इस समय विश्व अर्थव्यवस्था में सुधार आ
रहा है। अमरीका पहले ही मंदी से निकल चुका है। पिछली तिमाही में यूरोप की
अर्थव्यवस्था ने भी जोर पकड़ा है। लेकिन हमारी हालत पस्त है। हम पूर्व में नौ
प्रतिशत विकास दर हासिल कर चुके थे। आज पांच प्रतिशत भी बनाए रखना कठिन हो रहा है।
कारण हमारी घरेलू नीतियां हो सकती हैं।
पिछले दशक के अपने अनुभव से ज्ञात होता है कि इस समय रुपये का टूटना वैश्विक
कारणों से नहीं है। वर्ष 2002 से 2008 के बीच विश्व अर्थव्यवस्था स्थिर थी। इस
अवधि में रुपये का मूल्य 45 रुपये प्रति डालर पर टिका रहा। 2008 में वैश्विक मंदी
का दौर चालू हुआ जो कि 2012 तक चला। इस
अवधि में भी रुपये का मूल्य 45 रुपये प्रति डालर पर टिका रहा। इससे प्रमाणित होता
है कि रुपये पर विश्व अर्थव्यवस्था की चाल का विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है। 2012 के बाद
विश्व अर्थव्यवस्था ने पुन: सुधार की तरफ रुख किया है। लेकिन इस बार रुपये ने तेजी
से लुढ़कना शुरू कर दिया है। प्रमाणित होता है कि रुपये के टूटने का कारण वैश्विक
अर्थव्यवस्था का उलटफेर नहीं है।
इन कारणों को समझने के लिये विश्व
अर्थव्यवस्था से हमारे सम्बन्ध पर नजर डालनी होगी। विश्व अर्थव्यवस्था से हमारा एक संबन्ध आयात
और निर्यात से बनता है। वैश्विक संकट के कारण हमें आयातों में लाभ मिलता है।
वैश्विक अर्थव्यवस्था मंद होती है तो ईंधन तेल की खपत कम होती है। इससे तेल के दाम
में गिरावट आती है। तेल आयात करने का हमारा खर्च कम होता है। 2007 में तेल के दाम
145 डालर प्रति बैरल की ऊंचाई को छू गए थे। 2008 में संकट पैदा होने पर ये गिरकर
40 डालर पर आ गए थे। यह हमारे लिए लाभकारी रहा।
दूसरी तरफ हमारे निर्यात दबाव में आते
हैं। दूसरे देशों में हमारे माल की मांग कम हो जाती है। अत: समग्र रूप से देखें तो
हमारे विदेश व्यापार पर वैश्विक संकट का प्रभाव शून्य प्राय रहता है। फिर णभी
निर्यातों पर पड़ रहे दुष्प्रभावों को दूर करना होगा। इस दुष्प्रभाव का प्रमुख कारण
है कि हमारे निर्यात महंगे हैं। बाजार में मांग कम हो तो कुशल उद्यमी अपने माल का
दाम घटा कर बेच लेता है। अकुशल उद्यमी माल के दाम नहीं घटा पाता है और बाजार से
बाहर हो जाता है। इसी प्रकार हम अपने निर्यातों को सस्ता बना दें तो वैश्विक संकट
का सामना कर सकते हैं। परन्तु अपने देश में माल के दाम बढ़ते ही जा रहे हैं। इसका
मूल कारण है कि नेता और नौकरशाही की लूट बढ़ती ही जा रही है। बाजार का स्वभाव होता
है कि कुछ समय के अन्तर पर तेजी और मन्दी आती रहती है। जो कम्पनी अन्दर से सुदृढ़
रहती है वह मंदी को झेल लेती है। दूसरी डूब जाती है। वास्तव में मन्दी ही परीक्षा
का समय होता है। मंदी में जो उद्यम खड़ा रहता है वह तेजी में लाभ कमाता है। इसलिए
वैश्विक मंदी को दुखड़े का कारण बनाने के स्थान पर हमें आत्मचिंतन करना चाहिए कि हम
मंदी को झेल क्यों नहीं पा रहे हैं?
