जिस दौर में फिल्में हमारे देश में आम
मानस और सामाजिक संस्कृति को ढालने में खास भूमिका निभा रही हों तो समझा जा सकता
है कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के कंधों पर कितनी बड़ी जिम्मेदारी है। मुद्दा
है कि क्या बोर्ड अपेक्षाओं के मुताबिक अपना दायित्व निभा पा रहा है? ऐसा होता तो अक्सर बोर्ड से पास
फिल्मों पर विवाद खड़ा नहीं होता और ऐसे मामले अदालतों में नहीं जाते।
यह हाल क्यों है, इसका कुछ संकेत एक फिल्म से पैदा हुए
विवाद से मिला है। मुद्दा हाल में आई हिंदी फिल्म ग्रैंड मस्ती का है। शिकायत है
कि इसमें अश्लील दृश्य और महिलाओं के प्रति अपमानजनक संवाद हैं। समाज के कई तबकों
से फिल्म को प्रतिबंधित करने की मांग उठी। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका
भी दायर की गई है। इसी संदर्भ में सेंसर बोर्ड की अध्यक्ष को कुछ नागरिकों ने पत्र
लिखा।
इसके जवाब में भेजे अपने ई-मेल में
भरतनाट्यम की मशहूर नृत्यांगना और 2011 से बोर्ड अध्यक्ष का पद संभाल रहीं लीला
सैमसन ने कहा कि बोर्ड में 90 फीसदी सदस्य अशिक्षित हैं, जो ऐसे फैसले लेते हैं जिनसे बोर्ड के
लिए शर्मनाक स्थिति पैदा हो जाती है और उसे आलोचना झेलनी पड़ती है। उन्होंने कहा
कि 200 सदस्यीय बोर्ड के \'यादातर सदस्य असंवेदनशील, राजनीतिक रूप से महत्वाकांक्षी और राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता हैं।
इनका चयन केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय करता है।
सैमसन के मुताबिक उन्होंने सूचना एवं
प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी से अनुरोध किया था कि सेंसर बोर्ड को अपने सदस्यों को
नियुक्त करने और उन्हें न्यायिक प्रशिक्षण देने की अनुमति दी जाए, लेकिन तिवारी ने ध्यान नहीं दिया।
स्वाभाविक रूप से सैमसन की इस टिप्पणी पर सेंसर बोर्ड के अनेक सदस्य खफा हैं।
उन्होंने सैमसन से माफी मांगने को कहा है।
मुमकिन है कि सेंसर बोर्ड की अध्यक्ष
के बेलाग रुख से सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय भी नाराज हो, लेकिन जरूरत इस मुद्दे पर गंभीरता से
विचार करने की है। मुद्दा है कि क्या सेंसर बोर्ड में राजनीतिक नियुक्तियां उचित
एवं वांछित हैं?
क्या
यह आवश्यक नहीं है कि वहां आधुनिक मूल्यों एवं संवेदनाओं के प्रति जागरूक लोग
नियुक्त किए जाएं?
बेहतर
होगा, इस मुद्दे पर अनावश्यक विवाद खड़ा न
किया जाए और सेंसर बोर्ड के ढांचे की गंभीरता से संपूर्ण समीक्षा हो।
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