सोमवार, 9 सितंबर 2013

सिद्ध चिकित्सा पद्धति

सिद्ध चिकित्सा का विज्ञान

सिद्ध चिकित्सा के वैज्ञानिक आधार का लम्बा और विविध इतिहास है। परम्परा के अनुसार यह द्रविड़ संस्कृति द्वारा विकसित सबसे पुरानी परम्परागत उपचार विधि है। ताड़ के पत्तों पर लिखी पांडुलिपियों में बताया गया है कि भगवान शिव ने सबसे पहले अपनी पत्नी पार्वती को इसके बारे में बताया था। पार्वती ने यह ज्ञान अपने पुत्र मुरुग को दिया। उसने यह सारा ज्ञान अपने प्रमुख शिष्य अगस्त्य को दिया। अगस्त्य ऋषि ने 18 सिद्धों को इसके बारे में बताया और उन्होंने इस ज्ञान का लोगों में प्रचार किया।

सिद्ध शब्द हिन्दी के शब्द सिद्धि से बना है, जिसका मोटे तौर पर अर्थ है- विशेष योग्यता की प्राप्ति। सिद्धि को उन 8 अलौकिक शक्तियों की प्राप्ति के साथ भी जोड़ा जाता है, जो मानवीय प्रयासों के अंतिम लक्ष्य का एक हिस्सा हैं।

जिन लोगों ने उपरोक्त शक्तियों को प्राप्त किया, उन्हें सिद्ध कहा जाता है। प्राचीन काल में 18 महत्वपूर्ण सिद्ध थे, जिन्होंने सिद्ध चिकित्सा पद्धति को विकसित किया।

ऐतिहासिक रूप से माना जाता है कि प्रमुख सिद्ध 18 थे। अगस्त्य ऋषि को सिद्ध चिकित्सा का जनक माना जाता है। सिद्धों का सिद्धांत है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ आत्मा का विकास हो सकता है। इसलिए उन्होंने ऐसी विधियां और औषधियां विकसित कीं, जिनसे शरीर पुष्ट होता है और आत्मा को पुष्टि मिलती है।

सिद्ध पद्धति की पांडुलिपियों से पता चलता है कि 18 सिद्धों की शिक्षाओं से एक संयुक्त चिकित्सा पद्धति का विकास हुआ। आज सरकारी विश्वविद्यालयों के अंतर्गत मान्यता प्राप्त सिद्ध मेडिकल कॉलेज हैं, जहां सिद्ध चिकित्सा के बारे में पढ़ाया जाता है।

मूल सिद्धांत

सिद्ध चिकित्सा की औषधि का मतलब है परिपूर्ण औषधि। सिद्ध चिकित्सा शरीर के रोगी अवयवों को फिर से जीवंत और सक्रिय करने में कुशलता का दावा करती है। यह चिकित्सा मानव स्वास्थ्य के लिए आवश्यक तीन महत्वपूर्ण अंशों- वात, पित्त और कफ़ के अनुपात में भी उचित संतुलन बनाने का दावा करती है।

आमतौर पर सिद्ध चिकित्सा के मूल सिद्धांत अन्य भारतीय स्वास्थ्य विज्ञान - आयुर्वेद जैसे हैं। केवल मात्र अंतर यही है कि सिद्ध चिकित्सा, बाल अवस्था, प्रौढ़ अवस्था और वृद्ध अवस्था में क्रमशवात, पित्त और कफ़ की प्रमुखता को मान्यता देती है, जबकि आयुर्वेद में यह इसके पूरी तरह उलट है, यानी आयुर्वेद में बाल अवस्था में कफ़, वृद्ध अवस्था में वात और प्रौढ़ अवस्था में पित्त की प्रमुखता को माना जाता है।

राष्ट्रीय सिद्ध संस्थान

राष्ट्रीय सिद्ध संस्थान, सिद्ध चिकित्सा का प्रमुख संस्थान है, जो चेन्नई में तम्बरम में स्थित है। इस संस्थान का मुख्य उद्देश्य सिद्ध चिकित्सा प्रणाली के लिए अनुसंधान और उच्च अध्ययन की सुविधा उपलब्ध कराना तथा इस प्रणाली के लिए वैश्विक मान्यता प्राप्त करने में सहायता करना है। यह संस्थान उन सात शीर्ष राष्ट्र स्तरीय शिक्षा संस्थाओं में से एक है, जो भारतीय चिकित्सा पद्धतियों में उत्कृष्टता को बढ़ावा देती हैं। सिद्ध चिकित्सा में अनुसंधान की एकमात्र संस्था - केन्द्रीय सिद्ध अनुसंधान परिषद (सीसीआरएस) का राष्ट्रीय मुख्यालय भी यहां पर स्थित है।
2010 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इस संस्थान को संरक्षित स्मारक घोषित कर दिया, जिसके परिणाम स्वरूप वहां स्थित मौजूदा भवनों की मरम्मत या नवीकरण पर राष्ट्रीय स्मारक प्राधिकरण ने प्रतिबंध लगा दिया।

केन्द्रीय आयुर्वेद और सिद्ध अनुसंधान परिषद (सीसीआरएएस), नई दिल्ली के अंतर्गत 1978 में स्थापित सिद्धावास अनुसंधान परिषद, 2010 तक रही। मार्च, 2010 में केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आयुष विभाग ने सिद्ध चिकित्सा में अनुसंधान के लिए केन्द्रीय सिद्ध अनुसंधान परिषद (सीसीआरएस) की स्थापना की, जिसके लिए तमिलनाडु और अन्य स्थानों के सिद्ध समुदाय ने काफी समय से दबाव डाल रहे थे। नई परिषद का मुख्यालय चेन्नई में बना और परिषद का अधिकृत रूप से गठन सितंबर, 2010 में हुआ।

विश्व सिद्ध दिवस
पहला विश्व सिद्ध दिवस 14 अप्रैल, 2009 को मनाया गया। इसका उद्घाटन तमिलनाडु के तत्कालीन राज्यपाल श्री सुरजीत सिंह बरनाला ने किया। आज के समय में सिद्ध चिकित्सा के महत्व और इसकी पर्यावरण हितैषी विशिष्टताओं को देखते हुए इस दिवस को हर साल बहुत ही उपयुक्त तरीके से मनाया जाता है। तीसरा सिद्ध दिवस केरल में त्रिवेंद्रम में मनाया गया, जबकि 2012 में विश्व सिद्ध दिवस को चेन्नई में ही मनाया गया।


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