''कमजोरों
की शक्ति'' से इस बात का पता चलता है कि हमारा समाज -
मजबूत और कमजोर – नामक दो भागों में विभाजित है। ''शक्ति''
नामक
शब्द को राजनीतिक शक्ति, आर्थिक शक्ति और सामाजिक शक्ति जैसे कई
रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है। यह एक सामान्य धारणा है कि राजनीतिक,
आर्थिक
और सामाजिक शक्ति कुछ ऐसे मुट्ठी भर लोगों के पास केंद्रित है जिन्हें शक्ति सम्पन्न
कहा जा सकता है किंतु यह एक मूक प्रश्न है कि क्या ये तथाकथित कमजोर लोग वास्तव
में कमजोर हैं। मैं ऐसा नहीं मानता, भारत में जहां तक राजनीतिक शक्ति में
भागीदारी का प्रश्न है, जो मेरे विचार से अन्य सारी शक्तियों
की जननी है और उन शक्तियों को प्राप्त करने का वास्तविक माध्यम है। प्रस्तुत
लेख में मैं ''कमजोरों की शक्ति की राजनीतिक शक्ति'' नामक
इस पहलू की विवेचना कर रहा हूं।
भारत
के संविधान में इस बात की घोषणा की गई है कि हमारा देश एक सार्वभौमिक, समाजवादी,
धर्मनिरपेक्ष,
लोकतांत्रिक
गणराज्य है। संविधान निर्माताओं ने संविधान की प्रस्तावना में भारत के सभी
नागरिकों के लिए अन्य बातों के अलावा न्याय, सामाजिक,
आर्थिक
और राजनीतिक तथा समान दर्जा और अवसर उपलब्ध कराने का संकल्प किया है। पंडित
जवाहरलाल नेहरू ने 13 दिसम्बर, 1946 को संविधान सभा
में जो प्रस्ताव पेश किया, उसके माध्यम से संविधान सभा का ऐजेंडा
और लक्ष्य निर्धारित किया गया और संविधान सभा ने इस प्रस्ताव की घोषण की ताकि
भारत के सभी लोगों के लिए न्याय, सामाजिक, आर्थिक और
राजनीतिक समानता और समान अवसर सुनिश्चित हो सके तथा कानून की नजर में विचार,
अभिव्यक्ति,
मत,
धर्म,
व्यवसाय,
संगठन
और क्रियाकलाप की स्वतंत्रता हो जो कानून की शर्तों और सार्वजनिक नैतिकता के आधार
पर हो। इसके साथ ही अल्पसंख्यकों, पिछड़ों और जनजातीय क्षेत्रों के लिए
और वंचित तथा अन्य पिछड़ा वर्गों को पर्याप्त सुरक्षा मिले।
श्री
मोती लाल नेहरू की अपेक्षा में एक समिति द्वारा मई, 1928 में बम्बई (अब
मुम्बई) में एक सर्वदलीय सम्मेलन में संविधान सभा के ऐसे संकल्प की आधारशिला
काफी पहले रखी जा चुकी थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में
अपने उद्घाटन भाषण में पं. नेहरू ने 1936 में लखनऊ अधिवेशन में इस विषय को निम्नानुसार
उठाया था:-
''मैं
इस बात से सहमत हूं कि विश्व की समस्याओं और भारत की समस्याओं का समाधान की
कुंजी केवल समाजवाद ही है। हालांकि, समाजवाद आर्थिक विषय से भी कुछ अधिक है,
यह
जीवन का एक दर्शनशास्त्र है। गरीबी, व्यापक बेरोजगारी, भारत
की जनता की कमियों को समाप्त करने के लिए समाजवाद के अलावा कोई अन्य तरीका मुझे
दिखाई नहीं पड़ता।''
भारतीय
परिदृश्य में महात्मा गांधी ने हर किसी की आंखों के आंसू पोछने का लक्ष्य
निर्धारित किया। गांधीजी ने कहा कि स्वतंत्रता तब तक एक मजाक की तरह ही है जब तक
लोग भूखे-नंगे हों और बेजुबान की तरह दर्द सह रहे हों। हरिजनों के उत्थान के लिए
