कभी ईरान के शाह पहलवी अमेरिका के बहुत
प्रिय हुआ करते थे लेकिन जब उनकी यादतियां सारी हदें पार कर गईं तो ईरान की अवाम
ने पेरिस में रह रहे एक धार्मिक नेता अयातोल्ला खुमैनी के नेतृत्व में उनका तख्त
बदल दिया, ताज बदल दिया और इस्लामी सरकार कायम कर
दी। ईरान में अपनी तरह की लोकशाही शुरू हो गई और अमरीका और ईरान में दूरियां बढ़
गईं। एक मुकाम तो ऐसा भी आया जब अमरीका ने ईरान पर सद्दाम हुसैन से हमला करवाया।
यह पुरानी बात है। उसके बाद से दजला और फरात नदियों में बहुत पानी बह गया। सद्दाम
हुसैन जो कभी अमेरिका के सबसे करीबी भक्त हुआ करते थे, अमेरिका की कृपा से मारे जा चुके हैं, इराक में अब शिया मतावलंबी
प्रधानमंत्री पदस्थ किया जा चुका है और अमेरिका की समझ में पूरी तरह से आ गया है
कि ईरान से पंगा लेना उसको बहुत महंगा पड़ सकता है। ऐसे माहौल में अमेरिका ने एड़ी
चोटी का जोर लगाकर ईरान से दोस्ती की कोशिश शुरू कर दी है। परमाणु हथियारों की
अपनी दादागीरी की आदत से अमेरिका को बहुत नुकसान हुआ है लेकिन वह दुनिया के किसी
मुल्क की परमाणु ताकत को वह अभी भी दबा देना चाहता है। अमरीका समेत सुरक्षा परिषद
के सभी पांचों स्थायी सदस्यों की इच्छा यही रहती है कि उनके अलावा और कोई भी
परमाणु ताकत न बने लेकिन उनकी चल नहीं रही है। ईरान के मामले में भी एक बार यही हो
रहा है लेकिन दुनिया की राजनीति के बदल रहे नए समीकरणों के चलते अब खेल बदल गया
है। अब ईरान को एक परमाणुशक्ति के रूप में स्वीकार करने के अलावा अमरीका के सामने
और कोई रास्ता नहीं है।
ईरान के साथ अमरीका और अन्य देशों के
समझौते का जश्न पश्चिमी दुनिया में मनाया जा रहा है लेकिन इस समझौते से एक तरह से
परमाणु हथियारों की दुनिया में अपना दबदबा बनाए रखने की सुरक्षा परिषद के स्थायी
देशों की मंशा ही सबसे स्थायी कारण नजर आती है। इजरायल के दबाव में पिछले कई
वर्षों से इ्ररान पर पश्चिमी देशों की तरफ से लगाई गई पाबंदियां भी देश के हौसले
को नहीं रोक पाईं। बहरहाल आखिर में उनकी समझ में आ गया कि ईरान से बातचीत करने का
सही तरीका यह है कि उसको रियाया न समझा जाए, उसके
साथ बराबरी के स्तर पर बातचीत की जाए ।
मौजूदा समझौते के बाद ईरान का परमाणु
संवर्धन का कार्यक्रम जारी रहेगा। दस्तावेज में लिखा है कि शान्तिपूर्ण उद्देश्यों
के लिए आपसी परिभाषा के आधार पर परमाणु संवर्धन का कार्यक्रम चलाया जाएगा। इरान ने
वचन दिया है कि वह समझौते के छ: महीनों में यूरेनियम का पांच प्रतिशत से यादा का
संवर्धन नहीं करेगा या 3.5 प्रतिशत संवर्धन वाला जो उसका भण्डार
है उसमें कोई वृध्दि नहीं करेगा। 3.5
प्रतिशत के संवर्धन पर ही बिजली पैदा की जा सकती है जबकि हथियार बनाने के लिए 90 प्रतिशत संवर्धन की जरूरत पड़ती है।
इरान ने समझौते में पूरा सहयोग किया है। उसने अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी
को अपने परमाणु ठिकानों की जांच करने का पूरा अधिकार देने का वचन दिया है। इसके
