रविवार, 1 सितंबर 2013

सीरिया और तेल संकट

आर्थिक अनिश्चितता से घिरे माहौल में तेल संकट की आशंका ने खतरे की घंटी बजा दी है। चर्चा सिर्फ एक बात की है कि क्या अमेरिका अगले एक-दो दिनों में अपने सहयोगी देशों के साथ मिल कर सीरिया पर हमला करने वाला है। हमले के सारे तर्क उपलब्ध हैं और इस बार शायद दुनिया में अमेरिकी सैनिक कार्रवाई का वैसा विरोध भी न हो, जैसा इराक पर हमले के दौरान नजर आया था।
विश्व जनमत कई बातों को लेकर सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल असद और उनकी सरकार से नाराज है। यह बात और है कि इस नाराजगी को खाड़ी क्षेत्र में एक और लड़ाई की दलील नहीं बनाया जा सकता। सीरिया में पिछले डेढ़ वर्षों से जारी गृहयुद्ध को बशर ने सचेत ढंग से शिया बनाम सुन्नी की शक्ल दी, जबकि इसकी शुरुआत सभी अरब तानाशाहियों के खिलाफ उठे प्रतिरोध आंदोलन के हिस्से के रूप में हुई थी।
राजधानी दमिश्क के करीब हाल में हुए स्नायु गैस के हमले में तीन सौ से ज्यादा आम नागरिकों की मौत ने उनकी सत्ता को पूरी तरह अलग-थलग कर दिया है। रासायनिक हथियारों का उत्पादन और उपयोग पूरी दुनिया में प्रतिबंधित है और अपने ही देश के निर्दोष लोगों के खिलाफ इसके इस्तेमाल जितना बर्बर कृत्य तो कोई हो ही नहीं सकता। सीरियाई हुकूमत शुरू में इस घटना से इन्कार करती रही, लेकिन हकीकत सामने आ जाने पर वह इसे विद्रोहियों की कारस्तानी बता रही है। समस्या यह है कि पूरे मामले की जांच के लिए वह संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षकों को अपने यहां आने नहीं देना चाहती।
बशर अल असद को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रूस और चीन का वीटो पावर अपने साथ होने का भरोसा है। साथ ही उन्हें यह भी लगता है कि मित्र देश ईरान के साथ युद्ध भड़क जाने और खाड़ी क्षेत्र में एक नया तेल संकट पैदा हो जाने के डर से अमेरिका और उसके मित्र देश इतनी आसानी से सीरिया पर हमला नहीं करने वाले। लेकिन यहां मामला अमेरिका की कूटनीतिक प्रतिष्ठा का है।
सुन्नी प्रभुत्व वाले देशों में यह कहने वाले कम नहीं हैं कि अमेरिका ने सुन्नी शासन वाले इराक पर तो व्यापक जनसंहार का कोई हथियार खोजे बगैर ही हमला बोल दिया, जबकि शिया शासन वाले सीरिया में ऐसे हथियारों के इस्तेमाल के बावजूद उसके खिलाफ कोई कार्रवाई करने को तैयार नहीं है। यह दलील सुन्नी अरब देशों पर अलकायदा की पकड़ और मजबूत बनाने वाली साबित हो सकती है।

दूसरी तरफ आम अरब जनमत अपनी सरकारों को हाथ बांधे अमेरिका के पीछे खड़ा देखने को भी तैयार नहीं है। यह बात अरब लीग के उस फैसले से जाहिर हो रही है, जिसमें उसने सीरियाई शासन की कटु आलोचना के बावजूद उस पर बाहरी हमले की वकालत करने से परहेज किया है। सीरिया पर पश्चिमी हमले के साथ बहुत सारे खतरे जुड़े हैं और अभी के माहौल में इससे बचना ही ठीक रहेगा। लेकिन तानाशाह सत्ताएं इसे कुछ भी कर डालने की छूट न मान लें, इसके लिए रूस और चीन को अमेरिका के अंध विरोध के बजाय बशर अल असद पर अपनी चाल सुधारने का दबाव बनाना चाहिए।

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