चारा घोटाला मामले में जब न्यायपालिका
ने लालू प्रसाद यादव को दोषी ठहराते हुए जेल भेज दिया तो यह उम्मीद जगी थी कि
पार्टी का नेतृत्व नए हाथों में स्थानांतरित हो जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं होने से लोकतंत्र
समर्थकों की यह उम्मीद भी खत्म हो गई। न्यायपालिका के फैसले के आलोक में राष्ट्रीय
जनता दल ने अपने कार्यकारी सदस्यों की बैठक बुलाई। इस बैठक में यह निर्णय किया गया
कि पार्टी का नेतृत्व अभी भी लालू प्रसाद यादव के हाथों में रहेगा। वह जेल की
सलाखों के पीछे से ही पार्टी का संचालन करेंगे और दिन प्रतिदिन के कामों का संचालन
उनकी पत्नी राबड़ी देवी करेंगी। फिर भी धीरे-धीरे माहौल में बदलाव आना शुरू हुआ
है। लोकतंत्र समर्थक सिविल सोसाइटी के सदस्यों ने भ्रष्ट राजनेताओं के खिलाफ
न्यायपालिका की पहल पर जवाबदेही की मांग का सवाल उठाया है, लेकिन यहां पहली और आखिरी बात यही है
कि क्या इस सबसे राजनीतिक दलों के कार्य व्यवहार में कोई अंतर आया अथवा ऐसी किसी
अपेक्षा की उम्मीद बंधी? आज
भारत में राजनीति इस स्तर तक गिर चुकी है जिसमें राबड़ी देवी अथवा परिवार के किसी
दूसरे सदस्य का वैकल्पिक नेता के तौर पर आगे आना कोई आश्चर्य की बात नहीं। आम जनता
को इस तरह की बातों की पहले से अपेक्षा होती है, जिसका इस्तेमाल इस रूप में किया जाता है कि पार्टी के भीतर विरोध
करने वाला कोई विपक्ष नहीं है और सभी एकमत हैं।
इस संदर्भ में एक दूसरा प्रश्न यह भी
उभरता है कि जैसी स्थिति राजद में है, क्या वैसा ही कुछ अन्य दलों में भी है? इस प्रश्न का उत्तार बहुत सामान्य है कि अन्य राजनीतिक दलों में भी
कुछ अपवादों को छोड़कर ठीक इसी तरह की स्थिति देखने को मिलती है। आखिर दुनिया के
सबसे बड़े लोकतंत्र में वास्तव में हो क्या रहा है? हमारे यहां की दलीय प्रणाली में आखिर लोकतंत्र जैसी कोई बात क्यों
नहीं है? भारत में राजनीतिक पार्टियों का संचालन
पूरी तरह से सामंती तरीके से किया जा रहा है। यह सही है कि भारत में सामंतवाद पूरी
तरह से खत्म हो चुका है, लेकिन
राजनीतिक दलों के भीतर सामंती तौर-तरीके अभी भी बने हुए हैं। तीसरे, क्या दोषी नेता की अनुपस्थिति में
पार्टी में कोई और ऐसा नेता नहीं है जो नेतृत्व की बागडोर संभाल सके। करीब-करीब
सभी दलों में पार्टी के शीर्ष नेता के कद के नेता मौजूद हैं, किंतु राजनीतिक दलों में सामंती आर्ग्रह
इतने गहरे हैं कि कोई भी खुद को नेता के रूप में प्रस्तावित नहीं करता। भारतीय
दलतंत्र में इसे बगावत समझा जाता है। यह राजद के हालिया उदाहरण के अलावा कांग्रेस
के लंबे इतिहास से स्पष्ट हो जाता है। इससे एक और सवाल खड़ा होता है, पहले या दूसरे दर्जे के तमाम नेता
पार्टी के शीर्ष नेता के समक्ष इतने दब्बू या गुलामों की तरह व्यवहार क्यों करते
हैं? अधिकांश दलों में यह संस्कृति देखी जा
सकती है। इसका प्रमुख कारण पार्टियों में अंतर-दलीय लोकतंत्र का अभाव है। यह
भारतीय लोकतंत्र का दुर्भाग्य है कि इसमें अंतर दलीय लोकतंत्र पनप ही नहीं सका।
