मंगलवार, 17 सितंबर 2013

सेंट पिट्सबर्ग में जी-20 सम्मेलन

जी -20 इस समय वैश्विक अर्थव्यवस्था का कर्ताधर्ता बना हुआ है, लेकिन वह औपचारिक प्रस्तावों और समाधानों से आगे नहीं बढ़ पाया। शायद यही कारण है कि वह यूरोप को आर्थिक संकट से उबारने में असफल रहा। हालांकि यदि वह आर्थिक मसलों पर धीरे-धीरे आगे बढ़ता रहता तो भी यह संतोष किया जा सकता था कि वह लक्ष्य को कुछ हद तक हासिल कर ले जाएगा, लेकिन इधर वह अपने उद्देश्यों से पूरी तरह से भटकता दिखा। आखिर इसकी वजह क्या है? क्या अमेरिका और रूस फिर से शीतयुध्द की ओर बढ़ रहे हैं, इसलिए या फिर दुनिया की विकसित और उभरती अर्थव्यवस्थाएं अभी दिशा ही नहीं तय कर पाई हैं?

सेंट पिट्सबर्ग  के कांसटेनटाइन पैलेस में जी-20 देशों के 8वें शिखर सम्मेलन की जैसे ही शुरूआत हुई, उस पर परम्परागत आर्थिक विषय के प्रभाव की बजाय गैरपरम्परागत विषय यानि सीरिया संकट की छाया कहीं अधिक गहरी दिखायी दी। संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी राजदूत ने जब रूस पर यह आरोप लगाया कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद सीरिया के लोगों की आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरी है और इस हालात के लिए रूस जिम्मेदार है, उसके बाद जी-20 शिखर सम्मेलन दो धड़ों में विभाजित नजर आया। एक तरफ वे देश थे जो अमेरिका के समर्थन में थे और दूसरी तरफ वे जो रूस और चीन के साथ थे। जी-20 के सम्मेलन इस विभाजन को देखकर सवाल यह उठता है कि क्या सीरिया इतना अहम् मुद्दा है कि दुनिया के ये 20 देश, जो वैश्विक अर्थव्यवस्था का नेता होने का दावा करते हैं, आर्थिक चुनौतियों के समाधान को तलाशने की बजाय सीरिया पर उलझे नजर आएं? सेंट पीटर्सबर्ग में जी-20 देशों के विभाजन को देखकर क्या ऐसा नहीं लगा कि अमेरिका और रूस अपनी खेमेबंदी के जरिए दुनिया को शीतयुध्द की ओर ले जाने की एक गलत कोशिश कर रहे हैं?

वर्ष 2008 में अमेरिका में वित्तीय संकट के आने के पश्चात वैश्विक आर्थिक सहयोग के लिए जी-20 का गठन अथवा ऑपरेशनल शुरूआत हुई क्योंकि इसका प्रस्ताव 1999 में ही कनाडियन प्रधानमंत्री पॉल मार्टिन ने किया था लेकिन सार्थक कदम उठाते-उठाते इसे कई साल लग गये। 19 देशों और यूरोपीय संघ से निर्मित इस समूह के पास सामूहिक रूप से वैश्विक सकल उत्पाद (जीडब्ल्यूपी) तथा विश्व व्यापार का 80-80 प्रतिशत तथा विश्व की दो-तिहाई आबादी है, इसलिए वास्तव में यह समूह वैश्विक अर्थव्यवस्था का नेतृत्व करने की सामर्थ्य तो रखता है। लेकिन यदि यह समूह संरक्षणवाद, गैरबराबरी के कानूनों तथा अन्य आर्थिक चुनौतियों जैसे विषयों पर गम्भीर विमर्श नहीं कर सकता, तो फिर यह कहा जा सकता है कि जी-20 अपने उद्देश्यों से भटक रहा रहा है। ऐसा नहीं है कि सेंट पीटर्सबर्ग में आर्थिक लिहाज से कुछ भी ऐसा नहीं हुआ जो आज प्रासंगिक न हो लेकिन सीरिया के सामने वह सब गौण हो गया।