गांधी जी के संघर्ष को हमेशा ही मानवाधिकारों और सम्मान के लिए उनके संघर्ष के
सबसे अधिक गरिमामय पहलू के रूप में मान्यता दी जाएगी।
महात्मा
गांधी और पं. जवाहर लाल नेहरू के समाजवादी दृष्टिकोण के अलावा परे संविधान के
जनकों ने लोकतंत्र को भारतीय संविधान की आधारभूत विशेषताओं के रूप में देखा।
अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र की सबसे अच्छी परिभाषा देते हुए इसे ''जनता
का, जनता के लिए और जनता द्वारा सरकार'' बताया। इस
प्रकार लोकतंत्र मजबूत लोगों के साथ-साथ कमजोर लोगों का वास्तविक सशक्तीकरण है।
संविधान
की प्रस्तावना में तथाकथित शक्तिहीन लोगों के लिए न्याय और समानता सुनिश्चित
करने की बात की गई है, जो काफी समय से आर्थिक पिछड़ापन अथवा सामाजिक
शोषण, छूआछूत और अन्य बुराईयों के कारण पीड़ित रहे हैं और जाति, धर्म,
प्रजाति
आदि के आधार पर भारतीय समाज पिछड़ गया है। संविधान के निर्माताओं ने लोकसभा और
राज्य विधान सभाओं के प्रतिनिधियों के निर्वाचन एक व्यापक वयस्क मताधिकार के
लिए संविधान में धारा-326 का उल्लेख किया जो सबसे ऐतिहासिक कदम
है। यह सचमुच एक ऐतिहासिक निर्णय था और इसके साथ ही यह कमजोरों का वास्तविक सशक्तीकरण
भी था। इस निर्णय के माध्यम से संविधान ने महिलाओं को भी समान लोकतांत्रिक अधिकार
प्रदान किए, जबकि उस दौरान पश्चिमी देशों में भी मताधिकार
के विषय में समानता मूलक अधिकारों के लिए महिलाएं संघर्ष कर रही थी। इस ऐतिहासिक
निर्णय के समय सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह था कि भारत की जनता का लगभग 84
प्रतिशत हिस्सा निरक्षर था, जब वर्ष 1950 में संविधान
लागू किया गया था। इनमें से अधिकांश लोग गांवों में रहते थे और वे अब तक वैज्ञानिक
और प्रौद्योगिकीय उन्नति के लाभों से वंचित थे।
आज
के राजनीतिक परिदृश्य ने सामाजिक रूप से पिछड़े और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को
कमजोर समझा जाता है और उन्हें ''वोट बैंक'' के रूप में देखा
जाता है। किंतु यह एक तथ्य है कि राजनीतिक दलों द्वारा उन्हें वोट बैंक के रूप
में देखे जाने से उनकी वास्तविक शक्ति का पता चलता है क्योंकि इससे कई दिग्गजों
के भाग्य का फैसला होता है। हर एक राजनीतिक दल उन्हें खुश करके उनका समर्थन
प्राप्त करना चाहते है और उनके लिए हुए रोजगार गारंटी योजनाएं, आवास
परियोजनाएं, वित्तीय राजसहायता और अन्य अनुदान तथा रियायत
उपलब्ध कराएं जाते हैं। हाल के दिनों में विभिन्न स्तरों पर – संसदीय,
राज्य,
स्थानीय
– अक्सर होने वाले चुनाव उनके लिए वरदान साबित हुए हैं, क्योंकि
सत्ता चाहने वाले लोगों को उनके दरवाजे पर आना पड़ता है।
भारतीय
संविधान की धारा-325 में अवसर की समानता सुनिश्चित करने के लिए
प्रावधान शामिल किया गया है, जो संविधान निर्माताओं द्वारा उठाया
गया एक अन्य महत्वपूर्ण कदम है। इसमें स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि सभी
