सोमवार, 18 नवंबर 2013

लोकतंत्र का गिरता स्तर

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के प्रचार अभियान में नेताओं के बीच एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने की होड़ जिस तरह बढ़ती जा रही है उससे भारतीय लोकतंत्र की मान-मर्यादा को आघात ही लग रहा है। सूचना क्रांति के इस युग में अब नेताओं की कोई भी टिप्पणी जनता की निगाह से छिप नहीं सकती। बावजूद इसके वे किसी तरह का संयम दिखाने के लिए तैयार नहीं दिखते। नेताओं के चुनावी भाषण एक-दूसरे को चुनौती देने, तरह-तरह के आरोप लगाने और व्यक्तिगत आक्षेप करने तक सीमित रह गए हैं। नीतियों और मुद्दों की चर्चा तो बहुत दूर की बात हो गई है। चूंकि चुनाव के समय जनता का एक बड़ा वर्ग नेताओं के इस तरह के बयानों के प्रति रुचि प्रदर्शित करता है इसलिए मीडिया भी उन्हें महत्व देने से परहेज नहीं करता। वैसे भी जनता को यह जानने का अधिकार है कि उसके प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले नेताओं के तौर-तरीके क्या हैं? अपने देश में फिलहाल ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जिससे जनता को प्रत्याशी की उन क्षमताओं के बारे में पता लगे जो किसी योग्य जन प्रतिनिधि या फिर शासन का संचालन करने वाले शख्स में होनी चाहिए।

पिछले सप्ताह निर्वाचन आयोग ने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को उनके एक बयान के लिए चेतावनी दी तो भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी भी अपने कई चुनावी भाषणों के लिए कांग्रेस के निशाने पर आ गए। मोदी ने कांग्रेस के चुनाव चिन्ह का जिक्र खूनी पंजे के रूप में किया। वह राहुल गांधी के लिए शहजादे शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं, जो कांग्रेस को रास नहीं आ रहा। एक रैली में वह यह भी बोल गए कि कांग्रेस सीबीआइ और इंडियन मुजाहिदीन की मदद से चुनाव लड़ रही है। कांग्रेस में भी ऐसे नेताओं की कमी नहीं जो अपने तीखे और बेतुके बयानों को लेकर चर्चा में बने रहते हैं। हाल ही में सोनिया गांधी ने भाजपा नेताओं को केवल कुर्सी का सपना देखने वाला करार दिया। हालांकि खुद कांग्रेस भी ऐसा ही सपना देख रही है। सपा के नरेश अग्रवाल यह टिप्पणी कर अमर्यादित बयानबाजी करने वाले नेताओं की जमात में सबसे आगे हो गए कि एक चाय बेचने वाला देश के बारे में नहीं सोच सकता। उनका यह बयान उनकी सामंती सोच को ही दर्शाता है और जनता के ऐसे वर्ग को अपमानित करता है, जो ऐसे लोगों को अपना आदर्श मानते हैं जो साधारण परिवेश से निकल कर कामयाबी के शिखर छूते हैं।

एक समय था जब नेता एक-दूसरे के प्रति शालीन भाषा का इस्तेमाल करते थे। वे इसका ख्याल रखते थे कि राजनीतिक बयानबाजी व्यक्तिगत आक्षेप के स्तर पर न आने पाए। उनकी ओर से ऐसी टिप्पणियों से बचा जाता था जो राजनीतिक माहौल में कटुता और वैमनस्य पैदा कर सकती थीं। दुर्भाग्य से आज वह लक्ष्मण रेखा मिटा दी गई है और इसका परिणाम यह हुआ है कि राजनीतिक दलों के बीच कटुता उस स्तर तक जा पहुंची है जब उनके लिए किसी भी मसले पर सहमति कायम करना मुश्किल हो गया है। संप्रग सरकार के कार्यकाल पर ही नजर डालें तो यह स्पष्ट है कि भाजपा और कांग्रेस के बीच बनी दूरी के चलते राष्ट्रीय महत्व के अनेक मसलों पर आगे नहीं बढ़ा जा सका। भाजपा और कांग्रेस के बीच राजनीतिक विरोध स्वाभाविक है, लेकिन यह निराशाजनक है कि व्यक्तिगत आक्षेपों के कारण यह विरोध कटुता में तब्दील हो गया। कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा ने एक रचनात्मक विपक्ष की भूमिका अदा नहीं की और विरोध के नाम पर विरोध करने के उसके रवैये ने संप्रग सरकार को सही तरह काम नहीं करने दिया। इसके विपरीत भाजपा कांग्रेस पर अहंकारी रवैया प्रदर्शित करने का आरोप लगाती रही है। पता नहीं किसका पक्ष सही है, लेकिन जो कुछ स्पष्ट है वह यह कि हमारे देश की राजनीति का स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है। मुश्किल यह है कि गिरावट का दौर थमता नहीं दिख रहा। राजनीतिक दल विरोधियों को नीचा दिखाने के लिए गड़े मुर्दे उखाड़ने और उनके जरिये सनसनीखेज आरोप लगाने का काम कर रहे हैं। हाल के दिनों में कई नेताओं के खिलाफ ऐसे आरोप उछाले गए हैं जिनका इस्तेमाल पहले भी किया जा चुका है। ऐसे माहौल में यह आवश्यक हो गया है कि राजनीतिक दल इस पर विचार करें कि बयानबाजी का स्तर कैसे सुधारा जाए? केवल चुनाव के समय ही नहीं, बल्कि सामान्य अवसरों पर भी राजनेताओं के लिए अपने भाषणों में संयम और शालीनता का परिचय देना आवश्यक है। इसमें संदेह नहीं कि चुनाव के समय नेताओं के बीच गर्मागर्मी बढ़ जाती है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे अपने भाषणों में मर्यादा की दीवार ही गिरा दें।

