क्रीमिया
में जनमत संग्रह
के बाद से
वैश्विक राजनीति और कूटनीति
में जबर्दस्त तूफान
का आलम है।
अब क्रीमिया को
रूस का हिस्सा
बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गई
है। दूसरी तरफ,
अमरीका, यूरोपीय संघ, जापान
और ऑस्ट्रेलिया ने
रूस और क्रीमिया
के कुछ लोगों
पर प्रतिबन्ध लगाने
की घोषणा की
है। फ्रांस
ने एक वक्तव्य
जारी कर रूस
को जी-8 से
निलम्बित करने और
आगामी बैठक में
भाग नहीं लेने
देने की धमकी
दी है। हालांकि
जी-8 की सदस्य
जर्मन चांसलर एंजेलिना
मर्केल फ्रांस के वक्तव्य
पर अपनी असहमति
जताते हुए रूस
को जी-8 का
सदस्य बनाये रखने
की बात कर
रही हैं। चीन
और भारत पूरे
मामले पर शांत
हैं और रूस
के पक्ष में
दिख रहे हैं।
द्वितीय विश्व युध्द के
बाद यह पहली
घटना है जब
रूस ने किसी
देश के किसी
प्रान्त (प्रायद्वीप) को अपनी
सीमा में मिलाने
का प्रयत्न किया
है। क्रीमिया के
विवाद पर अब
विश्व दो धड़ों
में बंटता दिख
रहा है जो
पूर्व सोवियत युग
की याद दिलाता
है।
क्रीमिया
पर गहराए विवाद
के पीछे यूक्रेन की
राजनीतिक अस्थिरता और अराजकता
है। यूक्रेन में
पिछले माह हुई
हिंसक घटनाओं के
बाद तात्कालीन राष्ट्रपति
विक्टर यानुकोविच को वहाँ
की संसद ने
महाभियोग लगाकर पदच्युत कर
दिया और उनकी
जगह स्पीकर अलेक्जेंडर
तुर्चिनोव को अस्थायी
रूप से राष्ट्रपति
के कार्यों की
जिम्मेदारी सौंप दी।
बिगड़ती परिस्थितियों के बीच
यानुकोविच राजधानी कीव छोड़कर
किसी अज्ञात स्थान
पर चले गए।
राजधानी कीव के
हालात अभी सुधरे
भी नहीं थे
कि दक्षिण पूर्वी
प्रान्त क्रीमिया पर रूस
ने अपने सैनिकों
को भेजकर पूरी
दुनिया का ध्यान
अपनी ओर आकृष्ट
कर लिया और
राजनीतिक उठा-पटक
के बीच एक
नए विवाद की
शुरुआत हो गई।
यूरो मैदान में
रूस
की
दखल
दरअसल,
नवम्बर 2013 में यूरोपीय
संघ और यूक्रेन
के बीच दूरगामी
राजनीतिक और मुक्त
व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर
होने वाले थे।
जिसके बाद यूक्रेन
भी 28 देशों के यूरोपीय
संघ का सदस्य
बन जाता। इस समझौते
के लिए यूरोपीय
संघ के कुछ
देश खासकर-जर्मनी,
कई वर्षों से
प्रयासरत थे।
परन्तु ऐन वक्त
पर राष्ट्रपति यानुकोविच
का पलट जाना
और इसके बदले
रूस से 15 अरब
डॉलर की सहायता प्राप्त करना
विपक्ष तथा यूरोपीय
संघ के हिमायतियों
को नागवार गुजरा,
परिणामस्वरूप सरकार विरोधी आंदोलन
की शुरुआत हुई।
कीव की
सड़कों पर प्रदर्शनकारी
उतर आए। आंदोलनकारियों
ने इस आंदोलन
को ''यूरोमैदान अथवा
एवरो मैदान'' (शाब्दिक
अर्थ- यूरो चौक)
नाम दिया है।
इसी बीच सरकार
