गुरुवार, 28 नवंबर 2013

ईरान से स्वागतयोग्य समझौता

ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर दुनिया के छह शक्तिशाली देशों, अमरीका, रूस, चीन. फ्रांस, जापान और जर्मनी के साथ जिनेवा में हुआ समझौता इस बात का परिचायक है कि अगर इच्छाशक्ति दिखलाई जाए तो वार्ता से शांतिपूर्ण ढंग से समस्याओं का समाधान तलाशा जा सकता है। ईरान का परमाणु कार्यक्रम में विश्व में तनाव का एक बड़ा कारण बना हुआ था। अमरीका और उसके साथी देश ईरान के परमाणु कार्यक्रमों को बंद कराना चाहते थे। उन्हें संशय था कि शांतिपूर्ण कार्यक्रम की आड़ में ईरान विध्वंस के हथियार न बना रहा हो। जबकि ईरान ऐसे आरोपों को खारिज करता रहा। अपनी बात मानते न देख अमरीका ने ईरान पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए थे, जिसकी वजह से उसकी आर्थिक स्थिति चरमरा गयी थी। ईरान की सीमा में पहुंचते ही वस्तुओं के दाम दोगुने-चौगुने हो जाते। खाद्य सामग्री, दवा व चिकित्सीय उपकरणों के महंगा होने से आम जनता को बेहद तकलीफ थी। ईरान से होने वाले तेल के निर्यात पर भी इसका विपरीत असर पड़ा। इससे न केवल ईरान को बल्कि उसके साथ व्यापार कर रहे दूसरे देशों के लिए कई संकट खड़े हो गए। भारत भी इसका भुक्तभोगी है। बहरहाल, अब ऐसी कई मुश्किलें थोड़े समय के लिए आसान हो जाएंगी, ऐसे आसार बन रहे हैं। जिनेवा में पांच दिनों की वार्ता के बाद जो परमाणु समझौत हुआ उसके तहत ईरान अगले छह महीनों तक अपनी परमाणु संवर्धन क्षमता में कोई वृध्दि नहीं करेगा और इसके लिए जो नए परमाणु संयंत्र वहां बनाए जा रहे हैं, उनके निर्माण कार्य को वहीं का वहीं छोड़ देगा। बदले में उस पर लगे अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों में लगभग 7 अरब डॉलर की ढील दी जाएगी। हालांकि ईरान के राष्ट्रपति ने कहा है कि परमाणु संवर्धन के उसके अधिकार को मान्यता दी गई है, लेकिन अमरीका के विदेश मंत्री जॉन कैरी ने इससे इंक़ार किया है। पर ईरान पांच प्रतिशत से ऊपर यूरेनियम संवर्धन रोकने पर सहमत हुआ है। एक राष्ट्रव्यापी प्रसारण में ईरान के राष्ट्रपति रोहानी ने दोहराया कि उनका देश कभी परमाणु हथियार नहीं बनाएगा। साथ ही उन्होंने कहा, कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि व्याख्या कैसे की जा रही है, संवर्धन के ईरान के अधिकार को मान्यता दी गई है। उन्होंने समझौते की ये कहते हुए सराहना की है कि ये ईरान के बुनियादी उसूलों के हिसाब से है। ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खमेनेई ने भी इस समझौते का स्वागत किया है। 6 महीनों के लिए वैध इस समझौते से सभी प्रसन्न हैं, किंतु इजराइल खिन्न है। उसके मुताबिक यह ऐतिहासिक भूल है। जहां तक भारत का सवाल है, यह समझौता उसके लिए भी फायदेमंद हो सकता है। भारत में तेल आयात का बड़ा हिस्सा ईरान से आता था। अमरीकी दबाव के कारण भारत की इस तेल व्यापार में भागीदारी ख़ासी घट गई और इसका नुकसान भारत को भुगतना पड़ा। फिलहाल ईरान से भारत का तेल आयात घटकर 10 फ़ीसदी से भी नीचे चला गया है। अब इसमें सुधार होगा।


 ईरान भारत का पड़ोसी देश है और वहां से तेल मंगाना आसान और फ़ायदेमंद होता है। ईरान से गैस आयात के लिए जिस पाइपलाइन की बात हो रही है, उस पाइपलाइन परियोजना पर आगे बढ़ा जा सकेगा। ईरान-पाकिस्तान-भारत पाइप लाइन पर तो प्रगति होगी ही, दूसरी तरफ़ ईरान से समुद्र के रास्ते भारत तक गैस पहुंचाने के प्रस्ताव में भी थोड़ी तेज़ी आएगी। भारत की ओएनजीसी विदेश और इंडियन ऑयल जैसी कंपनियों ने ईरान में भारी निवेश कर रखा है, प्रतिबंध के कारण वहां काम शुरु नहींहो पा रहा था, लेकिन अब वह आगे बढ़ेगा। ईरान में पुनर्निर्माण के काम शुरू होंगे और उसमें भाग लेने भारतीय कंपनियां ईरान जा सकेंगी। इस संभावित आर्थिक फायदे  के अलावा भारत को अपनी पिछली कूटनीति पर गौर करने का एक मौका भी मिल रहा है। अमरीकी दबाव में जरूरत से ज्यादा झुककर ईरान से दो हजार साल पुराने संबंधों को दांव पर लगा दिया गया था। अब संबंध सुधारने का अवसर आया है और भारत को इसका पूरा लाभ लेना चाहिए।

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