दरअसल पिछला एक बड़ा अंतराल ऐसा रहा है जिसमें दुनिया में आर्थिक विकास धीमा रहा, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संकट में प्रतिबिंबित अंतरविरोध तीव्र हुआ और ढांचागत समस्या का समाधान नहीं हो सका। इसलिए सम्मेलन में विभिन्न पक्षों द्वारा दलील दी गयी कि जी 20 के विभिन्न सदस्य देशों को नीतिगत समन्वय व सहयोग को प्रगाढ़ कर मुद्रा नीति के प्रभाव का अच्छी तरह निपटारा करना चाहिए, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय बाजार की स्थिरता की रक्षा करनी चाहिए और विभिन्न देशों के कल्याण पर ख्याल करना चाहिए, ताकि विश्व की अर्थव्यवस्थाएं मजबूत, सतत व स्थिर विकास के लिए नींव डाल सकें। इसके बाद जी-20 द्वारा 27 पृष्ठों का एक घोषणापत्र जारी किया गया जिसमें कहा गया है कि कर नियमों को बेहतर बनाने की जरूरत है। इसमें यह भी प्रावधान किया गया है कि कई देशों में काम करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपने मुनाफे को ट्रांसफर प्राइसिंग के जरिये कम कर वाले देशों में ले जाने का मौका नहीं मिलना चाहिये और न ही ऐसी गतिविधियों को प्रोत्साहन मिलना चाहिये। घोषणापत्र में कहा गया है मुनाफे पर कर उसी जगह लगना चाहिये जहां आर्थिक गतिविधियां हुईं और मुनाफा अर्जित किया गया और कारोबार हुआ। इस घोषणा-पत्र की सीमित विषय सामग्री को देखकर यह कहा जा सकता है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था को सही अर्थों में पटरी पर लाने के लिए जिस तरह के कदमों को उठाने की जरूरत थी, वे नहीं उठाए गये, बल्कि जी-20 के देश रणनीतिक खेमेबंदी में उलझे दिखे। यहां दो खेमे दिखे जिनमें से एक की अगुवाई अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा कर रहे थे जबकि दूसरे की अगुवाई रूसी राष्ट्रपति के हाथों में थी। अमेरिका चूंकि सीरिया पर आमण करने के लिए प्रतिबध्द दिख रहा है इसलिए राष्ट्रपति बराक ओबामा ने यह सिध्द करने की कोशिश की कि बीते महीने दमिश्क में हुए रासायनिक हमलों में सीरियाई सरकार का हाथ है। इसलिए संयुक्त राष्ट्र का समर्थन मिले या न मिले लेकिन दुनिया प्रतियिा व्यक्त करने के लिए बाध्य है। जबकि रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने इस विचार को 'बिल्कुल बेतुका' बताते हुए खारिज कर दिया। चूंकि सीरिया का मामला आधिकारिक रूप से जी-20 के एजेंडे में नहीं था, इसलिए सेंट पीटर्सबर्ग में इस विषय पर कोई निर्णायक कदम नहीं उठाया जा सकता था। फिर भी लामबंदी कुछ कह रही थी। हालांकि भारत और इंडोनेशिया का रुख भी ढुलमुल है भले ही भारत ने यह कह दिया हो वह सीरिया में सैन्य कार्रवाई का समर्थन नहीं करता। दक्षिण अफ्रीका और अर्जेटीना ने संयुक्त राष्ट्र की मंजूरी का बहाना बनाया। यह भी सम्भावना है कि ब्राजील और मैक्सिको भी अमेरिका के साथ न खड़े हों। इसे देखकर कोई भी कह सकता है अमेरिका को वैश्विक स्तर पर कमजोर समर्थन ही हासिल होगा।
