देश की राजनीति को आपराधिक पृष्ठभूमि वाले तत्वों से निजात दिलाने के इरादे से जुलाई, 2013 में ऐतिहासिक व्यवस्था देने के बाद अब उच्चतम न्यायालय ने एक और महत्वपूर्ण निर्देश दिया है। न्यायालय चाहता है कि सांसदों और विधायकों के खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों की सुनवाई एक साल के भीतर पूरी होनी चाहिए। यह निर्देश ऐसे समय आया है जब 16वीं लोकसभा और कुछ राज्यों की विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार इस समय करीब 14 फीसदी सांसद और 31 फीसदी विधायकों के खिलाफ अदालतों में संगीन अपराधों में संलिप्त होने के आरोप में मुकदमे चल रहे हैं। शायद यही वजह है कि स्थिति की गंभीरता को देखते हुए न्यायालय ने अभी सिर्फ जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 के दायरे में आने वाले अपराधों के आरोप में संलिप्त सांसदों और विधायकों के खिलाफ लंबित मुकदमों की सुनवाई एक साल के भीतर पूरी करने का निर्देश निचली अदालतों को दिया है।
इस निर्देश में स्पष्ट किया गया है कि इस कानून की धारा 8 के दायरे में आने वाले अपराधों के संदर्भ में उन सांसदों और विधायकों के खिलाफ लंबित मुकदमों की सुनवाई एक साल के भीतर पूरी की जाये, जिनमें अदालतों में अभियोग निर्धारण करने की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है। संप्रग सरकार के विधि एवं न्याय मंत्री कपिल सिब्बल भी चाहते थे कि हत्या, बलात्कार और अपहरण जैसे कम से कम सात साल की सजा वाले गंभीर अपराधों के आरोपियों को चुनाव प्रक्रिया से दूर रखा जाये। निर्वाचन आयोग भी चाहता है कि ऐसे व्यक्तियों को चुनाव लडऩे के अयोग्य घोषित करने के प्रस्ताव पर विचार किया जाये, जिनके मामले में अदालत ने आरोपों और साक्ष्यों की न्यायिक समीक्षा के बाद पहली नजर में अभियोग निर्धारित करके मुकदमा चलाने का निश्चय किया है और दोषी पाये जाने की स्थिति में उसे कम से कम पांच साल की सजा हो सकती हो।
जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा आठ में सभी प्रकार के गंभीर किस्म के अपराध शामिल हैं। इसके दायरे में भारतीय दंड संहिता के अतंर्गत आने वाले कई अपराधों को शामिल किया गया है। मसलन इसकी धारा 153-ए के तहत धर्म, मूलवंश, जन्म स्थान, निवास स्थान, भाषा आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच सौहार्द बिगाडऩे के अपराध, धारा 171-ई के तहत रिश्वतखोरी, धारा 171-एफ के तहत चुनाव में फर्जीवाड़े के अपराध, धारा 376 के तहत बलात्कार और यौन शोषण संबंधी अपराध, धारा 498-ए के तहत स्त्री के प्रति पति या उसके रिश्तेदारों के क्रूरता के अपराध, धारा 505 (2) या (3) के तहत किसी धार्मिक स्थल या धार्मिक कार्यों के लिये एकत्र समूह में विभिन्न वर्गों में कटुता, घृणा या वैमनस्य पैदा करने वाले बयान देने से संबंधी अपराध के लिये दोषी ठहराये जाने की तिथि से छह साल तक ऐसा व्यक्ति चुनाव लडऩे के अयोग्य होता है।
इसी तरह, नागरिक अधिकार संरक्षण कानून के तहत अस्पृश्यता का प्रचार और आचरण करने के कारण उत्पन्न निर्योग्यता लागू करने के लिये दंडित होने पर, सीमा शुल्क कानून धारा 11 के तहत प्रतिबंधित सामान के आयात-निर्यात के अपराध के लिये दोषी, विधि विरुद्ध क्रियाकलाप निवारण कानून की धारा 10 से 12 के अतंर्गत गैरकानूनी घोषित किसी संगठन के लिये धन संग्रह या किसी अधिसूचित क्षेत्र के बारे में किसी आदेश के उल्लंघन से जुड़े अपराध, विदेशी मुद्रा विनियमन कानून, स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ कानून, टाडा कानून, 1987 की धारा 3 से छह के प्रदत्त अपराध, धार्मिक संस्था दुरुपयोग निवारण कानून की धारा 7 या उपासना स्थल विशेष प्रावधान कानून के तहत धर्मिक स्थल का स्वरूप बदलने के अपराध, जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 125 के तहत चुनाव के बारे में विभिन्न वर्गों में वैमनस्य पैदा करने या धारा 135 के तहत मतदान केन्द्र से मतपत्र बाहर ले जाने, धारा 135-ए के तहत मतदान केन्द्रों पर कब्जा करने या धारा 136 के तहत कपटपूर्ण तरीके से नामांकन पत्र खराब करने या नष्ट करने के अपराध, राष्ट्र गौरव अपमान कानून के तहत राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रगान या देश के संविधान के अपमान के अपराध, सती निवारण कानून, भ्रष्टाचार निवारण कानून या आतंकवाद निवारण कानून 2002 के तहत अपराध में दोषी ठहराये जाने को भी अयोग्यता के दायरे में शामिल किया गया है।
सांसदों और विधायकों के खिलाफ लंबित उन मुकदमों में, जिनमे अभियोग निर्धारित हो चुके हैं, अब निचली अदालतों को तेजी से सुनवाई करनी होगी। यदि ऐसा नहीं हो पाता है तो संबंधित निचली अदालत को अपने राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को लिखित में उन कारणों की जानकारी देनी होगी। इसके बाद मुख्य न्यायाधीश ऐसे मामले की सुनवाई पूरी करने की अवधि बढ़ाने के लिये उचित निर्देश दे सकेंगे। चूंकि शीर्ष अदालत का यह निर्देश बाध्यकारी है, इसलिए निचली अदालतें जहां ऐसे मुकदमों की सुनवाई निर्धारित अवधि के भीतर पूरा करने का प्रयास करेंगी वहीं वकीलों के लिये भी इनकी सुनवाई स्थगित कराना आसान नहीं होगा। उच्चतम न्यायालय के निर्देश के कारण ऐसे नेताओं के लिये आने वाले समय में परेशानी हो सकती है । ऐसे नेताओं की सदस्यता खत्म होने के कारण संबंधित निर्वाचन क्षेत्र में फिर से उपचुनाव कराने की नौबत आ जायेगी। इसलिए बेहतर होगा कि राजनतिक दल ऐसे व्यक्तियों को चुनाव में टिकट देने से गुरेज करें।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें