उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के सवाल को लेकर विवाद दो दशक पुराना है। संविधान के अनुच्छेद 124 और 217 के अनुसार उच्चतम तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका के हाथ में है। इसके अनुसार उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय के उन जजों की सलाह से करेंगे जो उन्हें उचित लगते हैं, परंतु मुख्य न्यायाधीश के अलावा किसी अन्य जज की नियुक्ति के मामले में मुख्य न्यायाधीश से परामर्श अनिवार्य है। इसी प्रकार उच्च न्यायालय के जज की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश, संबंधित राज्य के राज्यपाल तथा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से करने का प्रावधान है। पंरतु 1993 में उच्चतम न्यायालय की नौ जजों की एक संविधान पीठ ने सेकंड जजेज मामले में बहुमत से यह व्यवस्था दी कि भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के प्रावधान का अर्थ उनकी मंजूरी लेना है। साथ ही निर्णय में यह भी कहा गया कि उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों के एक कॉलेजियम द्वारा ये नियुक्तियां की जाएंगी। 1998 में थर्ड जजेज मामले में इस फैसले को सही ठहराते हुए एक परिवर्तन किया गया कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति में कॉलेजियम में मुख्य न्यायाधीश के अलावा चार वरिष्ठतम जज सदस्य होंगे जबकि उच्च न्यायालय के जज की नियुक्ति में पहले की तरह दो ही वरिष्ठतम जज होंगे।
इस व्याख्या का कोई संवैधानिक आधार नहीं था। फिर भी व्याख्या के नाम पर उच्चतम न्यायालय ने जजों की नियुक्ति का अधिकार कार्यपालिका से छीनकर अपने हाथों में ले लिया। तब से ही सरकार इस व्यवस्था को बदलने का प्रयास कर रही है। संसद के मानसून सत्र में राज्यसभा में 120वां संविधान संशोधन विधेयक भी पारित हो गया, जिसमें जजों की नियुक्ति की वर्तमान व्यवस्था को बदलने का प्रावधान है। हालांकि समयाभाव के कारण लोकसभा में यह पारित नहीं हो पाया। इसमें संविधान के अनुच्छेद 124 तथा 217 को खत्म कर उसकी जगह न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाने का प्रस्ताव है। इस आयोग के छह सदस्य होंगे-भारत के मुख्य न्यायाधीश, उच्चतम न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीश, केंद्रीय कानून मंत्री और दो लब्ध प्रतिष्ठित व्यक्ति। विधि एवं न्याय सचिव इसके सदस्य सचिव होंगे। राज्यसभा में प्रस्ताव पारित होने में कोई परेशानी नहीं हुई, क्योंकि मुख्य विपक्षी दल भाजपा सैद्धांतिक रूप से इसके पक्ष में हैं, किंतु उसने मांग की कि विधेयक को संसद की स्थायी समिति के हवाले किया जाना चाहिए। सांकेतिक विरोध के तौर पर उसने वॉकआउट किया और विधेयक पारित हो गया। वैसे न्यायिक नियुक्ति आयोग से संबंधित प्रस्ताव संसदीय समिति के सुपुर्द कर दिया गया है।
इस विधेयक का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है नियुक्ति के लिए एक आयोग के गठन का प्रस्ताव। चूंकि यह संविधान संशोधन विधेयक है, इसलिए इसे संसद के दोनों सदनों के अतिरिक्त आधे राज्यों की विधानसभाओं से भी पारित कराना होगा। फिर राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद यह संशोधन लागू हो पाएगा। यह एक कठिन एवं लंबी प्रक्रिया है। इस विधेयक का एक विवादास्पद पक्ष यह है कि न्यायिक नियुक्ति आयोग के स्वरूप के निर्धारण का फैसला संसद पर छोड़ दिया गया है। अभी तो यह प्रस्ताव है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश इसके अध्यक्ष होंगे और दो वरिष्ठतम जज सदस्य होंगे। अभी भी यह स्पष्ट नहीं है कि आयोग जजों के नाम का चयन किस प्रकार करेगा तथा उसके पास नाम कौन भेजेगा? इसके अतिरिक्त, यदि किसी नाम पर मतैक्य न बने तो क्या बहुमत से फैसला होगा? छह सदस्यों में बहुमत कैसे होगा, क्योंकि सातवां सदस्य (विधि सचिव) तो सदस्य सचिव होगा। वर्तमान कॉलेजियम द्वारा नियुक्ति की व्यवस्था पूरी तरह असंवैधानिक है। उच्चतम न्यायालय का सेकंड जजेज मामले में दिया गया फैसला पूरी तरह गलत है। इसमें जजों के बीच ही आपसी विचार-विमर्श नहीं हुआ जो होना चाहिए था। न्यायमूर्ति पंछी ने अपनी असहमति में इसे दर्ज भी किया है। उन्होंने लिखा है कि गर्मी की छुट्टी के लिए न्यायालय के बंद होने से पहले इस महत्वपूर्ण मामले में सुनवाई पूरी हो गई थी। उन्हें उम्मीद थी कि अदालत खुलने के बाद इस पर व्यापक विचार-विमर्श होगा, किंतु उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब न्यायमूर्ति जेएस वर्मा द्वारा तैयार किए गए फैसले का प्रारूप उन्हें प्राप्त हुआ जो उन्होंने अपनी तथा छह अन्य न्यायाधीशों की ओर से लिखा था। न्यायमूर्ति पंछी समझ गए कि सब कुछ तय हो गया है और उनके पास अपनी असहमति दर्ज कराने के अलावा अन्य कोई चारा नहीं था। इसके अलावा फैसला कभी अदालत में सुनाया नहीं गया जो कि अनिवार्य है।
इसके अलावा कॉलेजियम की कार्यप्रणाली पर कई सवाल उठ चुके हैं। इसके कामकाज में कोई पारदर्शिता नहीं है। आरोप तो यहां तक हैं कि कॉलेजियम के सदस्यों के बीच अपने-अपने उम्मीदवारों का चयन कराने के लिए सौदबाजी होती है। इसका पहला शिकार योग्यता होता है। गत जुलाई में गुजरात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भास्कर भत्रचार्य ने सार्वजनिक रूप से भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर पर भेदभाव का आरोप लगाया था। उन्होंने अपने पत्र में लिखा कि जब वह कलकत्ता उच्च न्यायालय में वरिष्ठ जज थे तब कॉलेजियम के एक सदस्य होने के नाते उन्होंने न्यायमूर्ति कबीर की बहन शुक्ला कबीर सिन्हा के जज बनाए जाने का विरोध किया था जिस कारण कारण न्यायमूर्ति कबीर ने उन्हें उच्चतम न्यायालय आने से रोका।
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