निर्वाचकों के लिए एक सामान्य मतदाता सूची होगी और कोर्इ भी व्यक्ति इस सूची में
शामिल किए जाने के अयोग्य नहीं होगा अथवा धर्म, प्रजाति,
जाति,
लिंग
अथवा अन्य किसी कारण के आधार पर किसी निर्वाचन क्षेत्र के लिए किसी विशेष मतदाता
सूची में शामिल किए जाने के लिए कोई दावा नहीं किया जाएगा। किंतु संविधान के जनकों
ने भारतीय समाज के वंचित हिस्से से जुड़े तथ्यों को भी नजरंदाज नहीं किया। यही
कारण है कि उन्होंने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातीयों के लिए विशेष
सुरक्षा के प्रावधान किए। इसके परिणामस्वरूप लोक सभा और राज्य विधानसभाओं में
अनुसूचित जातीयों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित करने की प्रेरणा
मिली। वर्ष 1992 में भारतीय संविधान के 73वें
और 74वें संशोधनों के जरिए नगर निगमों, नगर पालिकाओं और
पंचायतों में महिलाओं के लिए एक – तिहाई सीटे आरक्षित की गईं। संसद और
राज्य विधानसभाओं में भी इसी प्रकार के आरक्षण के बारे में विचार किया जा रहा है
और विभिन्न राजनीतिक दल और संसदविद् एक व्यावहारिक फार्मूला तैयार करने में जुटे
हैं।
संसद
और राज्य विधानसभाओं के चुनावों में उनके मताधिकार के रूप में संविधान के अधीन
कमजोर लोगों को एक कारगर हथियार अथवा शक्ति सुनिश्चित करने के क्रम में इस बात को
ध्यान में रखा गया है कि यह न केवल एक कागजी प्रावधान भर ही रहे। भारत के
निर्वाचन आयोग को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने का दायित्व सौंपा गया है। यह
एक स्थायी संवैधानिक प्राधिकरण है जो कार्यपालिका के हस्तक्षेप से मुक्त है
ताकि यह स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के संचालन की पवित्र संवैधानिक जिम्मेदारी
को पूरा कर सके। यह कार्य लोकतंत्र के लिए काफी महत्वपूर्ण है। इससे लोकतंत्र को
मजबूती मिलती है और निर्वाचन आयोग को इस बात का श्रेय मिलने के साथ गर्व भी होता
है कि यह देश की करोड़ों लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने की अपनी पवित्र
संवैधानिक जिम्मेदारी को पूरे विश्वास के साथ पूरा करता है। लोक सभा के 14 आम
चुनावों और राज्य विधानसभाओं के 300 से अधिक आम चुनावों के परिणाम इस बात
के सबूत हैं कि निर्वाचन आयोग संविधान द्वारा सौंपी गई जिम्मेदारी को सफलतापूर्वक
पूरा करता है। इसके साथ ही यह कमजोर लोगों को न्यायसंगत मार्ग उपलब्ध कराता है
ताकि वे अपने मताधिकार का इस्तेमाल करके अपनी राजनीतिक परिपक्वता दर्शा सकें।
यहाँ तक कि देश के मौजूदा प्रधानमंत्री और राज्यों के कई मौजूदा मुख्यमंत्रियों
को भी पराजय का सामना करना पड़ा है और देश के कमजोर लोगों के हाथों की शक्ति के
कारण वे परास्त हुए हैं। दूसरी ओर, धरती के पुत्रों और गरीबों, स्थानीय
स्कूल के शिक्षकों के सामाजिक क्षेत्र में उत्थान के बल पर उन्हें देश के
सर्वोच्च निर्वाचित कार्यालयों में शोभायमान होने का मौका मिलता है।
pib
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