विश्व अर्थव्यवस्था से हमारा दूसरा
संबंध पूंजी के माध्यम से स्थापित होता है। वैश्विक संकट के कारण विदेशी निवेशक
अपने घर में दुबक जाते हैं। 2007 में अपने देश में 43 अरब डालर का विदेशी निवेश
आया था। 2008 में यह घटकर यह मात्र 8 अरब डालर रह गया था। परन्तु शीघ्र ही यह
पुराने स्तर पर आ गया। 2010 से 2012 के बीच लगभग 43 अरब डालर प्रति वर्ष आता रहा।
विश्व अर्थव्यवस्था मंदी के चपेट में थी परन्तु विदेशी निवेश पर असर नहीं पड़ा।
कारण कि विदेशी निवेश का दोहरा प्रभाव पड़ता है। एक तरफ विदेशी निवेशक दुबक जाते
हैं जैसा कि 2008 में हुआ। लेकिन दूसरी तरफ अमरीका में संकट गहराने से निवेशक अपनी
पूंजी को अमरीका से निकाल के दूसरे देशों में लगाना चाहते हैं। जैसे अपनी दुकान
घाटे में चल रही हो तो घरवाले अपनी पूंजी को म्युचुअल फंड में लगा देते हैं। 2009
से 2012 तक वैश्विक मंदी के बावजूद विदेशी निवेश आते रहने का यही कारण था। वर्तमान
में जो विदेशी पूंजी का पलायन हो रहा है उसका कारण घरेलू अर्थव्यवस्था में गिरावट
है। भारत में निवेश करना लाभप्रद नहीं रह गया है। भारतीय उद्योग की लागत यादा आ
रही है। इसका एक कारण मनरेगा है जिसके कारण श्रम के दाम बढ़ गए हैं। यह सकारात्मक
पक्ष है। दूसरा कारण भ्रष्टाचार और लालफीताशाही है। यह नकारात्मक पक्ष है। इस
भ्रष्टाचार के कारण विदेशी निवेशक भारत से पूंजी निकाल कर चीन, कोरिया, ताइवान में लगा रहे हैं।
विदेशी निवेशक जो पूंजी लाते हैं वह
देश पर एक प्रकार का ऋण होता है चूंकि इसे वे मनचाहे समय पर वापस ले जा सकते हैं।
विदेशी निवेशक डालर लाकर बैंक में जमा करा देते हैं। भारतीय आयातक द्वारा बैंक से
डालर खरीद लिए जाते हैं। यदि आयातक ने इन डालरों का उपयोग फैक्ट्री लगाने के लिए
मशीन का आयात करने का किया है तो परिणाम सुखद होता है। पूंजी खाते में मिले डालर
का उपयोग हम पूंजी खाते में निवेश करने के लिये कर लेते हैं। परन्तु इन डालर का
उपयोग खपत की वस्तुओं के लिए किया गया तो समस्या उत्पन्न हो जाती है। चीन के
खिलौने टूट फूट कर समाप्त हो जाते हैं लेकिन ऋण खड़ा रह जाता है। देश को एक कम्पनी
की तरह समझें। कम्पनी ऋण लेकर उद्योग लगाएं तो लाभ कमाती है। ऋण लेकर अय्याशी करे
तो डूब जाती है। सरकार ने देश को अय्याशी की राह पर चलाया है। खपत की वस्तुओं का
आयात करने को प्रोत्साहन दिया जैसे खुदरा बिी में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को छूट
देने से। सरकार द्वारा स्विस चाकलेट एवं फ्रेंच परफ्यूम को कम करने का जरा भी
प्रयास नहीं किया जा रहा है। बल्कि इस खपत को पोषित करने के लिये और अधिक मात्रा में
विदेशी निवेश को आकर्षित किया जा रहा है। इस कारण हमारी अर्थव्यवस्था बिगड़ गई है।
वर्तमान में हमारी बिगड़ती स्थिति का
कारण वैश्विक संकट नहीं, बल्कि
घरेलू नीतियां हैं। मनरेगा तथा भ्रष्टाचार के कारण हमारे उद्योगों की लागत यादा आ
रही है और हमारे निर्यात विश्व बाजार से बाहर हो रहे हैं। विदेशी निवेश से मिली
पूंजी का उपयोग विलासिता की वस्तुओं का आयात करने के लिए उपयोग करने के कारण रुपया
टूट रहा है। सरकार को चाहिए कि विदेशी निवेश को आकर्षित करने के स्थान पर आयातों
पर रोक लगाने का प्रयास करे। साथ-साथ गर्वनेन्स सुधार कर उद्योगों की लागत कम करनी
चाहिए।
देशबन्धु
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