बदले में अमरीका, फ्रांस, चीन, रूस, जर्मनी और ब्रिटेन ने ईरान को वादा किया है कि वह उसके तेल पर लगाई
गई पाबंदियों पर ढील देगें। ईरान से
पेट्रोल के निर्यात पर जो पाबंदी लगी हुई है वह भी दुरुस्त की जायेगी। सुरक्षा
परिषद में भी ईरान के खिलाफ कोई पाबंदी का
प्रस्ताव नहीं लाया जाएगा। ओबामा की सरकार भी
ईरान पर पाबंदियां लगाने या उसकी धमकी देने से बाज आयेगी। यह पाबंदियां
इरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए लगाई गई थीं। वह तो कहीं रुका नहीं
अलबत्ता ईरान की जनता ने सारी तकलीफें झेलीं।
इजरायल इस नए कूटनीतिक विकास से सबसे यादा परेशान है। उसके जाहिर से कारण
हैं। अभी तक वह अमेरिका के लठैत के रूप में पश्चिम एशिया में मनमानी करता रहा है
लेकिन सऊदी अरब की परेशानी भी कम नहीं है। ईरान के साथ अमरीका के रिश्ते ठीक होने
का नतीजा यह होगा कि पश्चिम एशिया में अमेरिका के सबसे भरोसेमंद अरब देश के रूप
में पहचाने जाने वाले देश के रूप में सऊदी हनक कम हो जायेगी। ईरान की कोशिश यह भी
चल रही है कि पश्चिम एशिया में शिया शासकों की संख्या बढ़ाई जाए। जबकि यह रियाद को यह बिलकुल पसंद नहीं है। सऊदी
अरब ने देखा है कि किस तरह से 2010 के चुनाव के बाद भी ईरान की मदद से
इराक में शिया राष्ट्रपति बना रहा गया। रियाद की परेशानी यह है कि अमरीकी सत्ता
में उनके कोई लाबी ग्रुप नहीं हैं। इसलिए वह अमेरिका की नीतियों को उस तरह से नहीं
प्रभावित कर पाता जिस तरह से इजरायल कर लेता है। इसलिए ईरान के साथ हुए अमेरिका और
अन्य ताकतवर देशों के समझौते को समर्थन देने के अलावा सऊदी अरब के पास कोई रास्ता
नहीं था। सउदी अरब को डर है कि पश्चिम एशिया की राजनीति में उनकी घट रही ताकत को
और गति मिल जायेगी। उनके घोषित शत्रु ईरान अब उनके आका अमेरिका के करीब आ जाएगा। ईरान ने अपनी ताकत इराक और लेबनान में
बढ़ा ही लिया है। सीरिया में भी बशर अल असद के साथ इरान के सम्बन्ध हैं और
सुन्नियों के हमलों को रूस और इरान के बल पर लगातार नाकाम किया जा रहा है। सऊदी
अरब को उम्मीद थी कि वह सीरिया के खिलाफ भी फौजी ताकत का इस्तेमाल करेगा। खासतौर से
जब पिछले अगस्त में दमिश्क के पास एक आबादी पर सीरिया की सेना की तरफ से कथित
रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल की खबर आई थी। अगर ऐसा हुआ होता तो बशर अल असद की
सत्ता को हटाकर सऊदी पसंद का कोई शासक वहां बैठाया जा सकता था लेकिन अमरीकी
राष्ट्रपति ओबामा ने दूसरा रास्ता चुन लिया। उन्होंने रूस से समझौता कर लिया कि
सीरिया अपने रासायनिक हथियारों को खत्म कर देगा। हालांकि इस समझौते को ओबामा की
भारी कूटनीतिक सफलता माना गया लेकिन सऊदी अरब को इस से बहुत निराशा हुई।
अमेरिका की कथित शह से पश्चिम एशिया और
उत्तर अफ्रीका में लोकतंत्र की आवाजें जब जोर पकड़ने लगीं तो सऊदी हुक्मरान बहुत
चिंतित हुए। इसी प्रक्रिया में उनका सबसे करीबी अरब दोस्त होस्नी मुबारक हटा दिया