बराक ओबामा जानते हैं कि उन्हें सैन्य कार्रवाई के लिए भले ही ब्रिटेन का समर्थन हासिल न हो लेकिन फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वां होलांद का समर्थन हासिल है, तुर्की लंबे समय से सीरिया में हस्तक्षेप की मांग कर रहा है, सउदी अरब सीरियाई विद्रोहियों को समर्थन दे रहे खाड़ी देशों के गठजोड़ का हिस्सा है। कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया, जापान, जर्मनी और यूरोपीय संघ अलग-अलग मसलों पर अलग राय रखते हैं। यानी ओबामा सीरिया पर हमला करने के लिए पर्याप्त समर्थन रखते हैं। अब यह ओबामा को तय करना है कि वे सीरिया पर किस प्रकार का हमला करना चाहते हैं। सवाल यह भी है कि अमेरिका सीरिया पर हमला क्यों करना चाहता? इसका सीधा और सरल उत्तर यह है कि अमेरिका के समक्ष अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने का संकट उत्पन्न हो रहा है? वास्तव में इस विषय पर कोई संशय नहीं होना चाहिए कि यदि अमेरिका सीरिया पर हमला नहीं करता है तो अमेरिकी साख गिरेगी और उसके सहयोगी भी उससे छिटककर बाहर जा सकते हैं। अमेरिकी ताकत ही है कि जिससे चलते यूरोप के देश अमेरिका के पीछे खड़े होने को तैयार हो जाते हैं। इसलिए यदि उन्हें यह आभास हो जाएगा कि अमेरिका कमजोर हो रहा है, तो वे अमेरिकी बैनर के नीचे अपनी सुरक्षा के उपाय नहीं तलाश करेंगे। ऐसा होने पर अमेरिका की साख और गिरेगी और अमेरिकी बाजार में विश्वसनीयता घटेगी जिससे अमेरिका के एक साथ कई मोर्चों पर विफल होने की सम्भावनाएं पैदा हो जाती हैं। अमेरिका ऐसा कदापि नहीं चाहेगा, इसलिए उसे सीरिया पर हमला तो करना ही है। परन्तु इसके लिए वह सर्वप्रथम पुख्ता लामबंदी करना चाहेगा, जिससे कि परिणाम शीघ्रतर और श्रेष्ठ आएं। लेकिन अभी उसे ब्रिटेन और रूस की मनोदशा का सही अध्ययन करना होगा। देर-सबेर ब्रिटेन अमेरिका के पक्ष में खड़ा हो जाएगा और ऐसा होते ही स्थितियां बदलेंगी। दअरसल अमेरिका समझबूझ के साथ कदम बढ़ाना चाहता है ताकि उसकी सैन्य कार्रवाई अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा एक स्वीकृति वैधानिक कार्रवाई मान ली जाए।


बहरहाल सीरिया की भौगोलिक स्थिति कुछ ऐसी है जो एक तरह से ग्लोबल जियो-स्ट्रैटेजिक केन्द्र अथवा स्ट्रेटेजिक कोर जोन का हिस्सा है। इसलिए देखना यह होगा कि अमेरिका सीरिया में लघु स्तर का युध्द लड़ेगा अथवा क्षेत्रीय युध्द को प्रोत्साहित करेगा या फिर वह दुनिया को किसी विश्वयुध्द जैसी स्थिति की ओर ले जाएगा। फिलहाल तो जी 20 में जो दिखा उससे इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि दुनिया धीरे-धीरे शीतयुध्द की ओर बढ़ रही है जिसका निदान जी-20 के पास है भी और नहीं भी। हां इतना जरूर कहा जा सकता है कि जी 20 ने सेंट पीटर्सबर्ग में ऐसा कोई मार्ग नहीं खोजा जा सका जो दुनिया को शांतिपूर्ण, सतत् और स्थायी विकास की ओर ले जाने में समर्थ हो।  

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