सीरिया पर सैन्य कार्रवाई का खतरा तो
फिलहाल टल गया है,
लेकिन
अमेरिका और इसके सहयोगी देशों ने रूस के खिलाफ जो छद्म युद्ध छेड़ रखा है, उसका रणक्षेत्र सीरिया बन गया है। आगे
सीरियावासियों को और भी भयानक परिणाम झेलने होंगे और इस बात की भी पूरी संभावना है
कि यह क्षेत्र अंतरराष्ट्रीय आतंकियों का अड्डा बन जाएगा। विडंबना यह है कि सीरिया
पर हमला करने के लिए अमेरिका जिस संयुक्त राष्ट्र को दरकिनार करना चाहता था, वही अब सीरिया में रासायनिक हथियारों
के शांतिपूर्ण खात्मे में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। सीरिया भी अपने
रासायनिक हथियारों के जखीरे को नष्ट करने के लिए तैयार हो गया है, क्योंकि भीषण गृहयुद्ध के दौरान इन
हथियारों की सुरक्षा करना एक दुश्कर कार्य बन चुका है। इससे भी बड़ी विडंबना यह है
कि जो दो महाशक्तियां अपने रासायनिक हथियारों को 15 साल के अंदर नष्ट करने की संधि
तक नहीं कर पाईं,
वे
ही अब सीरिया में रासायनिक हथियारों को नष्ट करने की आठ माह की समयसीमा तय कर रही
हैं। रूस और अमेरिका रासायनिक हथियार संधि के तहत 2012 की तीसरी और अंतिम समयसीमा
का पालन नहीं कर पाए हैं। हालांकि इस करार के बाद भी सीरिया के खूनी गृहयुद्ध पर
अधिक प्रभाव नहीं पड़ेगा। इस संघर्ष में सीरिया सरकार को रूस और विद्रोही गुटों को
अमेरिका का समर्थन व सहयोग मिल रहा है।
असल में, रूस और अमेरिका अपने ढाई वर्ष पुराने छद्म युद्ध को सीरिया में जारी
रखने पर आमादा हैं। सीरिया के गृहयुद्ध में हुई एक लाख मौतों में से अधिकांश
विदेशी हथियारों से हुई है, जिन्हें अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस
गठजोड़ या रूस ने प्रदान किए हैं। ये देश ही 21 अगस्त को सीरिया में हुए रासायनिक
हमले में हुई मौतों पर मगरमच्छी आंसू बहाने में सबसे आगे थे। विद्रोहियों को
अमेरिकी हथियारों की आपूर्ति का वित्तापोषण अरब के शेखों ने किया है। कुछ शेख तो
अमेरिका से हथियार मंगाकर सीधे सीरियाई विद्रोहियों और स्वतंत्र जिहादियों को दे
रहे हैं और इस तरह विद्रोहियों और जिहादियों के बीच के संबंधों को एक तरह से
रेखांकित कर रहे हैं।
इस आलोक में अहम सवाल यह है कि सीरिया
का भविष्य क्या होगा? क्या
उत्तारी सीरिया और इराक के सुन्नी इलाकों में आतंकवाद का एक नया अंतरराष्ट्रीय
केंद्र बनने जा रहा है? और
क्या सीरिया की नियति लीबिया, इराक और अफगानिस्तान से इतर होगी, जहां अमेरिकी दखल ने कभी खत्म न होने वाली हिंसा को जन्म दिया है।
सीरिया का मुद्दा राष्ट्रपति बशर अल-असद या रासायनिक हथियारों से कहीं व्यापक है।
यह अमेरिका, इंग्लैंड और फ्रांस के प्रभाव वाले
मध्यपूर्व देशों में सुन्नियों और ईरान से लेकर इराक, सीरिया व लेबनान में शियाओं के बीच
टकराव से जुड़ा हुआ है। भूमध्य सागर के किनारे सीरिया के तारतस बंदरगाह में पूर्व
सोवियत संघ के देशों से बाहर रूस का इकलौता सैन्य अड्डा है। रूस शिया मुसलमानों के
संरक्षक के रूप में उभर रहा है। उधर, अमेरिका और इस क्षेत्र की दो पूर्व औपनिवेशिक शक्तियां इंग्लैंड व
फ्रांस 1970 में मिस्न के पाला बदलने के बाद से इस क्षेत्र में स्थापित अपने
भूराजनीतिक आधिपत्य को कायम रखना चाहती हैं।
