पिछले दो दशकों में भारत का आर्थिक उदय
उल्लेखनीय घटना है। इसने करोड़ों लोगों को घोर गरीबी से निकालकर ठोस मध्यवर्ग बनाया है। बहुत ही खराब शासन के बीच समृद्धि
हासिल की गई है। भारतीय निराश हैं कि सरकारें कानून-व्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य और साफ पानी जैसी आधारभूत सेवाएं भी नहीं दे पा रही हैं।
देश को ईमानदार पुलिसकर्मियों, सक्षम अधिकारियों, तेजी से न्याय देने वाले न्यायाधीशों, अच्छे स्कूलों व प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की सख्त जरूरत है। जब
अन्य जगहों पर सड़क बनाने में तीन साल लगते हैं तो हमारे यहां दस साल नहीं लगने
चाहिए। न्याय दो साल में मिल जाना चाहिए।
एक सफल लोकतंत्र में निर्णायक कार्रवाई
सुनिश्चित करने वाली शक्तिशाली केंद्रीय अथॉरिटी होनी चाहिए। कानून का पारदर्शी
राज होना चाहिए और यह लोगों के प्रति जवाबदेह हो।
सफल लोकतंत्र के ये तीन मूलभूत तत्व हैं। हमने हाल ही में स्वतंत्रता दिवस
मनाया है। आइए इस मौके पर सवाल करें कि हम ऐसी राज्य-व्यवस्था कैसे हासिल करेंगे?
तीन सूत्रीय एजेंडा:
बदलाव की उम्मीद हैं दुर्भाग्य है कि
अन्ना हजारे का आंदोलन सुधार के लिए जागृति तो ला सकता है पर देश की अवस्था को
सुधारने के लिए जरूरी कठोर राजनीतिक काम नहीं कर सकता। एक व्यापक भ्रष्टाचार
विरोधी कानून है तो अच्छा विचार पर यह केवल पहला कदम है। शासन की प्रमुख
संस्थाओं-नौकरशाही, न्यायपालिका, पुलिस और संसद में सुधार लाने के लिए
धैर्य और संकल्प के साथ लगातार प्रयास जरूरी हैं।
देश का सौभाग्य होगा यदि वह एक ऐसा
ताकतवर नेता ला सके जो इन संस्थाओं का सुधारक सिद्ध हो। हमारी उम्मीदें तो
महत्वाकांक्षाओं से भरी युवा पीढ़ी पर टिकी हैं। यह वर्ग सुधारों के लिए बेचैन है।
लेकिन इसके सामने विकल्प नहीं है। मौजूदा दल मतदाताओं को गरीबों, अनपढ़ों की भीड़ समझते हैं, जिसे चुनाव आने पर लुभावनी घोषणाओं से
तथा मुफ्त की चीजें देकर खुश करना होता है। युवा ऐसे नागरिक जीवन को ठुकरा देंगे
जिसे ताकतवर भ्रष्ट लोगों ने आकार दिया हो।
भारत के राजनीतिक शून्य को भरना:
एजेंडे का पहला बिंदु एक नई उदारवादी
पार्टी है जो आर्थिक नतीजों के लिए अधिकारियों की बजाय बाजार पर भरोसा रखती हो और
जो शासन संबंधी संस्थाओं में सुधार के लिए लगातार ध्यान केंद्रित करे। चूंकि
मौजूदा राजनीतिक पार्टियां दक्षिणपंथी झुकाव वाले मध्यमार्ग में मौजूद शून्य को
भरने से इनकार कर रही है, युवा भारत ऐसी उदारवादी पार्टी को पूरा समर्थन देगा। इसे चुनावी
सफलता जल्दी नहीं मिलेगी, लेकिन यह शासन में सुधार की बात को चर्चा के केंद्र में लाने में सफल
होगी।
युवाओं को यह समझ में नहीं आता कि
अद्भुत धार्मिक व राजनीतिक आजादी देने वाला उनका देश आर्थिक आजादी देने में क्यों