ने राजधानी में
हो रहे प्रदर्शन
पर लगाम कसने
के लिए सख्त
कानून लागू कर
दिया, जिसके अंतर्गत,
सरकारी काम-काज
में बाधा डालने
या सरकारी इमारतों
तक जाने का
रास्ता रोकने पर जेल
की सजा का
प्रावधान कर दिया
गया। प्रदर्शन के
दौरान हेलमेट या
मास्क पहनने पर
भी रोक लगा
दी गई। लेकिन
आंदोलनकारियों का सरकार
विरोधी प्रदर्शन जारी रहा।
19 व 20 फरवरी 2014 को पुलिस
तथा प्रदर्शनकारियों में
झड़प हुई जिसमें
70 से अधिक लोग
मारे गए और
लगभग 500 घायल हो
गए। इस घटना
के बाद 23 फरवरी को यूक्रेन
की संसद ने
महाभियोग लगाकर राष्ट्रपति विक्टर
यानुकोविच को सत्ता
से बेदखल कर
दिया और उन्हें
देश छोड़कर भागने
को मजबूर होना
पड़ा। इधर ''यूरोमैदान''
का आंदोलन जारी
ही था कि
रूस के समर्थकों
और सैनिकों ने
क्रीमिया की सरकारी
इमारतों, संसद, हवाई अड्डे
और बंदरगाह पर
कब्जा कर
लिया। बहुसंख्यक रूसी
भाषी क्रीमिया अब
रूस के कब्जे
में है। रूसी
राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन के
इस कदम से
दुनिया भर में
चिंता छा गई
और कई देशों
के राजनयिक हरकत
में आ गए।
रूस के कदम
को अंतरराष्ट्रीय शांति
और सुरक्षा के
लिए खतरा बताया
जाने लगा। ''यूरोमैदान''
का आंदोलन अब
क्रीमिया और रूस
के बीच फंसकर
रह गया है।
क्रीमिया पर
हक
सन्
1954 से पहले क्रीमिया
रूसी सोवियत संघात्मक
समाजवादी गणराय का अंग
था और उस
समय सोवियत संघ
में कम्युनिस्ट पार्टी
के महासचिव निकिता
ख्रुश्चेव थे जो
यूक्रेनी थे।
उन्होंने फरवरी 1954 में क्रीमिया
को यूक्रेनी सोवियत
समाजवादी गणराय के अधीन
कर दिया। चूँकि
रूस और यूक्रेन
सोवियत संघ के
ही अंग थे
इसलिए ख्रुश्चेव के
इस निर्णय से
किसी को तकलीफ
नहीं हुई। वह दौर
सोवियत संघ के
मजबूत संगठन और
सदस्य गणरायों के
विकास का था। सोवियत
संघ के गणराय
आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक
दृष्टि से सामान
अधिकार रखते थे
इसलिए भी उस
समय क्रीमिया का
यूक्रेन के साथ
मिल जाने का
विरोध औचित्यहीन था।
1991 में सोवियत संघ से
अलग होकर जब
यूक्रेन स्वतंत्र देश बना
तब क्रीमिया ने
उसके साथ ही
रहने का निर्णय
लिया। यूक्रेन भाषाई
आधार पर रूस
से बिलकुल अलग
देश बन गया।
यहां 78 प्रतिशत यूक्रेनी भाषा
बोलने वाले और
17 प्रतिशत रूसी भाषा
बोलने वालों की
जनसंख्या है। जबकि
क्रीमिया प्रांत में लगभग
59 प्रतिशत रुसी मूल
के बहुसंख्यक रुसी
भाषी हैं। यूक्रेन
का भाग होने
के बावजूद क्रीमिया
को स्वायत्त गणराय
का दर्जा प्राप्त
है। भाषायी आधार
पर भिन्न होने
के कारण यह
दक्षिण पूर्वी प्रान्त अपने