यूरोप और अमेरिका में अंतर-दलीय
लोकतंत्र सफलतापूर्वक चल रहा है। 17वीं सदी में ही लोकतंत्र का स्वाद चखने वाले
इंग्लैंड में अंतर-दलीय लोकतंत्र की उपेक्षा का कोई स्थान नहीं है। अंतर-दलीय
लोकतंत्र का अभाव एक किस्म का सामंतवादी प्रभाव है, जो इंग्लैंड में लोकतंत्र के उदय से पहले तक स्थापित था। क्या कोई
भारत में यह कल्पना भी कर सकता है कि बेहद शक्तिशाली मार्गरेट थैचर को जॉन मेजर
जैसा सामान्य सा नेता पार्टी के नेतृत्व के लिए चुनौती दे सकता है और बेदखल कर
सकता है। अमेरिका में प्राइमरी चुनाव अंतर-दलीय लोकतंत्र का सर्वोत्ताम रूप पेश
करते हैं। 2008 में डेमोक्रेटिकपार्टी में दो कट्टर विरोधी उम्मीदवार हिलेरी
क्लिंटन और बराक ओबामा में प्राथमिक चुनाव के लिए तगड़ा संघर्ष हुआ। तब एक अनजान
चेहरे बराक ओबामा ने कभी शक्तिशाली प्रथम महिला रहीं हिलेरी क्लिंटन को प्राइमरी
चुनावों में मात देकर डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी
हासिल की। पार्टी के शक्तिशाली नेता को चुनौती पेश करने के कारण किसी को भी दल से
बाहर नहीं निकाला गया। न तो हिलेरी क्लिंटन ने ओबामा से मात खाने के बाद अपनी नई
पार्टी बना ली और न ही हिलेरी और ओबामा में इसलिए दुश्मनी हो गई कि प्राइमरी
चुनावों में दोनों एक-दूसरे के खिलाफ लड़े थे। इसके बजाय हिलेरी क्लिंटन ने
राष्ट्रपति बराक ओबामा की यह पेशकश स्वीकार कर ली कि वह अमेरिका की विदेश मंत्री
बन जाएं। यह इसलिए संभव हुआ, क्योंकि वहां पार्टी किसी एक व्यक्ति की बपौती नहीं है। विश्व के
सबसे बड़े लोकतंत्र को अमेरिका के इस अंतर-दलीय लोकतंत्र से सबक सीखना चाहिए।
क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि
कांग्रेस पार्टी के भीतर सोनिया, राहुल गांधी को कोई इस प्रकार चुनौती दे सकता है जैसे बराक ओबामा ने
हिलेरी क्लिंटन को दी थी। अगर किसी ने ऐसा करने का साहस दिखाया तो उसे अगले ही दिन
पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा। क्षेत्रीय दलों की हालत तो और भी खस्ता
है। इनमें नेताजी का फैसला ही अंतिम शब्द होता है। इन दलों में लोकतंत्र का पूरी
तरह से हरण कर लिया गया है। इसीलिए इन दलों में परिवार के बाहर से दूसरी पीढ़ी के
नेता को उभरने ही नहीं दिया जाता। किसी पार्टी को चलाने या फिर सरकार चलाने का
अधिकार बस प्रथम परिवार को होता है। आगामी विधानसभा चुनावों में टिकट से वंचित रह
गए असंतुष्ट उम्मीदवारों की नाखुशी का एक कारण राजनीतिक पार्टियों में इसी अंतर-दलीय
लोकतंत्र का अभाव भी है। आज जब विश्व वैश्रि्वक गांव में तब्दील हो रहा है, भारत अपनी सवा अरब आबादी की आकांक्षाओं
की पूर्ति और कल्याण की अनदेखी नहीं कर सकता। आजादी के 66 साल बाद देश का
लोकतांत्रिक ढांचा अंतर-दलीय लोकतंत्र के अभाव से कमजोर हो रहा है। इस दिशा में
सुधार तभी संभव लगते हैं जब सुप्रीम कोर्ट चुनाव सुधारों पर भी नए प्रावधान लाए।
आज हर भारतीय की यही उम्मीद है।
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