गुरुवार, 28 नवंबर 2013

यौन उत्पीड़न का सिलसिला

महिलाओं के खिलाफ अपराधों के पंजीकृत मामलों की बढ़ती संख्या महिला सशक्तिकरण की संकेतक है, लेकिन अन्य संकेतकों की तरह ही यह भी असंतुलित है। देश के अनेक भागों में महिलाएं आज भी शोषण का शिकार हैं और चुपचाप पुरुष वर्चस्व वाले समाज में ज्यादतियां बर्दाश्त करती रहती हैं। यह न केवल विद्यमान सामाजिक असमानता का संकेतक है, बल्कि बढ़ती सामाजिक रुग्नता और पाखंड का भी प्रतीक हैं। एक तरफ भारत में देवियों की पूजा की जाती है और दूसरी तरफ उनका शोषण और उत्पीड़न किया जाता है। इस साल मध्य नवंबर तक दिल्ली में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 1435 मामले दर्ज किए जा चुके हैं, जबकि 2012 में महज 706 मामले दर्ज हुए थे। इससे पता चलता है कि महिलाओं पर होने वाले अत्याचार अब मामलों में तब्दील होने लगे हैं। लंबे समय से महिलाएं चुपचाप समाज के अत्याचार सहन कर रही थीं। इस कदम से उन्हें न्याय मिलने में एक हद तक सहायता मिलेगी। हालांकि यह सामाजिक मूल्यों के पतन का भी संकेतक है।

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के जज, जो अब रिटायर हो चुके हैं, पर उनकी सहायिका ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था। इसके बाद विधि क्षेत्र में ही वरिष्ठ पेशेवरों के खिलाफ यौन उत्पीड़न के कुछ और मामले उजागर हुए हैं। यौन उत्पीड़न के बढ़ते मामलों को देखते हुए अब यह आशंका पैदा हो गई है कि सफल वकीलों के दफ्तर में युवा महिला अधिवक्ताओं के काम करने के अवसर सिकुड़ न जाएं। ऐसे में सवाल पैदा होता है कि यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं को क्या करना चाहिए। उन्हें इन मामलों की शिकायत दर्ज करनी चाहिए या नहीं? इस प्रकार की परिस्थितियों में फंस चुकी बहुत सी महिलाएं महसूस करती हैं कि उनके पास हालात से निपटने का कोई कारगर उपाय नहीं है। खासतौर पर उन्हें नौकरी गंवाने की चिंता सताती है। उन्हें लगता है कि गलत हरकतों का विरोध करने पर उन्हें नकारात्मक परिणाम भुगतने पड़ेंगे, जो उनकी सुरक्षा या फिर काम की गुणवत्ता को प्रभावित कर सकते हैं।

नौकरी गंवाने का डर या फिर अनुचित व्यवहार की आशंका कुछ महिलाओं को हालात के सामने समर्पण करने को मजबूर कर देती है। ऐसे में वे गलत हरकतों का विरोध करने के बजाय उन्हें बर्दाश्त करने और अवांछित मांगों की पूर्ति के लिए राजी हो जाती हैं। चूंकि पीड़िता को लग सकता है कि गलत मांगों को मानने के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं है, वे प्रतिकार के डर से गलत संबंधों को स्वीकार भी लेती हैं। आंकड़े बताते हैं कि इस साल 540 मामलों में महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीड़न करने वाला उनका दोस्त या प्रेमी है, 330 मामलों में पड़ोसी है और केवल 53 मामलों में पीड़िता से किसी अनजान व्यक्ति ने दुष्कर्म किया है। यह सामाजिक मूल्यों के पतन का द्योतक है।

तरुण तेजपाल के हाई प्रोफाइल मामले में साथी कर्मचारी ने यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज कराई है। तरुण तेजपाल ने इसे नशे में की गई चुहल बताया है और इसमें पीड़िता की सहमति को भी दर्शाया है, लेकिन इससे अनेक सवाल उठते हैं। इसके पीछे क्या मानस था और वह भी अपनी बेटी की दोस्त के साथ इस तरह के व्यवहार का। क्या यह इसलिए हुआ कि वह शराब के नशे में चूर थे या उनके मन में वासना थी? या फिर सत्ता के मद में चूर होने के कारण यह सब हुआ? जिस प्रकार समाज में भ्रष्टाचार के लिए भौतिक संपदा और ताकत महत्वपूर्ण कारण हैं, उसी प्रकार इस प्रकार के आपराधिक कृत्य के लिए वासना और सत्ता प्रमुख कारण हैं। संपत्ति जुटाने के लिए किसी भी हद से गुजर जाना हमें हमारे स्व से काट देता है। इसी प्रकार महिलाओं के प्रति वासना हमें हमारी आत्मा से काट देती है। यह हमें अंतश्चेतना के बजाय तन की वासना की ओर ले जाती है और इससे जुड़ी माया या भ्रम जारी रहता है। आत्मा से कट जाने का दुष्परिणाम यह होता है कि हम खुद से बाहर आनंद तलाशने लगते हैं और यह भूल जाते हैं कि सुख हमारी आत्मा की सहज अवस्था है। यह भी मान लिया गया है कि धन, वासना और सत्ता हमें आनंद देती हैं और इसीलिए भौतिक सुविधाओं को हासिल करने और महिलाओं को काबू में करने की इच्छा बलवती हो जाती है।

आत्मा से संबंध विच्छेद का एक और महत्वपूर्ण कारण है मन की कमजोरी। इसके कारण व्यक्ति बाहरी प्रभावों में बह जाता है, जैसे शराब का नशा और सत्ता का मद। इनके प्रभाव में व्यक्ति विवेक का त्याग कर देता है। आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य हमारे काम को परिणाम की कसौटी पर परखता है, जो जिम्मेदारी का भाव लाने में एक अहम पहलू है। इस सोच के व्यक्ति ही मूल्यों के आधार पर चीजों को देख पाते हैं और सही-गलत के बीच अंतर को पकड़ पाते हैं। अध्यात्म का सबसे महत्वपूर्ण सबक है अहं, क्रोध, लालच, वासना और अनुराग जैसी बुराइयों को त्याग देना। ये सब भ्रम या माया हैं। हालांकि आत्मा से संबंध विच्छेद के कारण हम इन बुराइयों को त्याग नहीं पाते। एक बुराई से दूसरी पैदा होती है और यह कुचक्त्र इसी प्रकार चलता रहता है। जब हम समाज में ऐसे लोगों को अहमियत पाते देखते हैं जिनके पास पैसा, सत्ता और महिलाएं हैं तो हम भी इन्हें प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित होते हैं।


जैसे-जैसे यौन उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ती हैं, समाज की बुराइयां भी उजागर होती हैं। हमें खुद को ऐसे व्यक्ति के रूप में बदलना होगा जिसका लक्ष्य 'काम करना' है न कि इस पर विचार करना कि 'आप कैसा महसूस करते हैं।' इसलिए अपने आध्यात्मिक लक्ष्यों को निर्धारित कीजिए, भौतिक सुख तो खुद ब खुद मिल जाएगा। ज्ञानोदय तो अवधारणा में परिवर्तन मात्र है। ध्यान बाजार में बिकने वाली प्रतियों से हटाकर इस पर लगाना चाहिए कि पत्रिका में वास्तव में लोग काम करते हैं। अगर तरुण तेजपाल अपनी आत्मा से जुड़े रहते और अपना ध्यान 'मैं क्या हूं' से हटाकर 'मैं यह करता हूं तो क्या हो जाऊंगा' पर केंद्रित करते तो यह घटना नहीं घटती।

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