टमाटर और प्याज समेत खाद्य पदार्थो की
बेतहासा बढ़ती कीमतों को लेकर उपभोक्ता परेशान हैं, परंतु लोग भूल रहे हैं कि कुल मिलाकर कृषि उत्पादों का आयात-निर्यात
उपभोक्ताओं के हित में है। देश में खाद्य तेल और दाल की उत्पादन लागत ज्यादा आती
है। इनका भारी मात्र में आयात हो रहा है, जिनके कारण इनके दाम नियंत्रण में हैं। यदि हम विश्व बाजार से जुड़ते
हैं तो हमें टमाटर, प्याज
के दाम ज्यादा देने होंगे, जबकि तेल और दाल में राहत मिलेगी। मेरी समझ से उपभोक्ता के लिए तेल
और दाल ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। अत: टमाटर और प्याज के ऊंचे दाम को वहन करना चाहिए।
पिछले समय में टमाटर के दामों में जो
वृद्धि हुई है वह अल्पकालिक है। पाकिस्तान में टमाटर की फसल कमजोर होने के कारण
भारत से निर्यात हो रहा है। आने वाले समय में पाकिस्तान में पुन: टमाटर का उत्पादन
होगा और इनके दाम कम हो जाएंगे। तुलना में अपने देश में तेल और दाल की उत्पादन
लागत सदा ही ज्यादा आती है। इनका आयात निरंतर हो रहा है। अत: टमाटर के दाम में
अल्पकालिक वृद्धि से बचने के लिए हमें दाल और तेल के दाम में वृद्धि को न्योता
नहीं देना चाहिए। यह कुएं से निकल कर खाई में गिरने जैसा होगा।
सरकार ने कृषि उत्पादों के निर्यात पर
बार-बार प्रतिबंध लगाए हैं। साथ-साथ किसानों को विभिन्न प्रकार से सब्सिडी दी है, जैसे खाद और बिजली में। नीति है कि देश
के शहरी उपभोक्ताओं को किसी तरह प्रसन्न रखा जाए, परंतु यह नीति घातक है। इससे हमारी कृषि लगातार अकुशल बनी हुई है और
उपभोक्ता महंगा माल खरीदने को मजबूर हैं। सरकार ने 2007 में गेहूं और 2008 से गैर
बासमती चावल के निर्यात पर प्रतिबंध लगाए हैं। इन प्रतिबंधों के कारण घरेलू दाम
नियंत्रण में रहे,
परंतु
लंबे समय में यह हानिप्रद रहा है, क्योंकि किसान आधुनिक तरीकों को नहीं अपना पा रहा है। इस कारण अपने
देश में उत्पादन लागत लगातार ऊंची बनी हुई है।
इसी प्रकार सरकार द्वारा खाद, बिजली और सिंचाई पर भारी सब्सिडी दी जा
रही है। इस सब्सिडी के कारण अल्पकाल में दाम न्यून बने हुए हैं, परंतु प्राकृतिक संसाधनों का दुरुपयोग
हो रहा है, जैसे बिजली सस्ती होने के कारण किसानों
द्वारा पूरे खेत की पानी से भरकर सिंचाई की जाती है। स्प्रिंकलर अथवा डिप के उन्नत
तरीकों का उपयोग नहीं किया जा रहा है। फलस्वरूप फसल कम होती है और दाम ऊंचे बने
रहते हैं। कम लागत में अधिक फसल लेने के लिए आधुनिक तकनीकों को अपनाया जाना बेहद
जरूरी है। आर्थिक सुधारों की सोच थी कि कृषि सब्सिडी में कटौती करके बुनियादी
सुविधाओं या शोध में निवेश बढ़ाया जाएगा।
सब्सिडी देने से सीधे एवं तत्काल
उत्पाद के मूल्य कम हो जाते हैं। सिंचाई, सड़क, टेस्टिंग
और कोल्ड स्टोरेज जैसी बुनियादी सुविधाओं में निवेश से भी उत्पाद के दाम नियंत्रण
में आते हैं। इन निवेश के परिणाम आने में समय लगता है, परंतु यह सुधार टिकाऊ होता है, जैसे किसान ने उन्नत बीज तथा
