लोकसभा
ने भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास एवं पुनस्र्थापन विधेयक को पारित कर
ऐतिहासिक कदम उठाया है। चूंकि इस बिल पर सर्वदलीय सहमति है, इसलिए राज्यसभा
में भी इसके पारित होकर कानून का रूप ले लेने में अब कोई अड़चन आएगी, इसकी
आशंका कम है। 1894 में जब अंग्रेजी हुकूमत ने भूमि अधिग्रहण
कानून बनाया तो उसका मकसद भारतीय किसानों की जमीन का मनमाना उपयोग था। खेद है कि
आजादी के 66 साल बाद तक वही कानून मामूली संशोधनों के साथ
लागू रहा।
किसानों
के संघर्ष के कारण ही सरकार अपेक्षाकृत अधिक कृषक-हितैषी कानून बनाने के लिए
प्रेरित हुई। अगर इस कानून को इसकी मूल भावना के मुताबिक लागू किया गया तो विकास
परियोजनाओं के लिए जमीन गंवाने वाले किसानों को उचित मुआवजा मिलेगा और उनका
संतोषजनक पुनर्वास हो सकेगा। इस कानून को लेकर उद्योगपतियों में जमीन महंगी होने
से परियोजना खर्च बढऩे जैसी कुछ आशंकाएं हैं। लेकिन अगर उद्योग एवं व्यापार जगत
गहराई से सोचे तो पाएगा कि यह कानून उनके हित में भी है।
जनतांत्रिक
चेतना के विस्तार के साथ खेत या खनन भूमि के परंपरागत मालिकों में अपने अधिकार की
समझ गहरी हुई है। नतीजतन हाल के वर्षों में लगभग हर विकास परियोजना उद्योग
जगत/सरकार और विस्थापित होने वाले समुदायों के बीच संघर्ष-स्थली में तब्दील होती
गई है। नए कानून से कृषि-आधारित समुदाय अपने वर्तमान एवं भावी हितों को लेकर
आश्वस्त हो सकेंगे, जिससे सकल विकास नीति में उन्हें हिस्सेदार
बनाना आसान होगा।
एक
लोकतांत्रिक व्यवस्था में विकास थोपा नहीं जाना चाहिए, बल्कि इसका ऐसा
स्वरूप सामने आना चाहिए जिसमें भागीदार बनना समाज के सभी तबकों को अपने फायदे में
महसूस हो। नया कानून इसी दिशा में एक पहल है। इस कानून के संदर्भ में यह भी अहम है
कि राजनीतिक दलों, किसान एवं अन्य जन-संगठनों, संसदीय
स्थायी समिति आदि के बीच विचार-विमर्श से यथासंभव सहमति का मसविदा तैयार हो सका।
मुमकिन है कि इससे भी कई समूह संतुष्ट न हों। मगर लोकतंत्र संपूर्ण नहीं, बल्कि
यथासंभव सहमति से चलता है। नया भूमि अधिग्रहण कानून ऐसी सहमति का एक श्रेष्ठ
उदाहरण है।
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