आप को यूक्रेन
से दूर और
रूस के करीब
मानता आया है।
इसका महत्वपूर्ण कारण
पिछले 15 वर्षों से यूक्रेन
में पैर पसार
रहे दक्षिण पंथी
और नाज् ाी
(निओ-नाज् ाी) विचार
वाले चरम पंथी
हैं। जो
चाहते हैं कि
यूक्रेन पूर्ण रूप से
यूक्रेनी भाषा बोलने
वाले लोगों का
देश बने और
दूसरी भाषा वाले
यहाँ से अपने
मूल स्थान चले
जाएँ। वे अन्य
भाषी लोगों को
यूक्रेनी नागरिक मानने से
इंकार करते हैं।
यह विडम्बना ही
मानी जायेगी कि
पूर्व सोवियत संघ
से अलग हुए
कई गणरायों में
इस समय भाषायी
आधार पर देश
की रक्षा करने
वाले अतिवादी सक्रिय
हैं।
सोवियत
संघ के समय
सामाजिक और आर्थिक
समरूपता के लिए
प्रान्तीय आधार पर
कल-कारखानों की
स्थापना की गई
थी। यूक्रेन दुनिया
का तीसरा सबसे
बड़ा कृषि उत्पादक
देश है। यहाँ
गेहूं की पैदावार
प्रचुर मात्रा में होती
है। ब्लैक सी
अर्थात काला सागर
के तट से
लगा होने के
कारण यहाँ औद्योगिक
विकास भी बहुत
हुए। विनिर्माण क्षेत्र
में एयरोस्पेस, औद्योगिक
उपकरण, रेल आदि
के आने से
यूक्रेन रूस के
बाद सोवियत संघ
का दूसरा सबसे
बड़ा गणराय बन
गया था। दरअसल, सोवियत
संघ के बुनियादी
ढांचे को तैयार
करते वक्त हर
गणराय को वहाँ
की प्रचुरता के
स्वरूप बांटा गया था।
संघ के सभी
गणराय एक-दूसरे
के लिए उपयोगी
और एक-दूसरे
पर आश्रित होते
थे। यूक्रेन में
प्राकृतिक गैस की
कमी है, जिसे
रूस पूरा करता
आया है। इसी प्रकार
यूक्रेनी गेहूं रुसियों के
भोजन का महत्वपूर्ण
हिस्सा है। रुसी
अंतरिक्ष अभियान के विकास
में भी यूक्रेन
का 'एअरोस्पेस' महत्वपूर्ण
भूमिका निभाता आया है।
यूक्रेन
के स्वतंत्र राष्ट्र
बनने के बाद
से काला सागर
को लेकर रूस
और यूक्रेन के
बीच खींच-तान
चलती रही। रूस
अपने नौसैनिकों के
लिए काला सागर
में एक स्थायी
ठिकाना चाहता था। अंतत: 1997 में रूस
और यूक्रेन के
बीच हुई एक
संधि में काला
सागर के 81 प्रतिशत
भाग को रुसी
नौसैनिकों के उपयोग
के लिए दे
दिया गया। इस संधि
से एक तरफ
जहाँ रूस अपने
मिशन ''काला सागर''
में कामयाब हो
गया वहीं यूक्रेन
को सब्सिडी के
तहत प्राकृतिक गैस
तथा अन्य आर्थिक
सहायता प्राप्त होने लगीं।
आगामी वर्षों में
तात्कालीन यूक्रेनी सरकार का
रूस के प्रति
झुकाव बढ़ता जा
रहा था कि
सन् 2004 में पश्चिम
की नुमाइंदगी करने
वाली विपक्ष की
नेता यूलिया तिमोशेंको
के नेतृत्व में
ऑरेंज रेवोल्युशन ( नारंगी
क्रांति) का आगाज्
ा हो गया।
नारंगी क्रांति का मुख्य
उद्देश्य सत्तारूढ़ सरकार को
उखाड़ फेंकना, संवैधानिक
सुधार करना और
भ्रष्टाचार मुक्त सरकार का
गठन करना था।