पिछले कुछ दशकों से अमेरिका ने सुन्नी
इस्लामी शासकों के साथ अपने संबंध प्रगाढ़ किए हैं, इनमें अरब शेख भी शामिल हैं जो मुस्लिम उग्रवादी समूहों और मदरसों का
वित्तापोषण करते हैं। वाशिंगटन 11 सितंबर, 2001 के आतंकी हमले के सबक पहले ही भूल चुका है कि उसे दीर्घकालीन
सामरिक लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए न कि अल्पकालिक रणनीतिक जीतों पर।
इसका ताजा उदाहरण ओबामा का कुख्यात अफगान तालिबान के साथ मोलभाव के प्रयास हैं।
असद के अधिनायकवादी शासन के खिलाफ
जिहादियों को समर्थन देने की ओबामा की नीति ने कट्टरपंथी इस्लामिस्टों के हाथ
मजबूत किए हैं। सीआइए समर्थित उपद्रवी गुट फ्री सीरियन आर्मी का स्थान अमेरिकी
विदेश विभाग द्वारा घोषित आतंकी संगठनों अल नुसरा फ्रंट, इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक और लेवांत लेते
जा रहे हैं। ये संगठन अल-कायदा की विचारधारा से प्रभावित हैं और अपनी पंथिक
उत्प्रेरणा तथा युद्ध कौशल में फ्री सीरियन आर्मी से बेहतर सिद्ध हो रहे हैं।
इराक के तर्ज पर सीरिया के विभाजन का
खतरा बढ़ गया है। 18 जुलाई को ओबामा के प्रवक्ता जे कार्नी ने घोषणा की थी कि असद
फिर से पूरे सीरिया पर हुकूमत नहीं कर पाएंगे। यह संकेतक है कि ओबामा के सैन्य
गतिरोध मिशन का अघोषित लक्ष्य सीरिया का विभाजन है। इसमें भी असद को सीरिया का पार्श्व
भाग ही मिलने की संभावना है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार
ब्रेजेंस्की ने स्वीकार किया है कि गतिरोध उनके पक्ष में है। यह पूरे इलाके को
परस्पर टकराव में उलझाने की शैतानी चाल है। जैसाकि सीआइए के पूर्व उप निदेशक मिशेल
मोरेल ने कहा है कि सीरिया के उत्तार में पहले ही जिहादियों के नियंत्रण को देखते
हुए अल-कायदा के उभरने का खतरा पैदा हो गया है। ऐसा पहले अफगानिस्तान में हो चुका
है, जब सोवियत संघ से अमेरिका के छद्म
युद्ध में कट्टरपंथी ताकतें मजबूत होकर निकली थीं।
असल में, अमेरिका सीरिया के दलदल में धंस चुका है। तेल शेखों द्वारा छद्म
युद्ध का खर्चा उठाने के कारण वह उनका कृतज्ञ है। सीआइए से विद्रोहियों को मिलने
वाली चोरी-छिपे मदद अब खुलकर दी जाने लगी है। सीरिया पहले ही विदेशी सुन्नी
जिहादियों की चुंबक बन गया है, इनमें से कुछ इराक और लेबनान पर हमले कर रहे हैं। जिस प्रकार
अफगानिस्तान में अमेरिका ने मुजाहिद्दीन को हथियारबंद किया था, उसी प्रकार सीरिया में अपने
प्रतिनिधियों की वफादारी जीतने में असमर्थ सीआइए अब कट्टरपंथीताकतों के साथ
अंतरराष्ट्रीय संधियां करने जा रहा है, जो हिंसा को पंथिक औजार के तौर पर इस्तेमाल करने में यकीन रखती हैं।
अमेरिका और उसके सहयोगियों के लिए
सीरिया में छद्म युद्ध वास्तव में ईरान को काबू में रखने का बड़ा छद्म युद्ध है।
विस्फोटक होते भूराजनीतिक हालात में नागरिकों के विस्थापन और जान-माल के भारी
नुकसान को देखते हुए सीरिया का भी अफगानिस्तान सरीखा हश्र होने जा रहा है, जो एक पीढ़ी से क्षेत्रीय अस्थिरता और
अंतरराष्ट्रीय चिंता का विषय बना हुआ है और जहां अमेरिका अपना सबसे लंबा सैन्य
टकराव खत्म करना चाह रहा है, जो उसके करीब एक हजार अरब डॉलर बर्बाद कर चुका है।
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