नाकाम हो जाता है। भारत में हर पांच में से दो व्यक्ति स्वरोजगार में लगे हैं पर
बिजनेस शुरू करने के लिए 42 दिन लगते हैं। व्यवसायी अंतहीन लालफीताशाही व भ्रष्ट
इंस्पेक्टरों का शिकार हो जाते हैं। आश्चर्य नहीं कि ‘वैश्विक स्वतंत्रता सूचकांक’ पर भारत 119वें और ‘व्यवसाय करने की सहूलियत’ में 134वें स्थान पर है।
भारत की नई नैतिक धुरी की खोज :
लोग सिर्फ सजा के डर से कानून का पालन
नहीं करते बल्कि इसलिए भी करते हैं कि उन्हें लगता है कि यह निष्पक्ष और न्यायसंगत
है। दुर्भाग्य यह रहा कि स्वतंत्र भारत के नेता संविधान के उदार मूल्यों को आगे
बढ़ाने में विफल रहे। इसलिए उदार राजनीतिक दल बनाने के बाद एजेंडे का दूसरा बिंदु
है संविधान को लोगों तक पहुंचाकर संवैधानिक नैतिकता को पुर्नस्थापित करना।
स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत में ही
महात्मा गांधी को यह अहसास हो गया था कि संवैधानिक नैतिकता की पश्चिमी भाषा आम
लोगों को आंदोलित नहीं करेगी पर धर्म की नैतिक भाषा इसमें सफल होगी। इसलिए
उन्होंने साधारण धर्म के आम नीतिशास्त्र को पुनर्जीवित किया। हमारे संविधान
निर्माताओं ने अपने भाषणों में गाहेबगाहे धर्म का आह्वान किया है।
यहां तक की राष्ट्रध्वज में भी
धर्मचक्र (अशोकचक्र) को स्थान दिया। चाहे गांधी छुआछूत को खत्म न कर पाए हों पर
उन्होंने इससे स्वतंत्रता आंदोलन में प्राण फूंक दिए। इसी तरह आज संविधान के
आदर्शो को युवाओं तक पहुंचा कर संविधान को नैतिक आईने का रूप देने की चुनौती है।
ये आदर्श सहज रूप से हमारे जीवन का अंग बन जाने चाहिए। नए दल का यह सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य होगा।
राजनीति में भागीदारी :
उदारवादी एजेंडे का तीसरा बिंदु है
राजनीति में अच्छे लोगों की भागीदारी। आजादी के 66 साल बाद राजनीति में कुलीनता का
स्थान आपराधिकता ने ले लिया है। शुरुआत उस कॉलोनी से हो सकती है जहां हम रहते हैं।
अच्छे लोगों के राजनीति में आने से राजनीतिक दलों को प्रबल संकेत मिलेगा कि काले
धन और वंशवाद को और सहन नहीं किया जाएगा। राजनीतिक दलों को भारतीय कंपनियों से प्रतिभाओं की कद्र करना सीखना होगा।
ये तीन बिंदु मिलकर भारत के लिए ‘उदारवादी एजेंडा’ बनाते हैं। अपना काम करने पर मनमाने
तरीके से दंडित किए जाने वाले दुर्गा शक्ति, अशोक खेमका और ऐसे सैकड़ों ईमानदार व मेहनती सिविल अधिकारी मिलकर वह ‘नैतिक आईना’ बनाते हैं जिसमें हम अपना चेहरा देख
सकते हैं। वे हमें सिखाते हैं कि शिकायत करते रहने का कोई अर्थ नहीं है। इसका जवाब
तो इसी में है कि अच्छे स्त्री-पुरुष राजनीति में आएं और धीरे-धीरे हमारे
सार्वजनिक जीवन की नैतिक धुरी को बदलकर रख दें। यदि अच्छे लोग राजनीति में नहीं
आते तो अपराधी उस पर पूरी तरह कब्जा कर लेंगे।
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