लगभग दो साल
के बाद तिमोशेंको
यूक्रेन की प्रधानमंत्री
चुनी गईं। चार वर्षों
के शासनकाल में
तिमोशेंको का ''पश्चिमी''
एजेंडा चलता रहा।
यूक्रेन को रूस
से अलग कर
यूरोपीय संघ के
देशों के साथ
आर्थिक-व्यापारिक समझौते की
रूपरेखा तैयार की गई।
इसी बीच यूक्रेन
में भाषायी मतभेद
भी उभरकर आने
लगे। रूस के
साथ सम्बन्धों में
फिर से खटास
आ गई। सन्
2008 में
रूस ने गैस
की सप्लाई रोक
दी जिस कारण
यूक्रेन आर्थिक मंदी में
चला गया। देश
की हालत खराब
हो गई। तिमोशेंको पर भ्रष्टाचार
के आरोप भी
लगे। मुसीबतों से
घिरी तिमोशेंको सन्
2010 के चुनाव में हार
गईं और विक्टर
यानुकोविच राष्ट्रपति चुन लिए
गए। नई सरकार
ने भ्रष्टाचार के
आरोप में तिमोशेंको
के खिलाफ मुकदमा
चला दिया और
अंतत: तिमोशेंको को
7 साल की कैद
की सजा हो
गई। परन्तु, विपक्ष
और दक्षिणवादी चरम
पंथियों ने यूक्रेन
की सरकार पर
यूरोपीय संघ के
साथ समझौते का
दबाव बनाये रखा। जिसे
नवम्बर 2013 में फलीभूत
होना था, परन्तु
सोवियत संघ के
जमाने से रूस
के समर्थक और
नजदीकी माने-जाने
वाले राष्ट्रपति विक्टर
यानुकोविच ने न
सिर्फ यूरोपीय संघ
के साथ किसी
भी प्रकार के
समझौते और गठबंधन
से इंकार
कर दिया बल्कि
रूस के साथ
कारोबारी संधि की,
जिसके बाद यूक्रेन
में प्रदर्शन शुरू
हो गए।
यूरेशियाई आर्थिक संघ
यूरोपीय
संघ के साथ
राजनीतिक और मुक्त
व्यापार समझौते से तात्कालीन
राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच के
इंकार के लिए
यूरेशियाई आर्थिक संघ को
जिम्मेदार माना जा
रहा है। इस
संघ की स्थापना नवम्बर
2011 में तीन सदस्य
देशों- रूस, कज्
ााकिस्तान और बेलारूस
ने की है।
संघ ने जनवरी
2012 से यूरेशियाई आयोग की
भी शुरुआत कर
दी है। इस
संघ का मुख्य
लक्ष्य मुक्त व्यापार, कस्टम
और वाणियिक आदान-प्रदान से सदस्य
देशों को लाभ
पहुंचाना है।
किर्गिस्तान और ताजिकिस्तान
ने भी संगठन
में शामिल होने
की इच्छा जताई
है। अगस्त 2013 में
यूक्रेन ने भी
अपनी सदस्यता के
लिए संघ को
आवेदन दिया है।
जॉर्जिया के
राष्ट्रपति ने भी
अगस्त 2013 में यूरेशियाई
संघ में शामिल
होने की बात
की थी परन्तु
बाद में वो
पलटते हुए यूरोपीय
संघ में शामिल
हो गए। अर्मेनिया
ने भी इस
संघ को लाभकारी
माना है तथा
जल्द इसमें शामिल
होने की इच्छा
जताई है। यूरोप और अमरीका
को भय है
कि इस संघ
के मजबूत होने
से यूरोपीय संघ
पर असर पड़ेगा।
विश्व के कई
देश इसे भूतपूर्व
सोवियत संघ के
नक्शेकदम पर जाते
हुए देख रहे
हैं। अगर ऐसा
होता है तो
राष्ट्रपति पुतिन और भी
मजबूत हो जायेंगे।