गया और बहरीन में भी सुन्नी शासक के खिलाफ जब लोकतंत्र वाले जुलूस निकलने लगे तो
सउदी अरब वालों को लगा कि उस अभियान को भी ईरान का सहयोग हासिल है। बहरीन का शासक
सुन्नी है लेकिन वहां भी आबादी का बहुमत वाला हिस्सा शिया समुदाय वालों का है।
कुल मिलाकर सऊदी अरब को इस बात से
नाराजगी तो है कि अमेरिका ईरान की तरफ खिंच रहा
है लेकिन जानकारों को मालूम है कि अमेरिका अभी सउदी अरब से रिश्ते खराब
नहीं कर सकता। खाड़ी के देशों में अमरीकी हितों के सबसे बड़े संरक्षक के रूप में
रियाद की हैसियत अभी कायम है और आने वाले बहुत दिनों तक उसके कमजोर होने की कोई
संभावना नहीं है। लेकिन अमेरिका भी खाड़ी के देशों में सऊदी अरब के विकल्प की तलाश
कर रहा है। इराक में सत्ता परिवर्तन के साथ उनको उम्मीद थी कि वहां एक ऐसा साथी
मिल जाएगा जो पुराने सद्दाम हुसैन की तरह काम करेगा लेकिन वाहन बहुमत की सत्ता आ
गई और बहुमत वहां शियाओं का है। नतीजा यह
हुआ कि वहां का शासक ईरान के यादा करीब चला गया। अमेरिका को खाड़ी के
धार्मिक संप्रदायों की उठापटक में कोई रुचि नहीं है। उसे तो वहां ऐसे राजनीतिक
हालात चाहिए जिससे उसकी मौजूदगी और ताकत मजबूती के साथ जमी रहे। सबको मालूम है कि
किसी भी कूटनीतिक चाल का उद्देश्य अपने राष्ट्रीय हित को मुकम्मल तौर पर पक्का
करना होता है। इसलिए अमेरिका इस इलाके में सऊदी अरब के ऊपर निर्भरता कम करने के
लिए ईरान को साथ लेने की नीति पर काम कर रहा है। यह शुरुआत है। सऊदी अरब को मालूम
है कि ओबामा अब खाड़ी के देशों की राजनीति
पर उतना ध्यान नहीं देंगे क्योंकि अब चीन के आसपास के देश उनकी प्राथमिकता सूची
में यादा ऊपर आ गए हैं।
इस सबके बावजूद भी सउदी अरब और अमेरिका
के बीच बहुत कुछ साझा है। दोनों ही देश पश्चिम एशिया में अल कायदा और ईरान की बढ़ती
ताकत से परेशान हैं। अमेरिका को लाभ यह है कि वह ईरान से दोस्ती करके अपनी कूटनीतिक
चमक को मजबूत कर सकता है लेकिन यह रियाद वालों को बिलकुल सही नहीं लगता। उनके पास अमेरिका के अलावा किसी और से मदद की
उम्मीद भी नहीं है और संभावना भी नहीं है। बीच में सऊदी शासकों ने यूरोपियन यूनियन
से दोस्ती बढ़ाने की कोशिश की थी लेकिन वे बेचारे तो अमेरिका की ही मदद के
याचक हैं। रूस और चीन भी अमेरिका का विकल्प नहीं बन सकते
इसलिए न चाहते हुए भी सऊदी अरब को अमेरिका का साथी बने रहने में भलाई नजर आती है। लेकिन एक बात साफ है कि ईरान से जिनेवा में हुए
इस समझौते के बाद खाड़ी की राजनीति में मौलिक बदलाव आने वाला है। यह भी तय है कि पिछले कई दशकों से अमरीकी
राजनीति की गलतियों के चलते पश्चिम एशिया में जो संघर्ष के हालात पैदा हो गए थे अब
उनमें भी बदलाव होना तय है। हो सकता है कि इसका श्रेय बराक ओबामा के खाते में जाय
और उनकी वाहवाही हो लेकिन मध्यपूर्व में अमेरिका के सबसे बड़े सहयोगी के रूप में
सऊदी अरब की हैसियत कम हों एक दिन बहुत करीब आ गए हैं।
देशबन्धु
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