमों को लेकर राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी तो है ही, प्रबंधन के स्तर पर भी काहिली नजर आती है। खुद कृषिमंत्री शरद पवार संसद में कह चुके हैं कि हर साल हजारों करोड़ रुपए के फल और सब्जियां उचित रखरखाव के अभाव में बर्बाद हो जाते हैं। अनाज के मामले में भी यह होता है। कहा जाता है कि विकास दर ऊंची हो तो महंगाई को नजरअंदाज किया जा सकता है। पर मौजूदा स्थिति यह है कि विकास दर उत्साहजनक नहीं है और दूसरी ओर महंगाई बेहद चिंताजनक स्तर पर है। इस दुश्चक्र जैसी स्थिति से निकलने के उपाय तो दूर, वास्तविक कारणों की गंभीर पड़ताल भी नहीं हो रही है।

जनसत्ता

  

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