स्प्रिंकलर से खेती शुरू कर दी तो इससे उत्पादन हर वर्ष अधिक होगा। इसकी तुलना में
सब्सिडी का प्रभाव अल्पकालिक होता है। सब्सिडी हटा लेने के साथ दाम पुन: चढ़ने
लगते हैं। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि बच्चा पढ़ाई में कमजोर हो तो दो उपाय हैं।
एक यह कि मास्टरजी से सिफारिश करके अंक बढ़वा लिए जाएं। दूसरा यह कि उसकी पढ़ाई के
लिए टेबल और लाइट की व्यवस्था कर दी जाए। वह सुगमता से पढ़ सकेगा तो सहज ही अंक
अच्छे आने लगेंगे। इसी प्रकार हमें बुनियादी सुविधाओं में निवेश करना चाहिए, न कि सब्सिडी में।
लेकिन 1991 के सुधारों के बाद सब्सिडी
पर खर्च दोगुना हो गया है, जबकि बुनियादी सुविधाओं में निवेश में कटौती हुई है। सरकार की इस
आत्मघाती नीति के कारण देश में कृषि उत्पादों के दाम ऊंचे बने हुए हैं और उपभोक्ता
परेशान हैं। आने वाले समय में दो और समस्याएं उत्पन्न होने को हैं। भूमि और पानी
की कमी बढ़ती ही जा रही है। शहरीकरण और सड़कों के लिए भारी मात्र में कृषि भूमि
खरीदी जा रही है। पानी की समस्या और ज्यादा विकराल है। मौसम वैज्ञानिकों का अनुमान
है कि आने वाले समय में वर्षा तेज परंतु कम समय के लिए होगी। ऐसी वर्षा का पानी
धरती में कम समाएगा और समुद्र में ज्यादा बहेगा। इस कारण ट्यूबवेल के माध्यम से
सिंचाई प्रभावित होगी। ग्लोबल वार्मिग के कारण पहाड़ों पर बर्फ का पिघलना जारी है।
बर्फ के पिघलने के बाद हमारी नदियों में पानी बहुत कम हो जाएगा। अत: जरूरी है कि
हम भूमि और पानी का कुशलतम उपयोग करें। कम भूमि और कम पानी से अधिक उत्पादन लेने
के लिए आधुनिक तकनीकों का सहारा लेना ही पड़ेगा।
इन समस्याओं के बावजूद हमारे कृषि
निर्यात बढ़ रहे हैं। 2001 में हमारे कृषि निर्यात छह अरब डालर थे, जो 2007 में 11 अरब हो गए थे। इनमें दो
गुना वृद्धि हुई,
लेकिन
इसी अवधि में हमारे कुल निर्यात तीन गुना हो गए। यानी कुल निर्यातों में हमारे
कृषि का हिस्सा फिसल रहा है। साथ-साथ हमारे कृषि आयात तेजी से बढ़ रहे हैं। 2002
से 2008 के बीच कृषि निर्यात में 45 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि कृषि आयातों में 161 प्रतिशत की।
हमें बताया गया था कि डब्लूटीओ संधि के लागू होने पर कृषि निर्यात बढ़ेंगे और
हमारे किसानों के लिए नए अवसर खुलेंगे। हो रहा है इसके ठीक विपरीत। आयातों के कारण
हमारे किसान घरेलू बाजारों से भी वंचित हो रहे हैं। इस समस्या के लिए डब्लूटीओ
संधि नहीं, बल्कि सरकार की कृषि नीति जिम्मेदार
है। सरकार का ध्यान कृषि के तकनीकी उन्नयन के स्थान पर सब्सिडी देकर अपनी राजनीतिक
नैया को आगे बढ़ाना मात्र रह गया है। बुनियादी सुविधाओं में निवेश करते तो हमारे
निर्यात बढ़ सकते थे। समय रहते हमें कुछ जरूरी कदम उठाने चाहिए। एक, कृषि सब्सिडी को हटाकर घरेलू मूल्यों
को वैश्विक मूल्यों के अनुरूप होने देना चाहिए। दो, बची राशि को बुनियादी सुविधाओं और तकनीकी उन्नयन में लगाना चाहिए।
साभारः दैनिक जागरण
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