केंद्र सरकार द्वारा खाद्य सुरक्षा
कानून को लोकसभा और राज्यसभा में पारित करा लेने के साथ अर्थव्यवस्था में कोहराम
मचा है। यह ठीक ही है। सरकार के पास वर्तमान खर्च को पोषित करने के लिए राजस्व
नहीं हैं। ऋण के बोझ से सरकार दबी जा रही है। वर्तमान में केंद्र सरकार का कुल
खर्च लगभग 12 लाख करोड़ रुपये है, जबकि आय मात्र सात लाख करोड़ रुपये। लगभग आधे खर्चे को ऋण लेकर पोषित
किया जा रहा है। ऐसे में खाद्य सुरक्षा कानून का लगभग 1.3 लाख करोड़ रुपये
प्रतिवर्ष का बोझ अपने सिर पर लेना अनुचित दिखता है। फिर भी गरीबों को राहत देने के
इस प्रयास का समर्थन करना चाहिए। ईसा मसीह ने गरीबों की हिमायत की और अमीरों को
स्वर्ग के लिए अयोग्य घोषित किया था। ईसाई धर्म की इस सोच के कारण ही इस कानून को
लाने का प्रयास किया गया है, जो स्वागत योग्य है।
समस्या है कि नेक काम को हाथ में लेने
से पहले उसे निर्वाह करने की सामर्थ्य जुटानी चाहिए। घाटे में चल रही दुकान का
मालिक लंगर लगाने चले तो वह एक बार शायद सफल हो भी जाए, परंतु उसकी दुकान खाली हो जाएगी और आगे
वह न तो दुकान चला पाएगा और न ही लंगर लगा पाएगा। ऐसी ही हालत हमारी सरकार की है।
सरकार के पास खाद्य सुरक्षा कानून को लागू करने की सामर्थ्य नहीं है। इस योजना पर
लगभग 1.3 लाख करोड़ रुपये प्रति वर्ष के व्यय होने का अनुमान है। यह वर्तमान खर्च
12 लाख करोड़ का लगभग 10 प्रतिशत बैठता है। सरकार को वर्तमान खर्चो को पोषित करने
के लिए पांच लाख करोड़ के ऋण पहले ही लेने पड़ रहे हैं। अब यह ऋण बढ़कर 6.3 लाख
करोड़ हो जाएगा। अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां भारत के प्रति पहले ही नकारात्मक
हैं। भारत की रेटिंग जंक के ऊपर है। यदि रेटिंग में गिरावट आई तो भारत जंक श्रेणी
में आ जाएगा। ऐसे में भारत से विदेशी पूंजी का और तेजी से पलायन होगा। इस भय के
चलते शेयर बाजार और रुपया, दोनों लुढ़क रहे हैं। हमारे सामने विकट समस्या है। गरीब को सुकून
पहुंचाना है, परंतु इसके लिए हमारी सामर्थ्य नहीं
है। उपाय है कि वर्तमान खर्चो में फेरबदल करके उनकी गुणवत्ता में सुधार किया जाए।
वर्तमान में गरीबों को राहत देने के लिए केंद्र सरकार के द्वारा चार बड़े
कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं-कृषि समर्थन मूल्य, स्वास्थ्य और शिक्षा, मनरेगा और फर्टिलाइजर सब्सिडी। फसलों को समर्थन मूल्य इस आशय से दिया
जाता है कि किसान घाटा न खाएं। स्वास्थ्य एवं शिक्षा कार्यक्रमों का उद्देश्य ग्रामीण
इलाकों में इन सुविधाओं को मुहैया कराना है। मनरेगा का उद्देश्य गरीब को वर्ष में
100 दिन का रोजगार दिया जाना है। खाद सब्सिडी का उद्देश्य है कि किसान की लागत कम
आए और वह घाटा न खाए। 2011-12 में इन कार्यक्रमों पर केंद्र सरकार द्वारा कुल 292