अमरीका और उसके
पिट्ठू यूरोपीय संघ के
कई देश सामरिक
और आर्थिक रूप
से अपने आपको
कमजोर होते देख
रहे हैं। यूक्रेन के
साथ होने वाले
यूरोपीय संघ के
जिस समझौते से
जर्मनी को अरबों
का फायदा होता
वह शायद इसी
संघ के कारण
नहीं हो सका। दूसरी
तरफ काला सागर
और भूमध्य सागर
में रुसी बेड़े
की उपस्थिति से
रूस की सैन्य
ताकत बढ़ गई
है। यही
वजह थी कि
सीरिया मामले पर अमरीका
और यूरोपीय संघ
रूस की मुखालफत
नहीं कर पाए। ''पश्चिम''
कतई नहीं चाहेगा
कि पूर्व सोवियत
गणराय फिर से
मजबूत हों और
आपस में आर्थिक,
सामरिक तथा राजनीतिक
मंच पर एक
साथ आएं। दूसरी
तरफ, यूक्रेन गेहूं और चीनी
का बहुतायत निर्यात
सीआईएस (कॉमन इंडिपेंडेंट स्टेट्स
अथवा पूर्व सोवियत
संघ के गणरायों
का संगठन ) देशों
को करता
है। यूरोपीय
संघ से समझौते
के बाद यूक्रेन में
कोटा सिस्टम लागू
हो जाता जिसके
तहत यूक्रेन मात्र
20 हजार से 2 लाख
टन ही गेहूं
का निर्यात यूक्रेन
कर पाता जबकि
वैश्विक स्तर पर
10 से 15 मिलियन टन का
निर्यात यूक्रेन करता आया
है। जिस वजह
से यूक्रेन को
भारी क्षति होती
तथा कई उद्योग
भी बंद हो
जाते और बेरोजगारी
बढ़ती। यूरोपीय संघ
की सोच सिर्फ
आर्थिक मामले तक ही
सीमित नहीं है।
सामरिक और राजनैतिक
खांचे में भी
इसे समझने की
जरूरत है। क्योंकि
रूस की सीमा
से लगे इस
देश को नाटो
के पक्ष में
झुकाकर उसका रणनीतिक
लाभ उठाया जाता। परन्तु
इन सारी रणनीतियों
में असफल होने
के बाद यूक्रेन
में गृहयुध्द की
स्थिति पैदा करके
अस्थिरता फैलाई जा रही
है। क्रीमिया पर
रुसी सैनिकों के
कब्जे और 16 मार्च
को रूस में
विलय पर मतदान
के बाद यूक्रेन
ने पूरे देश
के रुसी टीवी
चैनलों को बंद
करा दिया है।
कई रुसी समर्थक
पत्रकार गिरफ्तार कर लिए
गए हैं। इस
बीच यूरो संघ
ने मानवाधिकार हनन
का हवाला देते
हुए पर्यवेक्षकों
के दल को
यूक्रेन भेजा था
परन्तु इस दल
ने भी जो
रिपोर्ट सौंपी है वह
संघ के खिलाफ
है जिसमें कहा
गया है कि
''यूक्रेन में सत्ता
हथियाने वाली ताकतें
फासीवादी तरीके से अल्पसंख्यकों के
अधिकारों को भंग
करने की कोशिश
कर रही हैं
और उनके विरुध्द
कार्रवाई करने के
लिए बहुसंख्यक यूक्रेनी
लोगों को भड़का
रही हैं। नस्लवादी
नारे लगाये जा
रहे हैं।''
यूरो मैदान
के भंवर में
फंसे यूक्रेन की
बाजी रूस के
हाथों लगती है
या यूरोपीय संघ
के, यह अभी
भविष्य के गर्भ
में है। इधर
क्रीमिया की वर्तमान
परिस्थितियों का असर
विश्व की भौगोलिक सीमाओं पर
किस तरह पड़ता
है, यह देखना
अभी बाकी है।
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