नेताओं की अमर्यादित बयानबाजी के संदर्भ में निर्वाचन आयोग की भूमिका सीमित ही नजर आती है। हाल में उसने नेताओं की कुछ आपत्तिाजनक टिप्पणियों का संज्ञान लिया है और राहुल का मामला विशेष रूप से उल्लेखनीय है, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि उसके हाथ बंधे हुए हैं। निर्वाचन आयोग ऐसे मामलों में अधिक से अधिक अपनी असहमति जताने, चेतावनी देने अथवा फटकार लगाने तक सीमित है। चुनाव आयोग के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं जिससे वह अमर्यादित बयानबाजी करने वाले नेताओं को सही मायने में सख्त संदेश दे सके।

चुनाव के दौरान नेताओं की कोई टिप्पणी अथवा भाषण का एक अंश ही मीडिया के समाचारों में आ पाता है। कई बार उसके आधार पर पूरा मामला अथवा संदर्भ समझना मुश्किल होता है। राजनेता अपनी विवादित टिप्पणी पर अक्सर यह शिकायत करते दिखाई देते हैं कि उनकी बात का संदर्भ कुछ और था और इसे सही तरह समझा नहीं गया। उनके लिए इस तरह के तकरें की आड़ लेना सुविधाजनक बहाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं। वे ऐसी किसी व्यवस्था के निर्माण पर विचार करने के लिए तैयार नहीं जिसमें चुनाव के समय नेताओं को टेलीविजन अथवा अन्य किसी माध्यम में एक-दूसरे से सीधी बहस करने का मौका मिलता। ऐसी किसी व्यवस्था से ही जनता को नेताओं अथवा राजनीतिक दल के संदर्भ में सब कुछ सही-सही जानने-समझने का अवसर मिल सकता है। चुनावी रैलियों में चुनिंदा लोग ही पहुंच पाते हैं और जो भीड़ जुटती है उसका एक बड़ा हिस्सा भाड़े पर लाए गए लोगों का होता है। ऐसे में आम जनता के पास मीडिया की खबरों के आधार पर ही किसी प्रत्याशी के संदर्भ में अपनी राय बनाने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं होता।

पता नहीं निर्वाचन आयोग अथवा राजनीतिक दल चुनाव प्रचार के तौर-तरीकों में बुनियादी बदलाव लाने, विशेष रूप से प्रत्याशियों को एक मंच पर एक-दूसरे से बहस करने का अवसर देने की व्यवस्था बनाने के लिए कब आगे आएंगे? जब तक इस तरह की व्यवस्था नहीं बनती है तब तक जनता के समक्ष प्रत्याशियों और पार्टी की नीतियों के बारे में स्पष्टता नहीं आएगी। भारत के लोकतंत्र को अगर और अधिक मजबूत करना है तो इस तरह की व्यवस्था का निर्माण जल्द से जल्द किया जाना चाहिए चाहे इसके लिए निर्वाचन आयोग को कोई नए प्रावधान ही क्यों न बनाने पड़ें। कई देशों में लोकतंत्र ने इसीलिए मजबूती हासिल की है, क्योंकि वहां राजनीति के प्रत्येक स्तर पर पारदर्शिता को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। अमेरिका जैसे देशों में चुनाव प्रणाली बड़ी हद तक प्रत्याशियों के बीच सीधी बहस पर आधारित है। दुर्भाग्य से भारत में राजनीतिक वर्ग इससे बचता नजर आ रहा है।


दैनिक जागरण 

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