हजार करोड़ रुपये खर्च किए गए। 2013-14 में इन कार्यक्रमों पर 362 करोड़ खर्च होने
का मेरा अनुमान है।
इन कार्यक्रमों का उद्देश्य गरीब को
राहत पहुंचाना है,
परंतु
इनमें गरीब का हिस्सा कम ही है। फूड कार्पोरेशन को दी जा रही सब्सिडी मुख्यत:
कार्पोरेशन के कर्मियों और बड़े किसानों को ही पहुंचती है। स्वास्थ्य और शिक्षा पर
किया जा रहा खर्च सरकारी टीचरों और डॉक्टरों को पोषित करता है। मनरेगा में सरपंच
और विभाग का हिस्सा 25 से 75 प्रतिशत तक बताया जा रहा है। खाद सब्सिडी अकुशल
उत्पादकों तथा बड़े किसानों को जा रही है। हमें ऐसा उपाय करना चाहिए कि गरीब के
नाम पर किया जा रहा खर्च वास्तव में गरीब को पहुंचे। सुझाव है कि इन चारों
कार्यक्रमों को पूरी तरह बंद कर दिया जाए। इससे केंद्र सरकार को 3.62 लाख करोड़
रुपये प्रतिवर्ष की बचत होगी। इस रकम को बीपीएल कार्डधारकों को सीधे दे दिया जाए।
80 करोड़ गरीबों में प्रत्येक को 4,500 रुपये प्रतिवर्ष मिल जाएंगे। पांच
व्यक्तियों का परिवार मानें तो 22,500 प्रतिवर्ष या लगभग 2,000 रुपये प्रति माह
मिल जाएंगे। विशेष यह कि मनरेगा के दिखावटी कार्यो को करने में उसके जो 100 दिन
व्यर्थ हो जाते हैं वे बच जाएंगे। इन 100 दिनों में 125 रुपये की दिहाड़ी से उसे
12,500 रुपये अतिरिक्त मिल जाएंगे। इसे जोड़ लें तो तो प्रत्येक परिवार को 3,000
रुपये प्रति माह मिल सकते हैं। इसके लिए केंद्र सरकार को एक रुपया भी अतिरिक्त
खर्च नहीं करना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त राज्य सरकारों द्वारा लगभग 3.6 लाख करोड़
रुपये इन मदों पर खर्च किए जा रहे हैं। इस रकम को जोड़ लें तो प्रत्येक बीपीएल
परिवार को 5,000 रुपये प्रति माह दिए जा सकते हैं। यह विशाल राशि वर्तमान में गरीब
के नाम पर सरकारी कर्मियों, अकुशल उत्पादकों, बड़े किसानों और अमीरों को दी जा रही है। इसे गरीब तक पहुंचा दें तो
समस्या हल हो जाएगी। इस रकम से परिवार अपने भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा की व्यवस्था कर सकता है।
विपक्ष को चाहिए कि आम आदमी को राहत
पहुंचाने का नया कार्यक्रम पेश करे। खाद्य सुरक्षा कानून में छुटपुट संशोधनों को
पेश करने के स्थान पर फूड कार्पोरेशन, स्वास्थ्य एवं शिक्षा, मनरेगा तथा खाद सब्सिडी कार्यक्रमों को बंद करके इस रकम को सीधे गरीब
को देने की मांग करनी चाहिए। ऐसा करने से बाजार को सरकार के बढ़ते खर्च का भय जाता
रहेगा। सरकार को खर्च पोषित करने के लिए भारी मात्र में अतिरिक्त ऋण नहीं लेने पड़ेंगे।
सरकार का वित्तीय घाटा नियंत्रण में आएगा। सरकार को देश के उद्यमियों पर अतिरिक्त
टैक्स नहीं लगाना पड़ेगा। उद्यमियों को राहत मिलेगी। उत्पादन बढ़ेगा। सरकार को
टैक्स ज्यादा मिलेगा और रुपया संभल जाएगा।
डॉ. भरत झुनझुनवाला
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